*क्या मूर्ती पूजा पाप है? जानिये सनातन धर्म के अनुसार !*

 

मूर्ति पूजा का विज्ञान !

 क्या मूर्ती पूजा पाप है ? जानिये सनातन धर्म के अनुसार!

 अगर ईश्वर सर्वव्यापक और अदृश्य है तो फिर लोग क्यों पत्थर की मूर्तियों को ढाल कर उसकी पूजा करते हैं ?

 आखिर ऐसा क्या कारण है और ऐसा क्या पराविज्ञान है; मूर्ती पूजा का विज्ञान और रहस्य क्या है, जो वे ऐसा करते हैं?

 इब्राहिमिक धर्मों में ईश्वर सर्वव्यापक नहीं !

 यहुदी, ईसाइयत और इस्लाम धर्म की विचारधारा के अनुसार तो ईश्वर सर्वव्यापक नहीं है। वह सर्वशक्तिमान है, सर्वअन्तर्यामी भी है, किन्तु सर्वव्यापक नहीं है। वह तो एक व्यक्ति है, और वह सर्वोच्च स्वर्ग में विराजमान है।

 परंतु इन धर्मों को छोड़ कर सनातन धर्म के अनुसार - ईश्वर सर्वशक्तिमान है, सर्वअन्तर्यामी है और साथ ही सर्वव्यापक भी है।

 इब्राहिमिक धर्मों का ईश्वर स्वर्ग से उतर कर पृथ्वी पर आता-जाता रहता है, परंतु सनातनीयों का ईश्वर स्वर्ग से नहीं उतरता और न ही स्वर्ग पर वापिस चढ़ता ही है, सिवाय देवताओं को छोड़। वह सर्वव्यापक है, इसलिए वह कहीं से भी प्रकट हो सकता है। आखिरकर वह कण-कण में विराजमान जो है। उसकी उपस्थिति संपूर्ण चराचर ब्रह्मांड में एक समान है। वो है, इसीलिए ही तो यह सृष्टि जीवंत है, अन्यथा यह सारी सृष्टि मृतप्राय: ही होती।

 देखिये, इब्राहिमिक धर्मों के विचार में ईश्वर स्वर्ग में विराजमान रहता है, जिसे पृथ्वी भर के किसी भी मनुष्य ने आज तक नहीं देखा है। तो ऐसे में यदि कोई मनुष्य सृष्टि भर की किसी भी वस्तु या रचना की मूर्ति बना कर उसे ईश्वर मान कर उसकी पूजा करने लगे, तो जाहिर-सी बात है कि स्वर्ग में विराजमान उस अदृश्य ईश्वर को यह बुरा लगे, क्योंकि वास्तव में उसे तो किसी ने देखा ही नहीं और ऐसे में उसकी ईश्वरीयता के नाम पर किसी दूसरे की आराधना उसे कहाँ भायेगी !

अब हिन्दुओं (सनातनीयों) का ईश्वर तो स्वर्ग में नहीं बैठता। वह तो सदैव सर्वव्यापक रहता है। उसी ने संपूर्ण सृष्टि को धारण-पोषण करके रखा है। उसे भी लोगों ने कभी नहीं देखा।

 सनातन धर्म के अनुसार, 'ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है बल्कि वह तो समष्टि है।'

 अब यह व्यक्ति और समष्टि का क्या अर्थ है ?

 देखिये, व्यक्ति उसे कहते हैं जिसकी  व्यक्तिगत स्ंरचना, व्यक्तिगत भावनायें और व्यक्तिगत इच्छायें और व्यक्तिगत जीवन होता है।

 जबकि समष्टि उसे कहते हैं - जिसकी व्यापक संरचना, व्यापक भावनायें, व्यापक इच्छायें और व्यापक जीवन होता है। उसका अपना कुछ भी नहीं होता है। उसका अपना कुछ भी हित और नीजि स्वार्थ नहीं होता, और न ही उसकी अपनी नीजि इच्छायें हीं  होती हैं। 

 उसका जीवन केवल व्यापक स्तर पर परमार्थ के लिये ही होता है। उसकी जीवन संरचना केवल Sanctified और Sacrified होती है, दूसरों के लिये और सब के हित के लिये। यही ईश्वर की मूल संरचना व स्वभाव है।

 इसीलिए सनातन धर्म में ईश्वर को निर्गुण व निरविकार कहते हैं। वह स्वयं में से जीवनों को उत्पन्न करके भी हस्तक्षेप रहित अवस्था में रहता है। वह किसी भी जीव की व्यक्तिगत इच्छाओं और कर्मों में हस्तक्षेप नहीं करता है, परंतु कर्मफल और मुक्ति का रास्ता सदैव बनाये रखता है।

 तो अब सवाल यह है कि क्यों सनातन धर्म में पत्थर की मूर्ति की पूजा या प्रतीक पूजा की जाती है?

मूर्ति पूजा का विज्ञान !
 
 देखीये, हर धर्मों के अनुसार ईश्वर के अनंत गुण हैं। लेकिन उन सभी गुणों में से जो एक गुण है जो मनुष्य जीवन में उसके होने की विश्वसनीयता को दर्शाता है, वह है - स्थिरता। अर्थात ईश्वर कभी न बदलने वाला है, वह सदा से एक समान है। मनुष्य बदल सकता है, आज जैसा है वह कल को वैसा नहीं हो सकता। मनुष्य का स्वभाव परिवर्तनशील है।

 यहाँ तक की मनुष्य हों या अन्य प्राणी जन्म लेते हैं, शिशु, बाल्य, युवा, अधेड़ और फिर वृद्धा अवस्था में परिवर्तित होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।

 परंतु ईश्वर न तो जन्म लेते हैं और न ही वह इन सभी अवस्थाओं में से होकर गुजरते हुये मृत्यु ही को प्राप्त होते हैं। ईश्वर सदैव अटल, स्थिर और अपरिवर्तनीय है।

 तो इसीलिए सनातन इतिहास में किसी काल में लोगों ने पत्थर की मूर्तियों के रूप में ईश्वर की आराधना करनी शुरु की। क्योंकि पत्थर का भी जन्म नहीं होता और न ही वह विभिन्न अवस्थाओं में से होकर गुजर कर मृत्यु को प्राप्त होता है। पत्थर अटल, स्थिर और अपरिवर्तनीय है। पत्थर और ईश्वर इस संदर्भ में एक समान संरचना के हैं। इसके अतिरिक्त ईश्वर जब अपनी व्यवस्था में मनुष्यों का न्याय (कर्मफल) करता है तो वह एक पत्थर के समान दया रहित भी हो जाता है। ये दोनों ही निर्गुण और निर्विकार हैं।

  तो सनातन धर्म के देवी-देवता कौन हैं ?

  यथार्थ में सनातन धर्म के अनुसार इस सृष्टि में 33 करोड़ नहीं वरन 33 कोटि देवी-देवता हैं, जो उस अदृश्य, सर्वव्यापक ईश्वर का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये उस सर्वव्यापक ईश्वर की शक्ति और उसके तेज का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये उस सर्वव्यापक ईश्वर की पूर्व-व्यवस्थित व्यवस्था का संचालन करते हैं। ये पूरी सृष्टि का परिचालन करते हैं। ये तेजोमय शरीरधारी दिव्य प्राणी होते हैं जो नीजि तौर पर स्वर्ग में रहते हैं। इनकी इच्छा व्यवस्थित रूप से ईश्वरीय इच्छा होती है।

 वेद और पुराण वास्तव में सृष्टि, खगोल-विज्ञान और जीव-विज्ञान की जबरदस्त गहरी विद्या है, जिसे समझ पाना हर किसी के वश की बात नहीं !

 प्रतीक पूजा या मूर्तिपूजा के संदर्भ में भारतीय लोगों ने ईश्वर को उसकी अपरिवर्तनीय व विश्वासयोग्यता स्वभाव के चलते उसकी आराधना की। परंतु इसमें एक जबरदस्त हानि यह रही कि लोग मूर्ति या प्रतीक पूजा तो करते रहे, पर उसके पीछे के भाव को वे भूल गये।

 इसीलिये भगवतगीता में भगवान ने कहा है कि, "निसंदेह ! मैं आत्मा हूँ, निर्गुण, निर्विकार और अपरिवर्तनीय हूँ; परंतु यदि केवल संपूर्ण ज्ञान सहित सच्चे हृदय से मेरी आराधना की जाये तो मैं ऐसे भक्त अथवा ज्ञानी व्यक्ति के लिये सर्वसुलभ हूँ!"

 ध्यान देने योग्य - भगवान् ने कहा, 'संपूर्ण ज्ञान सहित।' अर्थात मूर्ति पूजा अथवा प्रतीक पूजा एक अधूरा ज्ञान है। यह गलत तो नहीं है, परन्तु अधूरा है, और अधूरा ज्ञान मनुष्य को किसी गढ्डे में गिरा सकता है। लेकिन मूर्ति पूजा पाप तब होता है जब मनुष्य इसके पीछे के भाव को नहीं जानता कि ईश्वर अटल, स्थिर और अपरिवर्तनीय है !

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