*धर्मनिरपेक्षता बनाम धर्म पर आधारित राजनीतिक पार्टियां क्या संविधान सम्मत हैं?*

 

धर्म पर आधारित राजनितिक पार्टीज क्यों ?

धर्मनिरपेक्षता बनाम धर्म पर आधारित राजनीतिक पार्टियां क्या संविधान सम्मत हैं?

 भारत देश एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। यहाँ की चयनित सरकारें केवल वही कर सकती हैं जो उन्हें संविधान के द्वारा करने को कहा गया है। यहाँ संविधान और जनता सर्वोपरी हैं, सरकारें नहीं। यहाँ की सरकारों को संविधान के द्वारा 'धर्मनिर्पेक्ष' रह्ने का दिशा-निर्देश दिया गया है, अर्थात देश में विद्यमान किसी भी धर्म के साथ सरकार का कोई लेना-देना नहीं। कोई भी सरकार किसी भी धर्म के उत्थान और पतन के लिये अथवा पक्ष में होने या विरोध में होने के लिये जिम्मेदार नहीं होगी। सरकारें धार्मिक मामलों में पूरी तरह से तटस्थ व निरपेक्ष रहेंगी।

तो धर्म पर आधारित राजनीतिक पार्टीज़ (दलें) क्यों ?

जबकि स्ंविधान के द्वारा यह पूरी तरह स्पष्ट किया गया है कि सरकारें धार्मिक मामलों में पूरी तरह तटस्थ व निरपेक्ष रहेंगी, तो फिर भी यहाँ पर धर्म पर और धार्मिक विचारधारा पर आधारित राजनीतिक दलों का गठन क्यों किया जाता है ?

 क्या इसकी इजाजत स्वयं संविधान देता है ?

 यदि हाँ, तो यह एक विचित्र व गंभीर विरोधाभासी मामला है ! ऐसा तो कतई नहीं होना चाहिये। एक तरफ देश के संविधान को धर्मनिरपेक्ष बनाया गया तो दूसरी ओर यहाँ की राजनीतिक पार्टियों को धार्मिक आधार पर बनने की छूट दी गई।

 इस संदर्भ में संविधान में शिघ्रातिशीघ्र संशोधन करवाया जाना चाहिये। धार्मिक विचारधारा पर आधारित किसी भी पार्टी (संगठन) को राजनीतिक दल बनने की इजाजत न दी जाये। यदि कोई पार्टी ऐसी है भी, तो उसके राजनीतिक पार्टी होने का लाईसेंस उससे छीन लिया जाये।

वर्तमान केंद्रीय सरकार और कुछ राज्य सरकारों ने अपनी धार्मिक विचारधारा का अत्यंत प्रचार किया!

यह एक बड़ी ही खेद की बात है कि वर्तमान सरकार ने चाहे वे केंद्र की हो या राज्यों की, दोनों ने ही अप्नी सत्ता का कुछ तो दुर्पयोग किया है। 

 केंद्रीय सरकार ने गरीबी और बेरोजगारी का उन्मूलन करने की बजाये, पुरानी पेंशन बहाल करने की बजाये अपनी धार्मिक विचारधारा को देश में स्थाईत्व प्रदान करने के और उसका अप्रत्यक्ष ढ़ंग से प्रचार करने के लिये देश की जनता के पैसों का कुछ तो दुर्पयोग किया है, जिसका हिसाब जनता को सरकार से माँगना चाहिये।

 *राममंदिर का निर्माण किया गया, जो कि अभी भी निर्माणरत है, उस पर 1800 करोड़ रुपयों की लागत है। निसन्देह, यह पैसा लोगों द्वारा दान किया गया ट्रस्ट का पैसा है, पर फिर भी इस हेतु केंद्रीय व राज्य सरकार ने धनराशि की सहायतार्थ कुछ तो भूमिका निभाई होगी !

धर्म पर आधारित राजनितिक पार्टीज क्यों ?

 *मध्यप्रदेश के उज्जैन में महाकाल मंदिर के निर्माण पर भी 300 करोड़ रुपयों की लागत थी, जिसके निर्माण में निसंदेह, राज्य और केंद्रीय सरकार की वित्तीय सहायता थी।

 *निसन्देह, Statue of Unity हमारी अखंडता, एकता और भव्यता का सूचक है, परन्तु फिर भी क्या जरुरत थी केंद्रीय और राज्य सरकार को 2989 करोड़ रुपयों की लागत से ऐसी विशाल मूर्ती को बनाने की ? इस पर जितना पैसा खर्च किया गया है, पर्यटन से उतना पैसा वापिस लौट कर आने में वर्षों यानि कि दशकों लग जायेंगे।

 विशेष कर वर्तमान केंद्रीय सरकार अपनी हिन्दुवादी विचारधारा की स्थापना के लिये ऐसे अनगिनत तरीके इस्तेमाल कर रही है।

हिन्दु मन्दिरों के निर्माण के लिये सरकारें जितनी राशियों को खर्च करती हैं यदि उन धनराशियों को गरीबी और बेरोजगारी उन्मूलन के लिये लगा देती तो जनता का कितना भला होता !

 सरकारों को कोई अधिकार नहीं कि वे धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के नागरिकों का पैसा किसी एक धर्म और उसकी संस्कृति की उन्नति के लिये ही खर्च करे। इस देश में क्या कभी हमने देखा है कि किसी सरकार ने मस्जिदों, चर्चों, मठों और भी दूसरे मतों की उन्नति के लिये व्यापक स्तर पर सहायता की हो ?

 जो पैसा सरकार खर्च करती है वो पैसा केवल हिन्दुओं का नहीं होता बल्कि वो मुस्लिमों, ईसाइयों, बौद्धों और अलग-अलग धर्मों के लोगों और यहाँ तक की नास्तिकों का भी होता है, तो ऐसे में सरकार को चाहिये कि वह उन पैसों का उपयोग सामाजिक और आर्थिक उन्नति के लिये करे, न कि धार्मिक उन्नति के लिये। आध्यात्मिक मंत्री के पोस्ट को सृजन कर उन्हें अपने धार्मिक (Religious) मंतव्यों की पूर्ति नहीं करनी चाहिये।

 सारांश 

 देश के किसी भी नागरिक को किसी भी सरकार से बेवजह कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये। देश के नागरिक की विचारधारा किसी भी राजनितिक पार्टी से प्रेरित न हो कर संविधान से प्रेरित होनी चाहिये। कोई भी सरकार हो, किसी भी विचारधारा की राजनीतिक पार्टी की सरकार हो, यदि वह संविधान के सिद्धांतों के विरुद्ध जा कर और खास करके उसकी आत्मा (प्रस्तावना) पर प्रहार करके कोई कार्य करे, तो यह आवश्यक हो जाता है कि देश की जनता उस सरकार से इसका पूरा-पूरा हिसाब ले। इसके अतिरिक्त जनता को यह चाहिये कि वे संविधान की इस मूल गढ़बड़ी की पड़ताल करे तथा संविधान में इस संदर्भ में आवश्यक संशोधन करे !

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