*भगवान की सच्चाई, जो लगभग किसी को नहीं पता !*

 

भगवान  की सच्चाई क्या है ?

भगवान की सच्चाई, जो लगभग किसी को नहीं पता! 

  लगभग सारी मानवता कन्फ्यूज है भगवान, ईश्वर, परमेश्वर तथा परमात्मा के संदर्भ में !

  कोई कहता है कि यह सारी दुनियाँ परमात्मा ने बनाई है, तो कोई कहता है कि परमेश्वर ने और कोई कहता है भगवान ने !

  आखिर इन सबका मतलब है क्या ? आखिर *भगवान की सच्चाई क्या है?

  क्या ये सब किसी एक ही व्यक्ति या शक्ति के नाम हैं या फिर ये सब अलग-अलग हैं ?

 वास्तव में भगवान, ईश्वर, परमेश्वर और परमात्मा अलग-अलग हैं!

  *भगवान को जानने से पहले हमें देवताओं के संदर्भ में जानना चाहिये। देवी या देवता वे हैं जो स्थूल जगत से परे सूक्ष्म, अतिसूक्ष्म जगत के वासी होते हैं। अतिसूक्ष्म को दूसरे शब्दों में दिव्य कहते हैं। अत: जो दिव्य-विभूति होते हैं वही देवी या देवता कहलाते हैं।

  *भगवान उसे कहते हैं जो दिव्यजगत (सूक्ष्मजगत) सहित स्थूलजगत तक जिसका अधिकार होता है। जो इन सबका नियंता होता है।

  बहुदेववादी दार्शन के अनुसार, इस संपूर्ण जगत में भगवान तीन रूपों में विराजमान है, जिन्हे त्रिएक-ईश्वर कहते हैं। यह त्रिएकेश्वर इस जगत के बिखरे पदार्थों और विभिन्न आत्माओं को लेकर के एक व्यवस्थित संसार की रचना करते हैं। जबकि उससे पूर्व कुछ भी व्यवस्थित नहीं होता और न ही कुछ उत्पन्न ही होता है। 

  भगवान उन्हें एक सीमित-समय के लिये शक्ल देते हैं और उनका विधान रचते हैं। भगवान अपनी बनाई रचनाओं का पालन करते हैं और जब व्यवस्थित तथा निर्धारित समय पूरा हो जाता है तब उसे मिटाकर के नये सिरे से नई रचना उनके द्वारा की जाती है।

  यह प्रक्रिया अनंतकाल से चली आ रही है और न जाने कब तक चलेगी !

 भगवान की सच्चाई  क्या  है ?

   बहुदेववादी धर्म में भगवान (त्रिएकेश्वर)  को ब्रह्मा-विष्णु-महेश कहते हैं। और यह बात बहुत करके वैज्ञानिक भी प्रतीत होती है, क्योंकि भौतिकशास्त्र के अनुसार भी पदार्थों की रचना, उनका विकास और पतन मुख्यतः तीन परमाणुओं पर आधारित है जिन्हें हम प्रोटॉन, इलेक्ट्रॉन और न्यूट्रॉन कहते हैं।

  *ईश्वर उन्हें कहते हैं जो प्रकृति के किसी न किसी संभाग के स्वामी (Lord) होते हैं जैसे, अग्नि का नियंत्रक अधिकारी स्वामी अग्निदेव एक देवता होते हुये भी एक ईश्वर है। उसी तरह जल, वायु, भूमी, आकाश (शब्द) इत्यादि के संदर्भ में भी ऐसा ही है।

  इसी रीति स्वर्ग (अल्कापूरी) का स्वामी होने के नाते इंद्र एक ईश्वर है। अंतरिक्ष (मध्य आकाश) का स्वामी होने के नाते लुसीफर (शैतान) भी एक ईश्वर ही है। धरती का स्वामी होने के नाते मनुष्य भी एक ईश्वर ही है। अधोलोक और पाताल के ईश्वर दैत्य और असुर हैं।

  *लेकिन परमेश्वर वो है जो ईश्वरों का भी ईश्वर है। जो समस्त दैत्यों, असुरों, यक्षों, गंदर्भों, किन्नरों, नागों, मनुष्यों, देवताओं और भगवानों (त्रिएकेश्वर) का भी स्वामी (परमेश्वर-LordGod) है। जो विभिन्न आत्माओं और अतिसूक्ष्म, सूक्ष्म तथा स्थूल पदार्थों का संयुक्त गठजोड़ है। यह वो है जिसे वैज्ञानिक Dark matter कहते हैं। यह वो है जिसे वेदों में सदाशिव कहते हैं।

  इसकी संरचना ठीक अण्डे के समान है। जिसमें आत्माएँ, आद्यप्रकृति और शब्द (वचन) निहित होता है। परमेश्वर की संरचना को हम तत्वज्ञान के द्वारा अलग-अलग करके देख तो सकते हैं किन्तु इसे इस आधार पर बाँट नहीं सकते। 

  शिव, दुर्गा (आद्यप्रकृति) और  वाचस्पति (शब्द अथवा वचन) ये एक ही पुरुष (आत्मा के) के तीन अलग-अलग व्यक्तित्व हैं। और परमेश्वर एक सक्रिय ईश्वर है, यह सगुण ईश्वर है। यह ईश्वर अन्धकार और प्रकाश दोनों का गठजोड़ है क्योंकि इसकी प्रकृति (गुण-स्वभाव) ही ऐसी है।

  *जबकि परमात्मा एक निष्क्रिय परमेश्वर है जो निर्गुण और उदासीन है। इस जगत में परमात्मा सुषुप्त अवस्था में विराजमान है। परमात्मा सदैव इसी अवस्था में रहता है। वास्तव में परमेश्वर परमात्मा का सक्रिय एवं सगुण रूप है। परमात्मा की आरंभिक इच्छा से परमेश्वर का अवतरण हुआ है। यह परमात्मा का ही प्रकट रूप है। परमात्मा की इस सुषुप्त अवस्था को ही मोक्ष (उच्चत्तम स्वर्ग) कहते हैं।

  जबकि अनन्तजीवन अर्थात उच्च-स्वर्ग (संदर्भ बाईबल) परमेश्वर के निजधाम को कहते हैं, तथा स्वर्ग,अल्कापुरी से लेकर भगवान के वेकुण्ठ धाम (विष्णुलोक) को कहते हैं।

  त्रिदेवों में से सतगुण विष्णु भगवान नकारात्मक शक्ति का (अन्धकार अथवा बुराई) प्रत्यक्ष प्रतिकार करता है। परंतु परमेश्वर प्रकाश और अन्धकार दोनों को आत्मसात करता है।

 सृष्टि रचना का क्रम !

  सर्वप्रथम परमात्मा के संकल्प से परमेश्वर का अवतरण होता है। फिर परमेश्वर की इच्छा से त्रिदेवों (तीन भगवानों) की उत्पत्ति होती है। तब ये त्रिदेव क्रमानुसार इस सृष्टि की रचना, पालन और विघटन करते रहते हैं।

  सुर-असुर अथवा विभिन्न देवताओं (ईश्वरों) और मनुष्यों को रचना त्रिदेवों में से एक देव करता है। अत: हम सभी को भगवान ने बनाया है। 

  भगवान (त्रिदेव) स्वयं पराप्रकृति प्राणी हैं और प्रकृति से परे नहीं है। लेकिन भगवान ने हमारी आत्माओं अर्थात स्वयं हमें नहीं बनाया है, वरन हमारे शरीर और हमारे जीवन-विधान की रचना ही की है। हमारी आत्मा अर्थात हम स्वयं परमात्मा में से आये हैं जिन्हें परमेश्वर ही इस जगत में लायें हैं।

  चूँकि इन तीन भगवानों की क्रिया परमेश्वर की इच्छा और शब्द-शक्ति से सक्रिय होती है इसीलिये यह कहा जाता है कि हमें पर्मेश्वर ने बनाया है, वही हमारा पालनहार और तारणहार है। जबकि वह आप कुछ नहीं करता , वह जो कुछ भी करता है वह त्रिदेवों के माध्यम से ही करता है।

भगवान की सच्चाई क्या है ?


   मोक्ष में जाने वाले मुनिलोग परमात्मा के सगुण रूप (सक्रिय रूप) का उलंघन कर जाते हैं अर्थात सीधे परमात्मा में समाहित हो जाते हैं। जबकि अनंतजीवन में जाने वाले लोग परमात्मा के सगुण रूप (परमेश्वर अथवा सदाशिव) के निजधाम में जाने योग्य हो जाते हैं। 

  अभी परमेश्वर के निजधाम (स्वर्गीयराज्य अथवा अनन्तजीवन) का द्वार खुला नहीं है। यह चार युगों के अन्त में केवल एक बार खुलता है धर्मियों के लिये, और  यही सत्य है जो कि शास्त्रसम्मत है !

  अत: शास्त्रों के अनुसार देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, उनसे भौतिक-वस्तुओं की माँग की जाती है जो कि उचित नहीं !

 भगवान  की सच्चाई क्या है ?

  भगवान (त्रिदेवों) की भक्ति की जाती है, आराधना की जाती है। परंतु यह भक्ति और आराधना भी अनंतजीवन और मोक्ष के हेतू नहीं होता, क्योंकि भगवान स्वयं पराप्रकृति हैं, प्रकृति से परे नहीं हैं। ये कर्मफल विधान रचने वाले हैं। ये जन्म, पालन और मृत्यु देते हैं। ये सगुण परमेश्वर के साकार रूप हैं। ये कृपालु ईश्वर हैं। सत्य पर रहने से ये परमेश्वर की ओर से मानवता के लिये  प्रत्यक्ष ईश्वर हैं। इसीलिए मनुष्य परमात्मा और परमेश्वर से अधिक हे  भगवान हे भगवान हे भगवान करता है !

 किन्तु परमेश्वर प्रकृति से परे हैं। वह सगुण तथा सक्रिय तो हैं, परन्तु साम्य-अवस्था में है। इसलिये परमेश्वर की भक्ति, स्तुति और आराधना ही सच्ची श्रद्धा है। जबकि परमात्मा की न तो भक्ति की जा सकती है न ही स्तुति आराधना ही, क्योंकि निर्गुण को केवल जाना जा सकता है। अत: परमात्मा को अन्तर्ज्ञान के द्वारा ही जान कर उनसे जुड़ा जा सकता है। किन्तु परमात्मा को जानने से पहले खुद की आत्मा को जानना (स्वयं को) आवश्यक होता है। इसलिये यह मार्ग केवल 'सर्वोच्च आत्मज्ञान का मार्ग' है।

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