*हर सँस्कृति सभ्यता नहीं होती (इन 17 कारणों से)!
मनुष्य एक सृजनशील प्राणी है। वे नित-प्रतिदिन कुछ न कुछ सृजन करता है। सृजन के द्वारा वे अपने समाज की प्रगति करता है। प्रत्येक मनुष्य समाज प्रगतिशील ही है। परन्तु हर एक व्यक्ति, समुदाय या समाज की सृजन करने की विधि अलग-अलग होती है। इसीलिए उनकी सँस्कृति भी अलग-अलग होती है। किन्तु प्रत्येक सँस्कृति सभ्य ही हो यह जरुरी नहीं। परन्तु फिर भी प्राचीन काल से लेकर आज तक की बड़ी-बड़ी सँस्कृतियों (देशों ने) ने स्वयं को सभ्य माना, और उनके इतिहासकारों ने भी उन्हें सभ्यताएं कह कर सम्बोधित किया।
आज आप और हम जिन-जिन सभ्यताओं में रहते हैं, सोच समझ कर दिल पर हाथ रख कर कहिये कि क्या वास्तव में हमारी सँस्कृति सभ्य है ? हाँ, बहुत सी ऐसी बातें हैं जिन पर हमें गर्व होता है। किन्तु फिर भी किसी सँस्कृति को सभ्य कहने के लिये उस सँस्कृति की *व्यवहारिक रूह* में झांक कर हमें अवश्य देखना चाहिये। किसी सँस्कृति को "सभ्य या सभ्यता" कहने के लिये किन-किन मापदंडों की आवश्यकता होती है यह हम निम्नलिखित देखेंगें, और फिर विचारेंगे कि क्या वास्तव में हम "सभ्यताओं" में रहते हैं, और क्या हम सभ्य हैं ! :-
सभ्य समाज व जनजाति समाज में अन्तर
1. सभ्य समाज में कन्याभ्रूण हत्या की प्रथा होती है।
जनजाति समाज
1. जनजाति समाज में ऐसी कोई प्रथा नहीं होती है।
2. सभ्य समाज में स्वयंवर की प्रथा समाप्त हुये हजारों वर्ष हो चुके हैं।
जनजाति समाज
2. जनजाति समाज में स्वयंवर की प्रथा आज भी प्रचलित है।
3. सभ्य समाज में विधवा विवाह प्रथा
प्रचलित नहीं होती है।
जनजाति समाज
3. जनजाति समाज में विधवा विवाह प्रथा प्रचलित होती है।
4. सभ्य समाज में दहेज-प्रथा
प्रचलित होती है।
जनजाति समाज
4. जनजाति समाज में दहेज-प्रथा प्रचलित नहीं होती है।
5. सभ्य समाज में मुद्रा आधारित
अर्थ व्यवस्था के चलते अमीरी-गरीबी
की गहरी खाई प्रचलित होती है।
जनजाति समाज
5. जनजाति समाज में ऐसी कोई जटिल व्यवस्था नहीं होती है।
6. सभ्य समाज में संसार की सबसे
अन्यायपूर्ण प्रथा *जातिप्रथा अर्थात
रँग व वर्ण पर आधारित कुप्रथा होती है।
जनजाति समाज
गोरा और काला व ऊंच-नीच का भेदभाव।
6. जनजाति समाज में ऐसी कोई अमानवीय-प्रथा नहीं होती है।
7. सभ्य समाज में प्रकृति के प्रति कोई
आदर व प्रेम नहीं होता है।
जनजाति समाज
7. जनजाति समाज में प्रकृति के प्रति गहरा प्रेम व आदर होता है।
8. सभ्य समाज में युवक-युवतियों के
आत्म-विकास के लिये स्वतन्त्रता कम होती है।
जनजाति समाज
8. जनजातीये समाज में युवक-युवतियों के आत्म विकास के लिये पूरी स्वतंत्रता होती है। जिसका प्रमाण इनमें प्रचलित "युवा-सभाएं अथवा युवा-परिषदें हैं।
9. सभ्य समाज में एकता व भाईचारे
की भावना नहीं के बराबर है।
जनजाति समाज
9. जनजाति समाज में एकता व भाईचारे की भावना कूट-कूट कर भरी होती है।
10. सभ्य समाज एक आत्म-निर्भर
समाज नहीं होता है।
जनजाति समाज
10. जनजाति समाज पूर्णतः एक आत्म-निर्भर समाज होता है।
11. सभ्य समाज दार्शन व विज्ञान
पर आधारित बनने व बिगड़ने वाली
सभ्यता होती है।
जनजाति समाज
11. जनजाति समाज बिना दार्शन और विज्ञान के एक सहज जीवन जीने वाली *अमर सभ्यता होती है।
12. सभ्य समाज में आये दिन रेप और
हत्त्यायें होतीं हैं।
जनजाति समाज
12. जनजाति समाज में ऐसा कुछ भी नहीं होता है।
13. सभ्य समाज में लिंग-भेद होता है।
जनजाति समाज
13. जनजाति समाज में लिंग भेद नहीं होता है।
14. सभ्य समाज को पुलिस-प्रशासन
और फौज की जरुरत पड़ती है।
जनजाति समाज
14. जनजाति समाज को ना तो पुलिस और ना ही फौज ही की जरुरत होती है।
15. सभ्य समाज को जासूसों और युद्धों
की जरुरत पड़ती है।
जनजाति समाज
15. जनजाति समाज को ऐसी कोई आवश्यकता नहीं पड़ती है।
16. सभ्य समाज में अपराधों की शृंखला
कभी खत्म नहीं होतीं है।
जनजाति समाज
16. जनजाति समाज में अपराध ना के बराबर होते हैं।
17. सभ्य समाज के लोग पृथ्वी के दुश्मन
और धरती के बच्चे नहीं हैं।
जनजाति समाज
17. जनजाति समाज के लोग पृथ्वी के रक्षक और धरती के वास्तविक बच्चे हैं।
-{कृपया अन्य लेख पढ़ें :- *क्या मनुष्य एक बेहतरीन समाज बना पाया!
जनजातीय समाज की श्रेष्ठता
वास्तव में संसार की सभी जातियां जनजातियां ही हैं। लेकिन जिन्होंने इतिहास के उदयकाल में स्वयं को *आर्थिक प्रगति की धारा में ढाल लिया था वे जातियां (मनुष्य समूह) सभ्य समाज कहलाईं और उन्होंने सभ्यताएं बनाईं। लेकिन जिन्होंने अपने आप को *आर्थिक प्रगति की धारा (विकास) में नहीं ढाला और स्वयं को प्राकृतिक अवस्था (प्रकृति के हवाले) में छोड़ दिया वे मानव जातियां सदियों से व आज के सन्दर्भ में जनजातियां कहलाती हैं।जनजातियां सांस्कृतिक, सामाजिक व धार्मिक मामलों में पिछड़ी हुई नहीं होती हैं, बल्कि वे आज के सभ्य समाज की तुलना में आर्थिक रूप से पिछड़ी हुई होती हैं। क्योंकि भाग्य के हवाले जीने के कारण वे असुरक्षित होती हैं, ऐसा हम सभ्य समाज को लगता है।
इस समाज के विकास के लिये यह जरुरी नहीं कि इनके सामाजिक जीवन में बदलाव लाया जाये। क्योंकि इनका समाजिक जीवन हमारे (तथाकथित सभ्य समाजों) समाज के बनिस्बत अति श्रेष्ठ है। सामाजिक बदलाव (परिवर्तन) तो हमारे समाज में होना चाहिये, क्योंकि हमारा समाज सदियों से आज तक निकृष्ठ है, जबकि जनजातियों का समाज अतिश्रेष्ठ।
अत: किसी भी सँस्कृति को सभ्य या सभ्यता कहने के लिये उसका मापदण्ड *आर्थिक आधार पर नहीं होना चाहिये। अर्थात आर्थिक क्षेत्र की प्रगति (सृजनता) को सभ्यता का मापदंड नहीं होना चाहिये। ऐसा करना मनुष्य की बहुत बड़ी भूल है। बल्कि किसी "सँस्कृति" को "सभ्यता" कहने के लिये केवल और केवल उसके "सामाजिक पक्ष" (क्षेत्र) को ही देखा जाना चाहिये, और इसी तत्व को उसकी प्रगति का मापदंड ठहराया जाना चाहिये। क्योंकि यदि समाज "महत्वाकांक्षाओं से रहित, ईर्षा और द्वैष से रहित, लालसाओं और लोभ से रहित, संतुष्ट, सुखी और निर-अपराध है, तो समझ लिजिये कि ऐसा समाज ही "सभ्य" है और उसकी सँस्कृति ही "सभ्यता" कहलाने योग्य है !
Excellent information !
जवाब देंहटाएंThank you !!
हटाएंVery best n unique artical !
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