*क्या मनुष्य एक बेहतर समाज बना पाया ? (युद्ध और फिर विश्वयुद्ध !)*



क्या मनुष्य एक बेहतर समाज बना पाया? (युद्ध और फिर विश्व युद्ध!)

     मनुष्य ने समाज की स्थापना अपने सुख-सुविधा, उन्नति और शान्ति की प्राप्ति के लिये की है।
 तो क्या वास्तव में मनुष्य ने अपनी इस उपलब्धि को प्राप्त किया है ? नहीं, कदापि नहीं !
 उसने अपनी-अपनी संस्कृति, प्रोद्यौगिकी तथा विज्ञान के द्वारा अथक प्रयास तो किये हैं कि वे सुख और आनन्द को प्राप्त करें। परंतु नितांत असफल रहा। 
पता है क्यों ?
    इस असफलता के पीछे मनुष्य व उसके समाज की अपनी-अपनी व्यर्थ धारणायें हैं, जिनका उनकी आस्थाओं के साथ कोई सम्बंध नहीं होता। परंतु फिर भी वो अपनी मान्यताओं में अपनी-अपनी आस्थाओं में ऐसी-ऐसी व्यर्थ धारणाओं को स्थान देता गया। यदि इन धारणाओं की बात की जाये तो इनकी एक बड़ी लम्बी-चौड़ी लिस्ट है, जिनको लिखते-लिखते शायद बहुत वर्ष लग जायें। किन्तु मोटे-तौर पर इस मुद्दे पर कुछ कहना तो लाजमी बनता है। परंतु समझ में नहीं आ रहा है कि इस मुद्दे पर बात कहां से शुरु की जाये !

 परिवार और परिवार का मुखिया पुरुष बनता है !

   कहते हैं कि आदिम मनुष्य शुरु-शुरु में विवाह-शादियां नहीं करते थे। वो जिसे चाहे पसंद करते थे उसी के साथ सो जाते थे। किन्तु इसके परिणाम में होता यह था कि धडाधड़ बच्चे पैदा होते जाते थे और यह भी पता नहीं चलता था कि बच्चे का पिता कौन है। ऐसे में जिस-जिस स्त्री से बच्चे पैदा होते थे, एक मां होने के नाते केवल वो ही अपने बच्चे को संभालती थी। चूंकि स्त्रीयां अपने स्वभाव से कोमल प्रकृति की होती हैं। वो कहीं बाहर जाकर उस जमाने में खेती-बाड़ी तथा शिकार जैसे काम नहीं कर पाती थीं। इसीलिये प्राय: वो पुरुषों पर निर्भर रहा करतीं थीँ। बच्चों के अच्छे परवरिश के लिये अब उन्हें एक ही पुरुष की आवश्यकता महसूस होने लगी, जो एक पिता होने के नाते उनके बच्चों और उनकी जिम्मेदारी उठा सकें। अब मनुष्यों में एक विवाह की प्रथा की शुरुआत होने लगी। जो कि एक सामाजिक जरुरत थी, न कि एक धारणा जो काल्पनिक हो। इस तरह से संसार की पहली संस्था का (परिवार) निर्माण हुआ। अब इन पारिवारिक संस्थाओं में ऐसा क्या हुआ जो कि वे अलग अलग धारणाओं और मान्यताओं में बंट गये ? 
 

   एक समाज की दुसरे समाज से दूरी !

   आबादी के बढ़ने से परिवारों का एक समूह पहले समूह से दूर हटते गये। उन्होनें अपने रहने और गुजर-बसर के लिये धरती के हर कोने में रहना अच्छा समझा। उस जमाने की जिन्दगी मनुष्यों के लिये बहुत ही कठिनाइयों और परिश्रम से भरी हुई थी। लेकिन वो समय भाग-दौड़ का नहीं था। सब कुछ शान्त और सुनिहारा था। मनुष्य की कठिनाई और परिश्रम केवल जंगली जानवरों से रक्षा तथा भूमी पर कड़ा श्रम था।  एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य और एक मनुष्य समाज का किसी दूसरे मनुष्य समाज से कोई संघर्ष नहीं था....................... 

  फिर युद्ध की विचारधारा इंसानी दिमाग में डाली जाती है!  

   तदोपरांत अकस्मात अतीत में, जो कि प्रागैतिहासिक काल था, मनुष्य समाज में एक भयंकर तबदीली आई। अचानक किसी ने मनुष्यों को हथियारों की ऐसी शिक्षा देनी आरम्भ की जिनका इस्तेमाल वो जानवरों पर न करके एक दूसरे मनुष्यों पर कर सकता था। जानवरों से रक्षा करने वाले हथियार अब शस्त्र से अस्त्र बनने लगे। मनुष्य मस्तिष्क में अब हथियारों के विषय बदल गये। पशु और भूमि उसके विषय न रहे। अब विषय रहा मनुष्य पर *आधिपत्य करना।  सम्भवत: जिस मनुष्य के दिमाग में सबसे पहले यह बात आई अथवा डाली गई, वही मनुष्य संसार का सबसे पहला *वीर पुरुष (निम्रोद-पढो धर्म-ग्रंथों में- बाईबल या प्रागैतिहासिक किताबों में) हुआ। क्योंकि वीरता के पीछे का भाव अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिये दूसरे मनुष्य अथवा मनुष्य समाज पर आधिपत्य जमाना होता है। इसके साथ ही साथ उन मनुष्यों पर प्रधान बन कर राज करना भी होता है। 

  फिर राजतंत्र का उत्त्पन्न होना !   

   प्रारम्भ में मनुष्यों में एक दूसरे समाज से अपनी सुरक्षा करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। परन्तु जब से मनुष्य में लहू बहा देने वाली यह सोच *उस मनुष्य के हृदय में घर कर गई तभी से अन्य मनुष्य समाजों के कुछ लोगों ने भी आधिपत्यता तथा प्रधान बन कर अपने-अपने समाजों की रक्षा करने के भाव से ठीक वैसा ही करना शुरु किया जैसा *उस प्रारम्भिक शूरवीर मनुष्य ने किया। यह वो काल है जिस काल का जिक्र यहूदी, मुस्लिम, इसाई तथा प्रागैतिहासिक काल के इतिहासकारों की किताबों में किया गया है। हाँ, यह काल *प्रथम राजवंश (3100-2900 BC) का काल है, अर्थात राजतान्त्रिक प्रणाली का आविर्भाव।

  इस प्रकार लोग अब अपने और अपने समाज के सुख के लिये अधिकाधिक शक्ति पाने की इच्छा के वशीभूत होते गये। और यह शक्ति केवल अपने राज्य विस्तार और दूसरे समाजों पर आधिपत्यता से ही प्राप्त हो सकती है, ऐसा उक्त काल के मनुष्यों की धारणा बनती चली गई।  बहरहाल, ऐसा तो आज के युग के लोग व राज्य भी सोचते हैं।
 अतीत के उस आदि युग से लेकर वर्तमान के इस युग तक न जाने मनुष्य ने अपनी इस धारणा के चलते कितने अत्याचार, जुर्म, शोषण और लहू बहाये हैं।

 छोटे-छोटे राज्य बड़े-बड़े राज्य बनते चले गये। बड़े-बड़े राज्य बहुत बड़े साम्राज्य बनते चले गये। परन्तु इनमें से एक भी टिक न सके। सब की हस्ती मिटती चली गई। उन्होनें जिस सुख और वैभव की कामना अपने-अपने समाजों के लिये की थी वो उन्हें चिर-स्थाई मिल न सकी। क्योंकि ऐसे सुख और वैभव के लिये उन्होनें हथियार चलाये थे, तो उनका भी खात्मा हथियारों ही से हुआ। उनका सुख उनके लिये उन्हीं की कौम के लहू बहाने से तृप्त हुआ।

 आधुनिक युग में पहला और द्वित्तीय विश्व युद्ध मनुष्य के इसी बेफकूफी से भरी धारणा का परिणाम था। सम्भवत: तीसरा विश्व-युद्ध भी अपनी इसी बेवकूफी की धारणा का परिणाम होगा। 

  इसलिये जब तक मनुष्य आधिपत्यत: तथा सविस्तार (दूसरों के सुख और सम्पत्ति को छीन कर उनसे प्राप्त करना) की धारणा को छोड कर केवल आत्म-निर्भर बनना न चाहे तब तक प्रत्येक मनुष्य के सिर पर काल की तलवार लटकती हुई रहेगी। वो अपने विनाश के लिये विज्ञान और प्रोद्यौगिकी के साथ आगे बढ़ता ही रहेगा। 

    समाधान

   निदान यदि मनुष्य को सुख और वैभव की तलाश है अपने और अपने समाज के लिये, तो उसे एक ही काम करना होगा और वो यह है कि वे आधिपत्यत: तथा सविस्तार की धारणा (नीति) को छोड कर केवल और केवल आत्म-निर्भर बनने की धारणा (नीति) को अपने-अपने मनों में स्थान दे। तभी हर मनुष्य व उसका समाज वास्तव में सुख और वैभवत: तथा शान्ति को प्राप्त कर पायेगा जो कि निश्चय ही चिरस्थायी रहेगा ! 

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने