*महाद्वीप और महासागर कैसे बने ? (जाने सरल शब्दों में !)

 

महाद्वीप और महासागर कैसे बने ? (जाने सरल शब्दों में !)

  महासागर पृथ्वी की सतह का लगभग 71% हिस्सा ढकते हैं। इन महासागरों में पृथ्वी की कुल जलसम्पदा का 97% भंडार है जबकि शेष 3% ध्रुवीय क्षेत्रों में हिम (बर्फ) के रूप में है। अब ऐसे में यह जानने की जिज्ञासा तो उठती ही है कि आखिर इन महासागरों का निर्माण कैसे हुआ ?

 तो क्या आप जानते हैं कि पृथ्वी की उत्पत्ति के बाद आरम्भ में पूरी पृथ्वी भर में केवल एक ही विशाल महासागर था जिसे वैज्ञानिक 'टेथीज सागर' कहते हैं, और इस आदि विशाल महासागर के मध्य में केवल एक ही विशाल धरती थी जिसे वैज्ञानिक 'पेंजिया' कहते हैं.

 पृथ्वी का बंटवारा और पाँच महासागरों की उत्पति !

  लेकिन समय गुजरने के साथ ही करोड़ों वर्षों बाद पृथ्वी का बंटवारा शुरु हुआ अर्थात पेंजिया का विभाजन होने लगा। एक वक्त आया जब पूरी तरह से पेंजिया के सात टुकड़े हो गये और इन्हीं सात टुकड़ों को आज हम पृथ्वी के सात महाद्वीप कहते हैं। ऐसा नहीं है कि यह प्रक्रिया अब रुक गई है। अब भी यही प्रक्रिया जारी है और न जाने आगे भी धरती के और कितने टूकड़े होने वाले हैं। क्योंकि प्रति वर्ष प्रत्येक महाद्वीप एक दूसरे महाद्वीप से और स्वयं एक महाद्वीप भी स्वयं के भूमी के विभाजन की प्रक्रिया में गतिशील है। 

 इस प्रकार पेंजिया के विभाजन के परिणामस्वरूप महाद्वीपों के मध्य में जो जल भर गया उससे महासागरों की उत्पत्ति हुई।

 हम सभी जानते हैं कि आदि में जीवन की उत्पत्ति जल में ही हुई थी। फिर उच्चतर रूप विकसित हुये और स्थल पर आये, जहाँ उनका पोषण वायुमण्डल की आक्सीजन द्वारा हुआ।

 महासागर विभिन्न लवणों और मिनरल्स का भण्डार है !

  समुंद्री जल विभिन्न लवणों (नमक) का मिश्रण है। समुंद्र इनको स्थल की चट्टानों के अपक्षयन (Depletion) एवं अपरदन (Erosion)की प्रक्रियाओं से प्राप्त करता है।

  समुंद्र में मुख्यतः सोडियम, मैग्निशियम, कैल्शियम तथा पोटेशियम के लवण (नमक) होते हैं। समुंद्र इन लवणों को उन नदियों से भी प्राप्त करता है जो बह कर इसमें मिल जाती हैं। ये विभिन्न लवण अवक्षेपित होकर सागर तल में तलछट के रूप में बैठ जाते हैं। इन तलछटों के कारण महासागरों में लवणों का स्तर स्थिर बना रहता है।

प्रशान्त महासागर पृथ्वी का सबसे बड़ा महासागर!

  बाकि के महासागरों के बनिस्बत प्रशान्त महासागर सबसे बड़ा एवं सबसे अधिक गहरा है। वास्तव में प्रशान्त महासागर इतना बड़ा है कि समस्त महाद्वीप इसमें समा सकते हैं। प्रशान्त महासागर, एटलान्टिक तथा हिन्दमहासागर में सबसे अधिक गहराई 4 किलोमीटर है।

  अगर महासागरों का समस्त जल बाहर निकाल लिया जाये तो इसकी तली में हम वही स्थिति देखेंगे जो हम स्थल (धरती) में देखते हैं।  वहाँ भी पर्वत, घाटियाँ, समस्त मैदान और पठार हैं।

  एटलान्टिक महासागर के तल में तो पर्वतों की एक पूरी श्रृंखला है।  यह श्रृंखला जिसे मध्य एटलान्टिक रिज कहते हैं, लगभग 400 मीटर ऊँची तथा 65000 मीटर लंबी है जो पृथ्वी के चारों ओर एक पेटी (बेल्ट) की भान्ति है।




महासागरों के कार्य और भण्डार !

  महासागर पृथ्वी में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे संपूर्ण पृथ्वी के ताप को नियन्त्रित करते हैं। जब जल के सतह के ऊपर से वायु प्रवाहित होती है तो यह अपने साथ कुछ जल को बहा ले जाती है। पृथ्वी के घुर्णन (अपने अक्ष में घुमने) के कारण भी जल एक दिशा विशेष में प्रवाहित होता है। जल के निश्चित दिशा में इस बहाव को ही महासागरीय धाराएं कहते हैं। गहरे समुंदर में जल धारायें विभिन्न गहराई पर ताप में अंतर के कारण उत्पन्न होती है।

  ये धाराएं उष्मा को निम्न से उच्च अक्षांश की ओर संचारित करती हैं और ताप को नियन्त्रित करती हैं। इस नियंत्रण के कारण ही सागर के अंदर किन्हीं भी दो बिन्दुओं के मध्य ताप में अन्तर कभी भी 10°C से अधिक नहीं होता है।

   ये महासागर विभिन्न संपदाओं के भण्डार हैं। महासागर की तली में जीवाश्म ईंधनों के भण्डार हैं। जिन्हें उसी प्रकार प्राप्त किया जा सकता है जिस प्रकार स्थल (धरती) पर जीवाश्म ईंधन प्राप्त करते हैं।

  मैग्नीज, कोबाल्ट तथा निकिल जैसी धातुएँ समुंद्रि जल से अवक्षेपित हो जाती हैं तथा उनकी तली में नोड्यूल के रूप में एकत्रित हो जाती हैं। ये मैग्नीज नोड्यूल एक महत्वपूर्ण खनिज भण्डार है।

  इतना कुछ होने पर भी महासागर असीम गहराई और रहस्य के भण्डार हैं। अब भी वैज्ञानिकों का यह मानना है कि अंतरिक्ष का अध्ययन करना उनके लिये आसान है, पर महासागरों का अध्ययन कर पाना बड़ा कठिन है। वैज्ञानिक आज भी अन्तरिक्ष के नये-नये रहस्यों को खोजते रहते हैं परंतु महासागरों का रहस्य खोज पाना उनके लिये असंभव-सा जान पड़ता है। 

  इसका प्रमुख कारण यह है कि उनके पास आज भी ऐसी कोई टेक्नोलॉजी और संसाधन नहीं है जिससे वे महासागरों की गहराई में उतर कर पर्याप्त खोजें कर सकें। आखिर इस संदर्भ में उन्हें इतना खर्चा करना पड़ेगा जितना उनके स्पेस प्रोजेक्ट के खर्चे से 95 गुना अधिक हो, इसका अर्थ यह हुआ कि वर्तमान में यह खर्चा असीम खर्चा माना जायेगा, क्योंकि विज्ञान ने अभी भी टेक्नोलॉजी में इतनी तरक्की नहीं की है। पर संभव है भविष्य में विज्ञान तरक्की करे और यह सब होने में संभवत: अभी शताब्दियों लग जाये !

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