>यह कविता *मधुर कविता किसी धर्म विशेष के भगवान की महिमा-मण्डन के लिये नहीं लिखी गई है, बल्कि नाम भले ही उनके प्रयोग किये गये हैं, परन्तु इनके भाव में महिमा केवल *परमेश्वर* ही की की गई है। चूंकि परमेश्वर आत्मा (पुरुष) है और यह प्रकृति (सीया) उसकी रचना, जिससे परमेश्वर अपने समान प्रेम करते हैं। इसीलिये यह प्रकृति उसकी प्रिया के समान है, जो कि इस युग में दु:खी और संतप्त अवस्था में है, जिसे इस कविता में अभिव्यक्त किया गया है :-
जय सीय+राम ! |
जय सीया+राम !
जय सीया राम जय सीया रामजय-जय-जय, जय जय जय सीया राम !
जन्म हम लेते हैं
पलते बढ़ते हैं
पर क्या करते हैं
ये न हम सोचे हैं,
सूरज निकले है, चंदा बोले रे
राम-राम-राम, कोयल बोले श्याम,
भँवरे हैं ये गुनगुनाये
फूल-पत्ते हीं खिल जायें,
इन में बसे हैं मेरे राम
न जाने कहाँ आ जायें,
हर दिन चलता हूँ रोज निकलता हूँ
पर तेरा सुमिरन मैं न भूलता हूँ,
जहाँ भी देखूँ तुम ही तुम हो
प्रभु जीवन में मेरे तुम हो,
तुम्हें पुकारूँ मैं दिल से
मेरे प्यारे राम;
कह दे न यह मेरे मन
क्यों बनाई ये दुनिया,
ऐसे करता ये विधान
न जाने कब आये राम !,
जान पे आती है सच इंसानों की
शान जाती है ऊंचे घरानों की,
मतलब ने इस दुनियां से प्यार मिटाया है
इंसाँ-इंसाँ एक नहीं यह मन को न भाया है,
भाव जो भाया है
फिर क्या ये काया है,
न तेरा है न मेरा है
ये सब तो प्रभु माया है,
जय सीया राम जय सीया राम, जय-जय-जय............!!!
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*कवितायें*