*मृत व्यक्ति के कपड़े पहनना क्या आफत को बुलावा देना है ?*

 

मृत व्यक्ति के कपड़े पहनना क्या आफत को बुलावा देना है !

 एक बुनियादी सवाल हमारी जहन में रहता है कि- *Kya mrit vyakti ke kapde pahnne chahiye ? हमारी भारतीय संस्कृति की सनातन परंपराओं में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने के बाद उसके कपड़ों को उसके परिवार के द्वारा नहीं पहना जाता है। भारत की सनातन परंपरा को छोड़ और किसी भी सभ्यता की संस्कृतियों में ऐसी परंपरा हमें देखने को नहीं मिलती है। 

 भारतीय सनातन में ऐसी परंपरा क्यों है ? इसके जवाब में हमारे बड़े-बूढ़े हमें बताते हैं कि मृत व्यक्ति की आत्मा परिवार के उस व्यक्ति को नुक्सान पहुंचा सकती है जिसने उसके कपड़े पहने है। तो क्या वाकेई में ऐसा होता है, या फिर यह महज एक अँधविश्वास है? आइये इस संदर्भ में सविस्तार से जानते हैं :-

  मनुष्य मरने से पहले ही मरता है !

  जब कोई व्यक्ति मरता है तो वह ठीक उसी तरह मरता है जिस तरह से उसका जन्म होता है। हाँ, किसी मनुष्य का जन्म यूँ एकाएक नहीं हो जाता, उसे जन्म लेने में 9 से 12 महिनों का समय लगता है, तो कहीं जा कर ही मनुष्य जन्म लेता है। 

 इसी तरह जब कोई मनुष्य मरता है तो वह एकाएक नहीं मरता है, बल्कि उसके मरने की प्रक्रिया जब वह जीवित होता है उससे पहले ही शुरु हो जाती है। सामान्य मृत्यु (निर्धारित आयु) मरने वाले उस मनुष्य के भीतर कुछ खास तरह के बदलाब होने शुरु हो जाते हैं। ऐसा मनुष्य अचानक से अपने-आप को खाली-खाली-सा महसूस करने लगता है। ऐसा मनुष्य बहुत क्रोधी भी हो जाता है। वह अपनी बुद्धि और विवेक को खोना शुरु कर देता है। उसका अपने खुद के व्यक्तित्व पर नियंत्रण नहीं-सा रहता है, या फिर ऐसा मनुष्य आवश्यकता से अधिक खामोश-खामोश-सा रहना शूरू करता है, या अत्यधिक उत्साहित और मिलनसार हो कर सबके दिलों में अपने-लिये एक-स्थान छोड़ जाता है। इस दौरान ऐसे मनुष्य को विचित्र-स्वप्न भी आने लग जाते हैं, जिनका संबंध स्वप्नशास्त्र के अनुसार उसकी निकटतम मृत्यु से संबंधित होती है।

 मनुष्य की मृत्यु के पल के बाद उसकी मृत्यु !

 किसी मनुष्य का मेडिकल रूप से मृत घोषित होने के बाद भी वह व्यक्ति नहीं मरता है। क्योंकि उसके भीतरी संभागों में जो प्राण (पंच-प्राण) होते हैं वे धीरे-धीरे कदम-दर-कदम बाहर आते हैं। भौतिक-जीवन-ऊर्जा, जिसे हम आमतौर पर प्राण कहते हैं, उसके पांच मूलरूप हैं - समानवायु, प्राणवायु, उदानवायु, अपानवायु और व्यानवायु। 

  जब किसी व्यक्ति को कोई डाक्टर किसी पल में मृत घोषित करता है तो उस क्षण उसके भीतरी संभागों से *समानवायु 21 से 24 मिनट में बाहर निकलने लगती है, यानी शरीर में तापमान बनाये रखने के लिये समानवायु जिम्मेवार है। समानवायु के निकलते ही मनुष्य का शरीर ठंडा पड़ जाता है। पारंपरिक रूप से मृत्यु का पता लगाने के लिये लोग नाक को छुते हैं। अगर नाक ठंडी हो गई है तो वे समझ जाते हैं कि व्यक्ति की मृत्यु हो गई है। वो आँख या किसी और अंग को नहीं देखते। 48 से 64 मिनट के बीच फिर *प्राणवायु बाहर निकल जाती है। फिर उसके बाद *उदानवायु निकल जाती है। लेकिन उदानवायु के निकलने से पहले भी व्यक्ति को जीवित किया जा सकता है, मगर यह एक तांत्रिक-प्रक्रिया है जिसे प्राचीन भारतीय परंपराओं में कभी-एक-बार कुछ-कुछ ऋषियों के द्वारा किसी खास परिस्थिति में ऐसा किया जाता था। परंतु उदानवायु के निकल जाने के बाद मनुष्य का शरीर (किसी खास कंडीशन को छोड़ कर) फिर से जीवित नहीं हो सकता। *अपानवायु 8 से 18 घंटों के भीतर-भीतर बाहर निकल जाती है। *व्यानवायु की प्रकृति शरीर को सुरक्षित रखने की होती है। सामान्य मृत्यु होने पर यह 11 से 14 दिनों तक बाहर आती रहती है।

 *योग के द्वारा मृत्यु की प्रक्रिया को धीमा किया जा सकता है, पर रोका नहीं जा सकता !*

 मृत व्यक्ति के कपड़े से संबंध !

  आज मेडिकल-विज्ञान इतनी प्रगति कर चुका है कि किसी व्यक्ति के पुराने कपड़ों से उसके DNA का पता लगाया जा सकता है, और सौ-साल बाद भी उस मृत-व्यक्ति के DNA से उस व्यक्ति का *क्लोन बनाया जा सकता है। मतलब हूबहू उस मनुष्य के जैसा ही एक दूसरा जीता-जागता मनुष्य बनाया जा सकता है, सिवाए उसके भीतरी अंत:करण (मन-बुद्धि और संस्कार) का निर्माण नहीं किया जा सकता। 

  तो इससे यह साबित होता है कि किसी मनुष्य के कपड़ों से भी उसकी भौतिकता का पता लगाया जा सकता है। तो इसका अर्थ यह हुआ कि कोई मनुष्य जीते-जी या मृत्यु के उपरान्त भी हर उस जगह उपस्थित रहता है जहां वह स्पर्श में था, संपर्क में था। 

  इसीलिये प्राचीनकाल में साधु-संयासियों ने यह परंपरा बना रखी थी कि उनकी मृत्यु हो जाने के बाद उनकी कुटिया को पूरी तरह जला दिया जाये। साधु-संयासी लोग जीवन-पर्यंत अपने साथ कुछ अधिक नहीं बटोरते, कुछ अधिक नहीं संजोते और न ही कुछ अधिक का प्रयोग ही करते थे। मगर सामान्य मनुष्य रजोगुण के प्रभावाधीन हो कर के अपने जीवनकाल में बहुत-कुछ बटोरते हैं, संजोते हैं और बहुत कुछ का प्रयोग करते हैं।

  तो ऐसे मनुष्य जाने-अनजाने में अपने-आप का संबंध उन हर भौतिक चीजों से जोड़ लेते हैं जिनका की उन्होने प्रयोग किया होता है। 

  वो अपनी छाप (शरीर या DNA) या यूँ कहें अपना भौतिक-व्यक्तित्व, अपना भौतिक-शरीर सूक्ष्म-रूप में उस चीज या वस्तु के साथ छोड़ आते हैं। इस तरह मनुष्य अपना संबंध इस जगत के साथ गहरे-से जोड़ लेता है, और फिर इस जगत से उसका छूटना कठिन हो जाता है। भले ही मृत्यु के बाद मनुष्य अपनी अगली-गति की यात्रा करता है, किन्तु एक सामान्य मनुष्य के लिये इस कारण इस यात्रा में कठिनाई आती है, रूकावटें आती हैं। इसलिये न चाहते हुये भी मृत व्यक्ति अपने उस व्यक्तित्व (छाप या DNA) के द्वारा उस मनुष्य को जिसने उसके वस्त्र या चीजों का प्रयोग किया है यह महसूस करवाता है कि वह उसे विदा करे। इसके लिये मृत व्यक्ति जो की मरने के बाद विवेक-रहित होता है, वह यह निर्णय नहीं कर पाता है कि उसे क्या करना चाहिये। उसमें सिर्फ प्रवृति ही होती है, बुद्धि नहीं होती।

  मृत व्यक्ति की उस छाप (DNA) में उन समयों में दूसरी कई तरह की *काली-शक्तियाँ (Deep Negative beings) आ-कर रहने लगती हैं, जो उस व्यक्ति के साथ कुछ भी कर सकती हैं जिसने उन चीजों का प्रयोग अपने शरीर से निरंतर स्पर्श कर किया हो, जिन्हें मृत व्यक्ति अपनी जीवित-अवस्था में तहदिल से अपने शरीर से स्पर्श कर प्रयोग किया करता था। ऐसी काली-शक्तियाँ उसे बीमार कर सकती हैं, उसे पागल कर सकती हैं, उसे अवसाद-ग्रस्त या भय-ग्रस्त कर सकती हैं या फिर उसके प्राण भी ले सकती हैं।

 *मृत्यु के बाद भी उसकी यात्रा में उसे इस कारण कठिनाई अथवा तकलीफ आने लगती है।*

  मृत व्यक्ति के कपड़ों के साथ हमें क्या करना चाहिये ?

  वैसे तो हर मनुष्य अपने जीते-जी बहुत-सी चीजों का इस्तेमाल करता रहता है। तो इस तरह से उन हर वस्तुओं को उसकी मृत्यु के बाद ढूंढ़ा नहीं जा सकता। किन्तु यहाँ बात हो रही है मृत व्यक्ति की उन खास-चीजों का, जिनसे उसे बहुत लगाब था, या बहुत-अधिक मोह था; या फिर उन भीतरी अंगवस्त्रों का, जिन्हें प्राय: मृत व्यक्ति अपने जीते-जी पहना करता था। 

  मृत्यु के पश्चात मृत व्यक्ति के सभी चीजों को अलग-अलग दिशाओं में अलग-अलग लोगों को बांट देना चाहिये। परंतु उसकी खास-चीजों या वस्त्रों को जला देना चाहिये, न की बांटना चाहिये। जलाने से होगा यह कि जिस वस्तु या वस्त्र पर मृत व्यक्ति गहरे-से जुडा हुआ था अब वह व्यक्तित्व (छाप-DNA या शरीर में) में वहाँ नहीं है, वो मिट चुका है, उसका नामो-निशां अब बाकी नहीं रहा। 

  यदि हम ऐसा नहीं करते हैं तो वह मृत व्यक्ति अपने व्यक्तित्व में (छाप-DNA में) अब भी वहीं मौजूद रहता है जो कि उसके प्रिय-जनों के लिये और स्वयं उस व्यक्ति के लिये अहितकर होता है !

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