*क्या मोक्ष, मुक्ति, निर्वाण और अनन्तजीवन एक ही हैं ?*

  क्या मोक्ष, मुक्ति, निर्वाण और अनंतजीवन एक ही हैं? 

  सारी मानवता मोक्ष, मुक्ति, निर्वाण और अनंतजीवन के अर्थ को एक ही समझती है। परन्तु वास्तव में इनके अर्थ एक नहीं है बल्कि अलग-अलग अर्थ हैं। इसलिये यदि किसी को मोक्ष अथवा मुक्ति पाना हो तो उसे चाहिये की वे भारतीय संस्कृति के महानायक श्रीकृष्ण जी की शिक्षाओं का अनुसरण करे, यदि किसी को निर्वाण चाहिये तो उसे चाहिये कि वे भारतीय संस्कृति के दूसरे महानायक श्रीगौतम बुद्ध जी की शिक्षाओं का अनुसरण करे, और यदि किसी को अनंतजीवन चाहिये तो उसे चाहिये कि वे इस पृथ्वी के केंद्र मे स्थित इस्राईल देश के महानायक श्रीयीशु जी की शिक्षाओं का अनुसरण करे।  क्योंकि इन तीनों ही महानायकों का जीवन दार्शन से भरा पड़ा हुआ है। इनके दार्शन में वो सामर्थ्य है जिससे सारी मानवता आकर्षित है। सारी मानवता का लक्ष्य इनमें से किसी एक के बताये मार्ग में चल कर उस मंजिल को पाने से है जिस मंजिल का जिक्र इन गुरुओं ने किया है।

 तो आइये जरा सविस्तार परन्तु संक्षिप्त में इन मंजिलों के अर्थों को समझते हैं:-

  मोक्ष अथवा मुक्ति

  मोक्ष का अर्थ होता है अपनी अन्तर्मन के मोह का क्षय करना। भारतीय दार्शन में मनीषियों ने जीवन की सारी पीडाओं का मूल कारण 'मन के मोह' को ही माना है। मन अपनी इन्द्रियों सहित इस सँसार की समस्त वस्तुओं व रिश्ते-नातों के प्रति आसक्ति रखता है, और यही आसक्ति उसके इस सृष्टि बन्धन का कारण है।  

  जब कभी कोई व्यक्ति मोक्ष के मार्ग को अपनाता है तो वह निर्गुण परमात्मा को अपनी आस्था का आधार मान कर अपने अन्तर्मन के मोह का क्षय करता है।  इस प्रकार जब कोई व्यक्ति अपने अन्तर्मन के मोह का क्षय कर जाता है तो वह व्यक्ति अपनी आत्मा में (जीवन में) व्यष्टि से समष्टि बन जाता है अर्थात अब वह कोई व्यक्ति न होकर इस संपूर्ण ब्रह्मांड में समाहित हो जाता है किसी विशाल सागर के जल की तरह। या फिर दूसरे शब्दों में कहें तो वह अपनी आत्मा का भी विखंडन कर जाता है और इस सृष्टि बन्धन से मुक्त हो जाता है, अथवा स्वयं यह सृष्टि बन जाता है। 



 निर्वाण

  निर्वाण का अर्थ होता है किसी व्यक्ति के मन की वो दशा जिसमें वह व्यक्ति अपने अन्तर्मन की समस्त कामनाओं और इच्छाओं से विरक्त होकर अपनी आत्मदशा में प्रतिस्थापित होता है। जिसमें ऐसा व्यक्ति स्थाई रूप से व्यष्टि से समष्टि न बनकर केवल कुछ काल के लिये 'एकान्त-लोक' में विश्राम की स्थिति में रहता है, लेकिन लोक कल्याण की भावना के वशीभूत होकर वह पुन: इस सृष्टि में अवतरित होता है एक पथ-प्रदर्शक की तरह।

 अनंतजीवन

  अनंतजीवन की धारणा में मुक्ति का अर्थ विशेष रूप से इजराईल के यहुदी धर्म की धारणा है। जिसमें इसका अर्थ है पीडाओं, कष्टों दुखों और अत्याचारों से मुक्ति। एक ऐसे समाज की कल्पना, जिसमें वह समाज चहुँओर से पीडाओं, कष्टों, दुखों और अत्याचारों से मुक्त हो। परन्तु इसमें एक मार्के की बात यह भी है कि लोगों का उन्के अपने खुद के पापों से मुक्ति। लेकिन यह धारणा बाद की है, जिसे यहुदी धर्म में प्रभु यीशु जी लाये थे। इस धारणा अथवा दार्शन के अनुसार जो कोई मुक्त है केवल वही अनंतजीवन प्राप्त करने के योग्य है। 

  अनंतजीवन वास्तव में मुक्ति के बाद की अवस्था है जिसमें किसी व्यक्ति की आत्मा न तो निर्वाण की अवस्था में और न ही मोक्ष की स्थिति में रहती है बल्कि व्यक्ति एक नये शरीर के साथ एक नई दुनियां में प्रवेश पाता है जहां वह अनंतकाल के लिये उस परमेश्वर के साथ अनंतजीवन जीता है, अर्थात व्यक्ति व्यष्टि से समष्टि नहीं बनता, ब्रह्मांड में समाहित नहीं होता और न ही कहीं एकान्त में विश्राम करता है बल्कि व्यक्ति एक व्यक्ति ही रहता है और वह नये जीवन में एक नये संसार के समस्त भोगों को भोगता है, समस्त ऐश्वर्यों का आस्वादन लेता है परन्तु पाप से मुक्त होकर। यही अनंतजीवन है।

 अत: अब इस संसार की मानवता को सोचना है कि उसे क्या चाहिये - मोक्ष अथवा मुक्ति या निर्वाण या फिर अनंतजीवन, क्योंकि इनके प्रदाता ईश्वर अलग-अलग हैं, एक नहीं ! 

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