*हाँ यह सच है - पृथ्वी शेषनाग के फ़न पर टिकी हुई है!, मगर कैसे ? जाने विस्तार से!*

क्या पृथ्वी शेषनाग के फ़न पर टिकी हुई है ?


हाँ यह सच है - पृथ्वी शेषनाग के फ़न पर टिकी हुई है!, मगर कैसे ? जाने विस्तार से!

आज के इस लेख में हम जानेंगे कि क्या पृथ्वी शेषनाग के फ़न पर टिकी हुई है ? इस संदर्भ में विज्ञान की अपनी परिकल्पना है और धर्म की अपनी परिकल्पना है। यहाँ इस लेख में हम विज्ञान और उसकी परिकल्पनाओं को झुठलाने की कोशिश नहीं कर रहें हैं बल्कि यहाँ हम धर्म की परिकल्पना को तार्किक नजरिये से जाँचने की कोशिश हैं, क्या वाकई ऐसा हो सकता है कि पृथ्वी शेषनाग के फनों पर टिकी हुई हो ?

हिन्दू धर्म के अनुसार पृथ्वी किसे कहते हैं ? - शेषनाग theory

इससे पहले की हम धर्म की मान्यताओं के बारे में बात करें, हम विज्ञान के अनुसार जानते हैं कि पृथ्वी किसे कहते हैं. विज्ञान के अनुसार पृथ्वी जल सहित पूरे गोलाकार पिंड को कहते हैं जिसमें जल सहित पृथ्वी की भूपर्पटी से लेकर प्रवार और क्रोड़ भी संम्मिलित होते हैं. 

 परन्तु प्राचीनकाल में हिन्दू शास्त्र के अनुसार, 'पृथ्वी वास्तव में भूपर्पटीय भाग (भूमि) को कहते थे, न कि पूरे गेंदनुमा पिंड को.' 

 हिन्दू धर्म की दृष्टि में पृथ्वी का अर्थ होता है जल में विद्यमान भूपर्पटी ही.  यानि कि  जल में विद्यमान सातों महाद्वीप सहित सब बड़े और छोटे भूखंड। 

 तो प्राचीन ऋषियों ने कहा कि यह पृथ्वी शेषनाग के फनों पर टिकी हुई है। लेकिन आधुनिक विज्ञान ने अपनी खोजों से यह सिद्ध कर दिया कि पृथ्वी गोल है और यह अन्य ग्रहों की भान्ति अंतरिक्ष में खालिस्थान में टिकी हुई है. 

 लेकिन हिन्दू धार्मिक चित्रकारों ने आज से 100 - 150 साल पहले जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि पृथ्वी गोल है तो उन्होंने अंतरिक्ष में जल के ऊपर शेषनाग के फ़न पर पृथ्वी के टिके होने की काल्पनिक चित्र की रचना की. मगर यह परिकल्पना न तो विज्ञान की दृष्टि में सही साबित हुई और न ही हिन्दू धर्म की मान्यताओं के अनुसार ही. इस कारण बहुत से लोगों की आस्था हिन्दू धर्म पर से उठ सी गई. 

क्या पृथ्वी शेषनाग के फ़न पर टिकी हुई है ?


 हिन्दू धर्म एवं विज्ञान के अनुसार पृथ्वी की संरचना का शेषनाग से संबंध 

विज्ञान के अनुसार पृथ्वी की संरचना गोलनुमा पिंड की भान्ति है, जैसे वह कोई गेंद हो. इस गोलनुमा घूमने वाले पिंड का 71 से 72% भाग जल ही जल है, बाकि के 28 से 29% हिस्से में भूमि है. 

 तो अब सवाल यह है कि कैसे 71-72% जल के ऊपर 28-29% भूमि का हिस्सा टिक सकता है, जबकि समुंद्र की गहराई भूमी के मुकाबले में अधिक है? हम जब धरती को खोदते हैं तो 30-40 फुट के बाद पानी निकलना शुरू हो जाता है.

 विज्ञान के अनुसार पृथ्वी का केंद्रीय भाग पूरी तरह से पिघला हुआ है, जिसे प्रवार एवं क्रोड़ कहते हैं और उसके ऊपर पानी ही पानी है. तो जब 71% पानी ही पानी है और उसके नीचे पृथ्वी का केंद्रीय भाग भी पिघला हुआ है तो ऐसे में जल की सतह के ऊपर भूपर्पटी अर्थात भूमी का भारी-भरकम (पर्वतों सहित) हिस्सा कैसे टिका हुआ है? वह क्यों नहीं जल में डूब जाती?

यदि हम विज्ञान की खोज अनुसार गोलनुमा पृथ्वी के पिंड के चित्र को ध्यान से देखें तो उसके मध्य में एक काल्पनिक रेखा जाती है जिसे भुमध्य रेखा कहते हैं. भूमध्य रेखा के ऊपरी हिस्से (उत्तरी गोलार्द्ध) में अधिकाँश भूमि (भूपर्पटी अथवा भुमि या महाद्वीप) का हिस्सा है जिसमें एशिया, अफ्रीका, यूरोप और अमेरिका इत्यादि महाद्वीप आते हैं.  जबकि भूमध्य रेखा से नीचे (दक्षिणी गोलार्द्ध) के हिस्से में भूमि का बहुत कम हिस्सा विद्यमान है. तो यह कैसे संभव हो सकता है? 

क्योंकि वैज्ञानिक सिद्धांत के अनुसार दो ओर की वस्तुओं के सामान रुप से बराबर टिके होने के लिए पलड़े के दोनों हिस्सों में बराबर का वजन होना चाहिए।  जबकि हम यहाँ देखते हैं कि भूमि (भूपर्पटी) का बहुत बड़ा भारी-भरकम हिस्सा केवल उत्तरी गोलार्द्ध में है और इसके मुकाबले में दक्षिणी गोलार्द्ध में बहुत कम हिस्सा है. तो फिर यह कैसे संभव हो सकता है कि यह दोनों हिस्से बराबर अपनी-अपनी जगह टिके हुए हैं, क्योंकि पृथ्वी तो गोल है?, और गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत के अनुसार तो उत्तरी गोलार्द्ध को अधिक वजन होने की वजह से दक्षिणी गोलार्द्ध की ओर धंस जाना चाहिए था?

इसी सिद्धांत के अनुसार पृथ्वी के मध्य में ऐसी कोई गुरुत्वाकर्षण शक्ति है जिसने पूरी गोलनुमा पृथ्वी को अपने चारों ओर से संभाल कर (टिकाकर) रखा हुआ है.

Ring of fire का रहस्य - शेषनाग का उद्गार!

 हमने प्रशांत महासागर के विषय में सुना और पढ़ा है कि वहां महासागर के चारों ओर Ring of fire है. जहाँ अग्नि की ज्वालायें सदैव लपटें मारती रहती हैं, क्योंकि ज्वालामुखी का उद्गार होता रहता है. 

 अब सवाल यह है कि प्रशांत महासागर पूरी गोलनुमा पृथ्वी का एक तिहाई (1/3) हिस्सा है, और उस एक तिहाई हिस्से (प्रशांत महासागर) के पीछे (Opposite side) की ओर अधिकाँश महाद्वीप हैं. प्रशांत महासागर का हिस्सा लगभग पूरा खाली है और इसकी गहराई भी अधिक है. 

अब सवाल यह है कि पृथ्वी का उत्तरी गोलार्द्ध का हिस्सा बहुत भारी है, लेकिन दक्षिणी गोलार्द्ध का बहुत हल्का और उनके Opposite side में पृथ्वी का एक तिहाई हिस्सा प्रशांत महासागर का है जो की पूरी तरह खाली है, तो विज्ञान की गुरुत्वाकर्षण theory के अनुसार इन सभी भागों के वजन में असमानता है, क्योंकि गुरुत्वाकर्षण theory के मुताबिक़ एक साथ बराबर टिके रहने के लिए दोनों ओर की दिशाओं में बराबर वजन होना जरुरी है अन्यथा भारी हिस्सा हल्के हिस्से की ओर धंस जायेगा और हल्का हिस्सा भारी हिस्से की तरफ गिर जाएगा। इसलिये Ring of fire का कारण शेषनाग के मुख से उत्त्पन्न भयंकर ज्वालायें हैं. इसके अतिरिक्त विभिन्न भूभागों में भूकंप का कारण भी शेषनाग के किसी फ़न का हिलना है.

 हिन्दू धर्म में जलप्रलय की परिकल्पना का शेषनाग से संबंध 

हिन्दू शास्त्रों में (पुराणों) लिखा गया है कि जल प्रलय आने पर पूरी पृथ्वी जलमग्न हो जाती है. तो इसका अर्थ यह नहीं है कि पूरी गोलनुमा पृथ्वी जो गेंद के आकार की है वह अंतरिक्ष में किसी और महासागर में डूब जाती है, बल्कि इसका अर्थ यह है कि गेंदनुमा पृथ्वी की भूपर्पटी, जिसे शास्त्रों में पृथ्वी अथवा भूमि कहा गया है वह यहीं के किसी महासागर में डूब जाती है. यानि कि 28-29% भूभाग जिसे पृथ्वी कहते हैं वह 71-72% जल में (महासागर में) डूब जाती है. 

शास्त्रों में इस तरह वर्णन है कि जब शेषनाग पृथ्वी के केंद्र से निकल कर बाहर हो जाते हैं तभी पृथ्वी जल में पूरी तरह से डूब जाती है. 

इस पुराणिक परिकल्पना को हम आधुनिक विज्ञान की गोलनुमा पृथ्विय पिंड को ध्यान से देखते हुए कल्पना कर सकते हैं कि किस तरह इसके केंद्र में शेषनाग जी कुंडली मार कर रहते हैं. उनके फनों की पीठ पर पृथ्वी का भूभाग (भूपर्पटी) टिका हुआ है जिसे शास्त्रों में पृथ्वी कहा गया है, और उनके विशाल शरीर का कुंडली मारा हुआ हिस्सा पूरा प्रशांत महासागर और पृथ्वी का केंद्रीय हिस्सा है जिसे ही विज्ञान प्रवार एवं क्रोड कहता है. 

प्रशांत महासागर की ओर शेषनाग के फनों का मुख, जहाँ से शेषनाग जी साँसे छोड़ते हैं तो भयंकर अग्निमय ज्वालामुखी उत्त्पन्न होती हैं, इन्हें ही हम Ring of fire मान सकते हैं. 

 हमारे शास्त्रों में लिखा गया है कि जो देव-श्रेणी के नाग होते हैं वे साँसें छोड़ते वक्त अपने मुख से भयंकर अग्नि की ज्वालायें विसर्जित करते हैं. 

पृथ्वी का पूरा प्रवार मुख्यत: शेषनाग जी के मुख का अग्निमय उद्गार है, जो प्रशांत महासागर में Ring or fire के रूप में एक फुंकार है. 

शेषनाग जी की कुंडली के ऊपर विष्णु जी विराजमान होते हैं और उनकी नाभि से एक कमल की डंठल उत्त्पन्न होती है जो उत्तर में भूपर्पटी (भूमि) के ऊपर पुष्कर नामक स्थान में जो की भारत में है, में ब्रह्मा जी कमल के फूल पर उत्पन्न होते हैं और फिर वहीँ से वह समस्त भूभाग (भूपर्पटी) पर वनस्पति एवं प्राणियों की उत्पत्ति करते हैं। 

जब भगवान को सृष्टि का अंत करना होता है तो शेषनाग जी दक्षिणी गोलार्द्ध के हिस्से से पृथ्वी के बाहर निकल जाते हैं, और जब पुन: सृष्टि की रचना करनी होती है तो उसी दक्षिणी गोलार्द्ध से पृथ्वी के केंद्र में प्रवेश करते हैं.

 तो जो यह गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत है वह इस शास्त्रीय परिकल्पना के मुताबिक़ सही पैठता है। जितना वजन पृथ्वी के उत्तरी गोलार्द्ध में है उतना ही वजन शेषनाग जी की कुंडली के रूप में पृथ्वी के दक्षिणी गोलार्द्ध में भी है। 

हाँ, पृथ्वी का केंद्र यूं ही खाली नहीं है. वहां शेषनाग जी विराजमान हैं जिन्होंने पूरी गोलनुमा पृथ्वीय पिंड को अपने वजन से संभाले रखा हुआ है। 

 पुराण में वर्णित सागर मंथन का शेषनाग से संबंध 

एक और तर्क यह है कि हमारे शास्त्रों में सागरमंथन का जिक्र किया गया है।  और यह सागर मंथन यहीं इसी पृथ्वी के किसी न किसी महासागर में किया गया था. जब देवताओं और असुरों ने अमृत प्राप्ति के लिए सागर मंथन किया तो उसमें से सबसे पहले विष निकला। 

अब सवाल यह है - कि *सागर मंथन करने पर सर्वप्रथम विष ही क्यों निकला?

 और *सागर में विष कहाँ से आया?

 तो इसका सीधा-सीधा सा उत्तर यह है कि सागर में वह विष शेषनाग जी के मुख से उत्त्पन्न विष ही था. क्योंकि वासुकि के मुख का विष तो ऊपर हवा में फ़ैल गया था, परन्तु सागर से उत्पन्न विष शेषनाग जी का ही था.

 साराँश 

 तो इस प्रकार हमने यह सवाल कि क्या पृथ्वी शेषनाग के फ़न पर टिकी हुई है?, इसका गहरा अध्ययन किया कि हिन्दू धर्म के अनुसार पृथ्वी वास्तव में इस संपूर्ण गोलाकार पृथ्वी को नहीं कहते थे, बल्कि जल में विराजमान भूभाग (भूपर्पटी) को पृथ्वी कहते थे, और वह भूभाग जिस के ऊपर पृथ्वी टिकी हुई है उसे शेषनाग कहते हैं. यह विज्ञान और हिन्दूधर्म शास्त्रों पर आधारित तार्किक अध्ययन करते हुए एक गहरी परिकल्पना है. क्योंकि विज्ञान भी अपनी बहुत सी खोजों में मात्र परिकल्पना ही करती है !

      

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