आत्मा क्या है ? (भारतीय वेदांत से सच्चाई)*

 

आत्मा क्या है ? (भारतीय वेदांत से सच्चाई)

  वेद का अर्थ होता है ज्ञान। वेद जीवन का सार है। जीवन चाहे किसी भी रूप में हो, सबका सम्पूर्ण सार ही वेद है। वेद किसी धर्म विशेष की कृति नहीं और न ही यह किसी विशेष सम्प्रदाय की अवधारणा है। यह तो प्राचीनकाल के पूर्वजों को दी गईं वे जानकारियाँ हैं जिन्हें जानकर ही मनुष्य इस सृष्टि में बहुत कुछ सीखा और समझा है। यह वास्तव में मानवजाति के कल्याण के निमित्त *सहायक पुस्तकें हैं। हां, यह बात भी सच है कि मनुष्य ने स्वयं की बुद्धि और विवेक से भी बहुत कुछ खोजा है और समझा है, परन्तु वेदों की भूमिका यह रही है की जहां मनुष्य की बुद्धि कुछ समझ न पाई  वहाँ वेदों ने उसे समझाया है, जैसे आसमानी बातें, अंतरिक्ष विज्ञान, कला-शिल्प, दार्शन इत्यादि की बहुत सी बातों का ज्ञान।  ब्रह्माण्ड या सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति और अन्त का ज्ञान भी वेदों ने आरम्भ ही में हमारे पूर्वजों के द्वारा हमें बता दिया है। दूसरे शब्दों में कहें तो वेद जो कि मूलत: एक ही बृहत् पुस्तक है जिसे मनुष्यों को सुगमता से समझाने के लिये कालान्तर में चार भागों में विभक्त कर दिया गया, यह पूर्णतया एक ज्ञान और विज्ञान की पुस्तक है। इन वेदों के ज्ञान को (जानकारी को) प्राचीन खोजी पूर्वजों ने सुगमता से मानवता को समझाने के लिये इन्हें वेदांत दर्शनों में लिखा।

  तो आइये इन्हीं वेदांत दार्शनों के आधार पर इस पृथ्वी पर जीवों की रचना और उनके जीवन को समझते हैं :-

          जीव रचना

   पृथ्वी को छोड़ सौर-मंडल के सभी ग्रह निर्जीव अवस्था में हैं, क्योंकि वहाँ की परिस्थितियां पृथ्वी के समान नहीं हैं। वेदांत के अनुसार 'किसी ग्रह में आत्मा के अवतरण के लिये वहाँ पर शरीर निर्माण हेतु पूर्णतः अनुकूल वातावरण का होना आवश्यक है, जो की पृथ्वी ग्रह पर इस तरह का अनुकूल वातावरण मौजूद है। वेदांत के अनुसार इस पृथ्वी पर हरियाली इसीलिए है क्योंकि इसमें आत्मा का वास है, और आत्मा इस पृथ्वी पर हरियाली सहित 84 लाख योनियों (शरीरों में) में विभक्त है जिन्हें मुख्यत: पांच भागों में बांटा जा सकता है। 

  जिस प्रकार मनुष्य का शरीर पांच कोषों से निर्मित है ठीक उसी प्रकार इस पृथ्वी पर जीव रचना भी पांच शरीरों में निर्मित है।

  *इस पृथ्वी पर जीवों का प्रथम शरीर है - अन्नमय शरीर अर्थात वनस्पति शरीर। 

  इस श्रेणी में आने वाले जीव पूर्णतः वनस्पतियाँ ही हैं अर्थात घास-फूस, पेड़-पौधे इत्यादि। वेदांत के अनुसार विकासक्रम में यह आत्मा (Soul) का प्रथम शरीर है जिसमें आत्मा पूर्णतया अचेतन अवस्था में वास करती है। वनस्पति शरीर में जीवों में कोई अहसास या भावनायें नहीं होतींं, अत: इन्हें काटे जाने या मारे जाने पर भी कोई पीड़ा का अहसास नहीं होता, ये बस होते हैं और जीते हैं।

  *इस पृथ्वी पर जीवों का दूसरा शरीर होता है - प्राणमय शरीर अर्थात प्राणशरीर। 

  इस श्रेणी में आने वाले जीव - प्राणी कहलाते हैं अर्थात छोटे-छोटे जन्तु, चाहे वे अदृश्य बेक्टीरिया हों या वायरस। इस श्रेणी में दिखाई देने वाले जन्तु हैं जैसे, तितली, मक्खी, मच्छर, दीमक, चींटी, केंचुएं, छिपकली, बिच्छु, सांप इत्यादि-इत्यादि। इनमें आत्मा पूर्णतः सचेत अवस्था में वास करती है, इसीलिये इन्हें काटे जाने या मारे जाने पर दर्द या पीड़ा का अहसास होता है, इन्हें अपने प्राणों से प्यार होता है, इसलिये ये मृत्यु के डर से भागते हैं।

*इस पृथ्वी पर जीवों का तीसरा शरीर होता है - मानसशरीर अर्थात जिनमें प्राण के साथ भावनायें (Imotions) विद्यमान होती हैं (मनोमय शरीर)।

  इस श्रेणी में आने वाले जीव - मानस जीव कहलाते हैं। मानसजीव के उदाहरण हैं, घरेलु पशु, जंगली पशु, घरेलु पक्षी और जंगली पक्षी इत्यादि-इत्यादि। इनमें आत्मा सचेत अवस्था में तो होती है पर साथ ही साथ भावनाओं के साथ भी होती है।



*इस पृथ्वी पर जीवों का चौथा शरीर होता है - विज्ञानमय शरीर अर्थात विज्ञान शरीर।

  इस श्रेणी में आने वाले जीव *केवल मनुष्य ही होते हैं। इनमें आत्मा न केवल सचेत अवस्था में होती है वरन भावनाओं और बुद्धि के साथ भी होती है। जैसा कि विज्ञानमय शरीर से ही ज्ञात होता है कि एक ऐसा शरीर जिसमें सोचने, समझने व खोजने के लिये बुद्धि और विवेक होता है। अत: मनुष्य की संपूर्ण संरचना ही उसकी बुद्धि व विवेक के कारण ही विज्ञानमय है।

 *इस पृथ्वी पर जीवो का पांचवां शरीर होता है - आनन्दमय शरीर अर्थात आनन्दशरीर।

  इस श्रेणी में आने वाले जीव - स्वर्गीयप्राणी होते हैं। इनमें आत्मा न केवल सचेत अवस्था में होती है वरन भावनाओं और बुद्धि से भी ऊपर उठ कर आनन्दमय अवस्था में होती है। 

  इस श्रेणी के जीव न तो काम करते हैं और न किसी तरह का कोई परिश्रम। इस श्रेणी के जीव केवल इस सृष्टि के ऐश्वर्यों का भोग ही करते हैं, क्योंकि आनन्दमय अवस्था पर आने पर इस सृष्टि के ऐश्वर्यों पर उनका अधिकार हो जाता है, जिसे वे एकाधिकार से न भोग कर आनंदपूर्वक भोगते हैं।

  इस संपूर्ण रचनाक्रम में हमने एक बात जानी कि इन शरीरों में जो जीवन है, जिसे हम आत्मा (Soul) कहते हैं ये वो ईश्वरीय (Supreme soul or Holy spirit) तत्व है जिसके कारण ही कोई निर्जीव तत्व सजीव बनता है। इस तत्व में कोई परिवर्तन नहीं होता है। 84 लाख योनियों के शरीरों में विकासक्रम में आने पर भी उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता है, परन्तु शरीरों (योनियों) की कृति के अनुसार ही वह प्रकाशित होती है।

  हर जीव के शरीर की संरचना में उसके पहले (पिछले जन्म के) के जीव (जीवन की) की संरचना निहित होती है। मनुष्य शरीर की संरचना में भी उसके पहले (पिछले जन्म की) के जीवों (जीवन की) की संरचना स्वतः निहित होती है। 

  हर जीव आगे की ओर विकसित होने के क्रम में यात्रा कर रहा है। मनुष्य भी यही यात्रा कर रहा है। परन्तु मनुष्य की इस यात्रा में वह कभी आगे की (स्वर्ग की ओर) ओर तो कभी पीछे की (अधोगति की ओर अर्थात मनुष्य से पूर्व के जीवों में) ओर, तो कभी मनुष्य से मनुष्य ही में बना (जन्म लेता है) रहता है। सभी जीवों को छोड़ मनुष्य के साथ ऐसा इसीलिये होता है, क्योंकि वह विज्ञानमय है अर्थात उसमें संशय और संदेह के साथ सही और गलत का आंकलन करने की बुद्धि होती है। सबसे विशेष बात तो यह होती है कि उसमें अहंकार की विकृत भावना होती है, अर्थात  स्वय्ं की सत्ता की वर्चस्वत:, स्वार्थ और  महत्त्वाकांक्षा, जिसके आधार पर उसके द्वारा किये जाने वाले कार्य कर्म कहलाते हैं, और यही कर्म उसकी गति निर्धारित करते हैं।

  अत: यदि मनुष्य चाहे तो इस कर्म की गति को तोड़ कर अधोलोक, मनुष्यलोक और स्वर्गलोक के चक्र से बाहर निकल सकता है, आनन्द से भी ऊपर की स्थिति परमानंद को प्राप्त हो सकता है। यह परमानंद की अवस्था ही आत्माओं  (Souls) की संपूर्ण विकसित अवस्था है, यही उनकी वास्तविक अवस्था है। इस अवस्था को इस पृथ्वी पर जीवों के लिये मुक्ति की अवस्था कहते हैं, अर्थात 84 लाख योनियों से अथवा इस ग्रह के पाँच शरीरों से आत्माओं की मुक्ति! 

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