*यीशु कौन हैं (यीशु मसीह की असल सच्चाई) ?*

 
यीशु मसीह कौन है ?

 यीशु कौन हैं (यीशु मसीह की असल सच्चाई)?

  यीशु सँसार का एक अद्भूत व महानतम व्यक्ति रहा है। इस व्यक्ति के विषय में कुछ लिखना इसलिये भी अनिवार्य हो गया है क्योंकि ईसाइयत में इसके संदर्भ में बहुत अस्पष्ट-सा ज्ञान है। यीशु मसीह कौन है ?,यह जानने के लिये हमें ईसाइत का अध्ययन करना पड़ेगा। ईसाइयत इसे त्रिपुटी (Trinity of God) में एक पुटी के रूप में ही मानते हैं, परन्तु वे इस पुटी के वास्तविक व्यक्ति के विषय में बिल्कुल भी नहीं जानते; क्योंकि यीशु जी का यह विशाल व्यक्तित्व वास्तव में सार्वभौमिक धर्म व आध्यात्म के मामले में केवल मानवतावादी तथा विशिष्ट ज्ञान (विज्ञान) से परिपूर्ण है जो कि भारतीय वेदांत का एक प्रकट रूप है।

  क्या यीशु एक यहुदी और यहुदी धर्म के थे ?

  यीशु जी एक यहुदी व्यक्ति थे और वह यहुदी धर्म व परम्पराओं में पले-बड़े थे, परन्तु फिर भी वह न तो यहुदी ही थे और न ही यहुदी धर्म के अनुयाई ही। हाँ, दिखने में तो ऐसा लगता है पढ़कर (बाईबल) कि, वह यहुदी धर्म के अनुयायी थे. परन्तु ध्यान से यदि पढ़ा जाये तो स्पष्ट पता चलता है कि वह यहुदी धर्म के अनुयायी नहीं थे और न ही उनमें एक यहुदी व्यक्ति का ही स्वभाव विद्यमान था। 

  यहुदी धर्म व परम्पराओं का ज्ञान उनके विशिष्ट ज्ञान के सम्मुख कुछ भी नहीं था।  यहुदी धर्म केवल एक धर्म है और धर्म का स्वभाव होता है लोगों को *भले-बुरे का ज्ञान सिखाना। सभी प्रकार के अच्छे और बुरे का ज्ञान, और वो भी केवल उनकी धारणाओं के अनुसार। यदि इस ज्ञान के अनुसार लोग अनुसरण न करें तो उन पर ईश्वर के नाम पर जबरन भयंकर दण्ड भी निर्धारित किया जाता है, और यह दण्ड ईश्वर के नाम से उक्त समाज के धर्माचार्य ही देते हैं। परन्तु यीशु जी का विशिष्ट ज्ञान (विज्ञान) वास्तव में न तो यहुदी धर्म का परिष्कृत ज्ञान ही था और न ही कोई अन्य नवीन ज्ञान ही। उनका ज्ञान तो अनादि काल से विद्यमान वह विशिष्ट ज्ञान (विज्ञान) है जिसे उन्होने कहीं से सीखा नहीं, कहीं से जाना नहीं, बल्कि पैदाइशी स्वभाव ही से उन्होने स्वयं से प्रकट किया।

  एक कट्टर धार्मिक समाज में उक्तकाल में समय-समय पर *मानवता की आत्मा (पवित्र आत्मा) उनके नबियों के हृदय में बहती रहती थी, जिस कारण उन्होने जाने-अनजाने में ऐसी-ऐसी भविष्यवाणियाँँ कर लीं जो कि उनके धर्म व उनके सिध्दांतों के सर्वदा विपरीत थे। उनकी भविष्यवााणियों के अनुरूप ही यीशु जी *सँसार के सबसे कट्टर धर्म समाज में अवतरित (प्रकट) हुये, जहाँ केवल ईश्वरीय प्रेम ही सर्वोपरि था और उसकी आज्ञाओं (कट्टर नियमों) का अनुपालन ही महत्वपूर्ण। 

  परन्तु यीशु जी ने आकर इन नियमों को बिना विरोध किये ही ढ़हा दिया और फिर ईश्वरीय प्रेम के साथ-साथ *मानवता के प्रेम का पाठ* भी लोगों को सिखाया। अपने विशिष्ट ज्ञान में उन्होने समस्त बातों में *मानव+प्रेम को ही सर्वोपरि माना। उनके अनुसार जितना महत्वपूर्ण *ईश्वरीय+प्रेम है उससे अधिक महत्त्वपूर्ण एक मनुष्य का किसी दूसरे मनुष्य से प्रेम रखना है। उनके अनुसार, 'इस जगत में एक मनुष्य केवल दूसरे मनुष्य से प्रेम रखने तथा प्रेम से रहने के लिये ही बनाया गया है। यदि हम इस जगत में शान्ति, उन्नति व आनन्द चाहते हैं तो हमें उस अदृश्य ईश्वरीये प्रेम के साथ-साथ प्रकट में जो भी मनुष्य व प्राणी हैं सभी से प्रेम के साथ रहने की नितांत आवश्यकता है।'....................

 कौन मसीह कौन है ?

   यदि हमें स्वर्ग या अनंतजीवन चाहिये तो उसकी बुनियाद हमें इसी पृथ्वी भर के जीवन में डालनी पड़ेगी; तो उसकी बुनियाद कोई धर्म नहीं डाल सकता, चाहे वह धर्म परमेश्वर का धर्म-*मान्यतानुसार यहुदी धर्म ही क्यों न हो। उसकी बुनियाद केवल मनुष्य व्यक्तिगत रूप से स्वयं के जीवन में डाल सकता है।

  यीशु जी का विशिष्ट ज्ञान (विज्ञान) ही वो ज्ञान है जिसे धारण करने पर कोई मनुष्य विभिन्न धर्मों के सांकलों को तोड़ कर एक सहज आध्यात्मिक जीवन जी सकता है। इस हेतु यीशु जी ने अपने आध्यात्मिक ज्ञान को स्वयं के जीवनी से इस जगत में प्रकट किया, ताकि मनुष्य उस ईश्वरीय स्वभाव को समझ सकें और स्वयं भी उस प्रेमी स्वभाव को धारण कर सकें।

  परन्तु अफ़सोस ! पिछ्ले 2000 सालों से अब तक केवल 1% लोग ही यीशु जी के विशिष्ट ज्ञान को समझ पाये हैं, बाकि के 99% लोग तो अब भी उन किताबों का अनुसरण कर रहे हैं जिन्हें युरोप में मध्यकाल में ईसाइत के धर्माधिकारियों के द्वारा जोड़-जोड़ के वर्तमान के लिये बनाया गया है।

  आज भी लोग बाईबल के पुराने अहद्नामे से लेकर नये-अहद्नामे तक केवल धर्मनियमों की तलाश करते हैं और केवल उन्हीं पर अपना चित लगाये बैठे हैं। लोग स्वयं तो धर्म नियमों का अनुसरण करते हैं और इसीलिए अन्य समाजों के लोगों से भी उन्हीं नियमों का प्रचार करते हैं। वे यीशु जी के विशिष्ट ज्ञान का प्रचार नहीं करते, वे यीशु जी के प्रेम का प्रचार नहीं करते। वे तो एक मिला-जुला धर्म का प्रचार करते हैं- जो कुछ करके पुराना यहुदी धर्म तथा कुछ करके नया पोलुस का ईसाईत धर्म है।

  इसी कारण इस जगत में यीशु के अनुयायी भी पिछ्ले 2000 वर्षों से अब तक स्वर्गीय वातावरण नहीं बना सके, तो उस आने वाले स्वर्गीय राज्य के बारिस वे कैसे बन सकते हैं ?

  अतः यीशु जी के अनुयायियों के लिये यह समय केवल आत्म-मंथन व पुन:ज्ञान अर्जित करने का है। अपनी सारी धार्मिक कट्टरता को त्याग कर केवल भारतीय वेदांत की ओर निहारना है !

यीशु मसीह कौन है ?

  यीशु एक वेदांती थे और हैं !

  यदि हम यीशु जी के व्यक्तित्व को ध्यान से समझें तो स्पष्ट रूप से यह प्रकट होता है कि यीशु एक वेदांती ही थे और हैं। क्योंकि यीशु जी का ज्ञान कुछ मनवाना नहीं वरन समझा कर जनवाना था और जनवाना है।

  उदाहरण, यीशु जी के पहाड़ी उपदेश, यीशु जी का यह कहना कि "इस मंदिर को ढ़हा दो तो इसे मैं तीन दिन में खड़ा कर दूंगा', तुम ईश्वर हो, इससे पहले की इब्राहिम है मैं हूँ, तुम जगत की ज्योति हो, तुम परमेश्वर की संतान हो अर्थात अहम ब्रह्मास्मि, जैसा बोगे वैसा काटोगे, ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं, परमेश्वर का राज्य बच्चों का है, मानवता में प्रेम अति महत्वपूर्ण है आदि-आदि।" 

  यीशु जी के ये कथन पूर्णत: भारतीय वेदांत का आध्यात्मिक ज्ञान है। यही वह विशिष्ट ज्ञान है जिसे प्रभु यीशु जी ने अपने स्वभाव व वाणी में जीवन्त प्रकट किया था।

  वास्तव में प्रभु यीशु जी भारतीय वेदांत की आत्मा थे। यह वह *वेदांत-पुरुष थे जिन्हें *अहम ब्रह्मास्मि* कहने का पूर्ण अधिकार था, परन्तु  फिर भी उन्होने कठोर अज्ञानियों के देश (इजराईल) में ऐसा नहीं कहा, पर इसी तथ्य को अलग ढ़ंग से कहा- *मैं परमेश्वर का पुत्र हूँ! 

  अतः यीशु मसीह कौन है ?, यह स्पष्ट है कि यीशु मसीह भारत से अलग नहीं हैं वरन वह भारतीय वेदांत की आत्मा (परमात्मा) के प्रकट रूप हैं। यही वह विश्वगुरु हैं जिनके ज्ञान से भारत विश्व में विश्वगुरु के रूप में गौरवान्वित हुआ है।

  परन्तु अफ़सोस ! आज न तो यहुदी ही, न इसाई ही, न मुसलमान ही और न ही हिन्दू ही यीशु को समझ व जान पाये हैं। वे सब के सब धर्मों के विनाशकारी मकड़जाल में फंसे हुये हैं, क्योंकि उन्होनें केवल उन्हीं (अपने-अपने धर्मों से ही) से प्रीति  रखी हुई है ! 

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