*सामाजिक अन्याय, एक संवैधानिक समस्या ! Social Injustice*

  
सामाजिक अन्याय, एक संवैधानिक समस्या !

 सामाजिक अन्याय, एक संवैधानिक समस्या ! Social injustice 

  भारतिय प्रजातंत्र में सामाजिक अन्याय एक मूलभूत समस्या है। सामाजिक अन्याय का दायरा अत्यन्त विस्तृत है, जिन्हें स्पष्ट रूप से पहचाना जा सकता है- आर्थिक रूप से सामाजिक अन्याय के रूप में, राजनैतिक अन्याय के रूप में एक सामाजिक अन्याय, धार्मिक अन्याय के रूप में एक सामाजिक अन्याय, सामाजिक अन्याय के रूप में एक सामाजिक अन्याय, और न्यायिक अन्याय के रूप में एक समाजिक अन्याय।

  बहरहाल, हम यहाँ पर धार्मिक रूप से सामाजिक अन्याय की बात करेंगे। 

   धार्मिक रूप से सामाजिक अन्याय !

  धार्मिक रूप से सामाजिक अन्याय एक समाजिक अन्याय ही नहीं वरन एक संवैधानिक अन्याय भी है।

  भारतीय प्रजातांत्रिक संविधान में यहाँ के नागरिकों के लिये मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गई है, जिसके तहत भारत का कोई भी नागरिक किसी भी आस्था, मत, विश्वास और धर्म का अनुसरण कर सक्ता है और उसका प्रचार भी। यह व्यवस्था संविधान के *मौलिक अधिकार की धारा 25-28 में की गई है।

 

  भारत में विभिन्न नस्लों, जाति और धर्मों के लोग हजारों वर्षों से एक साथ रहते आये हैं, लेकिन कभी कभी इस विभिन्नता के चलते भारतिय समाज में सामाजिक अन्याय घटित हो जाता है, जिसके पीछे का कारण कानून तो नहीं होता परन्तु उस समाज में व्याप्त धर्म व आस्था ही कारण होते हैं जिनसे किसी भी समाज की संस्कृति उत्त्पन्न होती है।

  जैसे उदाहरणस्वरूप, हिन्दु धर्म की आस्था के अनुसार हिन्दुओं के लिये उनके जन्म से लेकर मृत्यु तक के संपूर्ण संस्कारों की व्याख्या की गई है जिन्हें हिन्दु लोग उसे अपनी संस्कृति मान कर मोटे रूप से पालन करते हैं। मुर्ति-पूजा करना, सिन्दूर-बिन्दी-टिका लगाना, मंदिर में विवाह करना, मृत होने पर अग्नि-दाह संस्कार विधि संपन्न करना आदि आदि।

  ठीक इसी रीति मुसलमानों और इसाईयों के धर्म के अनुसार भी उक्त समाज के लिये दिनचर्या निर्धारित की गई है। इन दोनों धर्मों में एक समानता है कि ये मूर्ती-पूजा नहीं करते, देव पूजा नहीं करते, एक ईश्वर पर विश्वास रखते हैं, मृत होने पर अग्नि-दाह संस्कार नहीं करते वरन दफनाते हैं।

  अब ऐसे माहौल में यदि कोई हिन्दु मुस्लिम बन जाये या फिर इसाई बन जाये तो उस व्यक्ति या परिवार या परिवारों के साथ उनके पुराने हिन्दु बिरादरी वाले उनका सामाजिक बहिष्कार कर देते हैं। अधिक्तर यह बहिष्कार अत्यन्त अपमानजनक तरीके से होता है, जो की इस तरह का व्यवहार सामाजिक अन्याय के दायरे में आता है।

  इसाई धर्म प्रचार में कुछ फिरके ऐसे भी हैं जो कट्टर नहीं होते, जो सांप्रदायिक सौहार्दपूर्ण व्यवहार के साथ अपने विश्वास का प्रचार करते हैं। ऐसे फिरके के लोग संस्कृति व पौराणिक रीत-रिवाजों पर प्रहार नहीं करते वरं स्वयं भी उनको निभाते हैं, क्योंकि उनका मानना है कि ये सब मात्र संस्कृति का हिस्सा हैं न की ईश्वरीय विश्वास व आस्था का रूप।

सामाजिक अन्याय, एक संवैधानिक समस्या !


  तो आइये इसे समझने के लिये एक दृष्टांत को समझते हैं जो कि एक वास्तविक घटना है :- 

  'एक परिवार है जिसने येशु-मसीह को अपना ईश्वर माना, लेकिन साथ ही साथ अप्नी मौलिक संस्कृति जो की हिन्दू है उसके अनुसार भी अप्ना जीवन बनाये रखा, अर्थात् समस्त रीत-रीवाजों और संस्कारों का बराबर पालन किया।   परन्तु फिर भी उन्हीं के बिरादरी वालों ने उन्हें अपनी बिरादरी से बहिष्कृत कर दिया, और यह बहिष्कार कोई साधारण बहिष्कार नहीं था बल्कि बहुत ही अपमानजनक तरीके से बहिष्कार था। उनके घर के किसी सदस्य की मृत्यु होने पर उसकी अर्थी पर हाथ न लगाना, मृत्यु के किसी भी संस्कार को पूर्ण न करना आदि आदि। यही नहीं उस परिवार को अप्नी बिरादरी से हमेशा के लिये अलग करना तथा जिस किसी अन्य बिरादरी परिवार ने उनसे संबंध रखा उन्हें 10000 रुपये का जुर्माना रखा गया। यही बिरादरी बहिष्कार इस परिवार के बाद अन्य परिवारों के साथ भी किया गया जिसने येशु-मसीह पर विश्वास किया।'

  अब सवाल यह है कि ऐसी परिस्थिति में संविधान में कोई व्यवस्था नहीं है जिससे ऐसी विकट स्थिति से निबटा जाये। निसन्देह! इस तरह के कुकृत्य करने वाले, समाजिक अन्याय करने वाले संवैधानिक कानून के दायरे में आते हैं, परन्तु फिर भी सरकार उन पर कोई कार्यवाही नहीं करती, क्योंकि सरकार को भी लगता है की उनके साथ जो हुआ उचित ही हुआ। 

  वास्तव में यहाँ सरकार और संविधान एक साथ प्रजातंत्र की राह नहीं चलते। संविधान तो पूरी निष्ठा के साथ प्रजातांत्रिक है, परन्तु सरकारें प्रजातंत्र और संविधान की राह पर निष्ठावान नहीं हैं, इसीलिये ही तो भारतीय प्रजातांत्रिक समाज में सामाजिक अन्याय होते रहते हैं। 

   साराँश  

 अत: सरकार को चाहिये कि इस गंभीर विषय के संदर्भ में कोई कठोर कानून बनाये। या तो भारतीय प्रजातंत्र में धार्मिक प्रचार की अनुमति ही न दी जाये (और ऐसा सरकार कर नहीं सकती, क्योंकि यह तो मौलिक अधिकार है।), और यदि दी गई तो फिर इस तरह के सामाजिक अन्याय पर रोक लगाने हेतु कोई कठोर कानून बनाया जाये, अर्थात संविधान की मौलिक अधिकार की धारा 25-28 को ऊपरलिखित समस्या के अनुसार विस्तृत रूप से पुनर्परिभाषित किया जाये !



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