*भारतीय धर्मनिरपेक्षता के दोष और निवारण !

 भारतीय धर्मनिरपेक्षता के दोष और निवारण!  

  जब से मनुष्य समाज में राज्यों का निर्माण हुआ है तब से लगभग हर राज्य किसी न किसी धर्म के प्रभावाधीन रहा है।  लेकिन विश्वराज्यों में, विशेष कर भारत में लोकतंत्र के स्थापित हो जाने से राज्य धर्म के प्रभाव से मुक्त रहा है। यह इसीलिये हो पाया है क्योंकि यहाँ धर्मनिरपेक्षता की समझ है, यहां धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र है। यहाँ की सत्ता चाहे केंद्रीय हो या स्टेट लेवल की, विभिन्न धर्मों के प्रभावों से पूर्णता मुक्त है। परन्तु इतना होने पर भी यहाँ का लोकतांत्रिक समाज धर्मों के प्रभाव से मुक्त नहीं है। 

  संविधान के अनुसार जिस प्रकार राज्यसत्ता को धर्म से स्वतंत्र रखा गया है ठीक उसी प्रकार यहाँ के लोकतांत्रिक समाज को भी धर्मों से स्वतंत्र रखा गया है। परन्तु फिर भी यहाँ का समाज पूर्णतः धर्मों के प्रभाव से मुक्त नहीं है, क्योंकि हमारे भारतीय संविधान में लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा स्पष्ट व सही प्रकार से नहीं की गई है।

लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्षता की विशुद्ध परिभाषा की आवश्यकता!

 भारतीय संविधान के अनुसार, भारत में धर्मनिरपेक्षता - 'राज्यसत्ता धर्म के प्रभाव से मुक्त रहेगी। यहाँ के समाज में किसी भी व्यक्ति को किसी भी विचार, मत, आस्था अथवा धर्म को उत्त्पन्न करने, अपनाने व उसका प्रचार करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है।' 

  इस परिभाषा के अनुसार यह जिक्र नहीं किया गया है कि वे विचार, मत, आस्था अथवा धर्म देशी हैं या विदेशी। स्पष्ट कहा गया है किसी भी विचार, मत, आस्था अथवा धर्म। पढ़ने में यह परिभाषा जितनी मनमोहक व महानतम प्रतीत होती है व्यवहार में उतनी महानतम नहीं है, क्योंकि इसके जड़ में एक सूक्ष्म कमी है और वह कमी यह है कि हमारे इस लोकतांत्रिक समाज में हम जिन विचारों, मतों, आस्थाओं अथवा धर्मों को समान रूप से फूलने-फलने की इजाजत दे रहे हैं तो क्या वास्तव में ऐसे वे विचार, मत, आस्था अथवा धर्म भी अपने-अपने बनावट व स्वरूप में लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्षता से परिपूर्ण है ? भारतीय जनता को यह प्रश्न संविधान से करना चाहिये। अब चूंकि संविधान तो लिखित है। इसे अतीत में ही लिख दिया गया था, और हम भारतीय जनता अतीत के नहीं है वरन वर्तमान के हैं क्योंकि हम सभी जीवित हैं, तो हमें लाजिमी तौर पर चाहिये कि हम सरकार से, न्यायालय से यह मांग करें कि धर्मनिर्पेक्षता के संदर्भ में संविधान में संशोधन होना ही चाहिये। भारतीय संविधान लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष संविधान है। लेकिन यहाँ की भूमि में फूलने-फलने वाले कुछ धर्म लोकतांत्रिक नहीं, वरन अपने विचारों, मतों, आस्थाओं अथवा धर्मों में कट्टर, अहिश्नु, राजतांत्रिक व तानाशाही प्रवृति के हैं, उनमें कतई भी लोकतांत्रिक भावनायें निहित नहीं है।

  गौर करने वाली बात तो यह है कि भारतीय विचारों, मतों, आस्थाओं अथवा धर्मों में लोकतंत्र के लिये इस प्रकार की नकारात्मक प्रवृतियां नहीं पाई जाती हैं।  केवल और केवल विदेशी धर्मों में इस प्रकार की विकृत मानसिक्ता पाई जाती है।  

  धर्मनिरपेक्षता का भारतीय मॉडल में से यदि धर्मनिर्पेक्षता की परिभाषा को यदि शीघ्रातिशीघ्र सुधारा न गया तो वो दिन दूर नहीं जब भारत देश की धर्मनिरपेक्षता धराशायी हो जायेगी और किसी भी दूसरे विचार, मत, आस्था अथवा धर्म को फूलने-फलने की स्वतंत्रता न होगी, क्योंकि जब भारत के बहुसंख्यक लोग इन विदेशी धर्मों के प्रभाव में आ जायेंगे तो स्वतः ही संविधान में से धर्मनिरपेक्ष शब्द को हटा दिया जायेगा और भारत दुनियां के दो प्रमुख धर्मों में से कोई एक धर्म का राष्ट्र (राज्य) बन जायेगा।

  इस प्रकार भारत की अनगिनत लोकतांत्रिक भावनाओं को कुचल दिया जायेगा, यहाँ तक की उनकी हस्ती ही सदा-सदा के लिये मिटा दी जायेगी। 

  अत: धर्मनिरपेक्षता की समझ यही है कि जो विचार, मत, आस्था अथवा धर्म लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष समाज के हित में नहीं है, ऐसे धर्मों को संवैधानिक रूप से इस समाज में फूलने-फलने की अनुमति नहीं होनी चाहिये, क्योंकि इस तरह से तो हम लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्षता की भावना की शनैः-शनैः हत्या ही कर रहे हैं। भारतीय लोकतांत्रिक समाज में केवल और केवल स्वस्थ विचारों, मतों, आस्थाओं अथवा धर्मों के स्वीकार करने व प्रचार करने की ही स्वतंत्रता होनी चाहिये, न कि अहिश्नु, कट्टर व घृणा की भावना से ओतप्रोत विचारों, मतों, आस्थाओं अथवा धर्मों को फूलने-फलने की स्वतंत्रता होनी चाहिये। 

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