*क्या हमारे संविधान को हमारा धर्म होना चाहिये? (Secularism in hindi)*

 

Understanding secularism

क्या हमारे संविधान को हमारा धर्म होना चाहिये? (Secularism in hindi)

  Understanding secularism की चिंतन के अनुसार, इस 21वीं शताब्दी में किसी भी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश की जनता का धर्म क्या होना चाहिये? हम अपने दैनिक जीवन में आधुनिक गाड़ियों में चला-फिरा करते हैं, लेकिन अपने सांस्कृतिक मामलों में अब भी हम पुरानी बेलगाड़ियों में ही चलना पसंद करते हैं। 

  ऐसा क्यों ? क्या हम यह नहीं जानते कि आधुनिक गाड़ियों में चलना किसी बेलगाड़ी में चलने से बेहतर होता है। क्योंकि बेलगाड़ी में चलने का मतलब है कि हम किसी प्राणी को अब भी कष्ट और दुखों के बोझ तले घसीट रहे हैं, जो की निहायती एक गैर-इंसानियत से भरी बात है।

  हम इस लेख में जानेंगे कि एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश के लोगों का राष्ट्रीय धर्म क्या होना चाहिये और उन्हें परस्पर किस तरह का व्यवहार करना चाहिये ! :-

 Secularism in indian constitution

 इस संसार में अनगिनत धर्म और मजहब हैं। कोई क्या कहता है तो कोई क्या कहता है। जिसे जो बात पसंद आती है वो उस धर्म या मजहब को कबूल कर लेता है, अब इसमें भला किसका क्या जोर चलेगा !  धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में मनुष्य स्वतंत्र है किसी भी विचार या आस्था को उत्पन्न करने या प्रचारित करने के लिये। 

  ज्यादातर मजहबों या धर्मों की बुनियाद आज से सैंकड़ों या हजारों वर्षों पहले रखी गई थी, जिनके मानने वाले इस दुनियां में अधिकतर हैं और उन सभी को अपने-अपने धर्मों या मजहबों से प्यार है।

  यहाँ सवाल यह नहीं है कि कौन-सा धर्म या मजहब सबसे पुराना है या पहिला है। यहां सवाल यह है कि क्या लोकतांत्रिक देश की जनता ने कभी यह सोचा है कि जिन धर्म या मजहब की वे पेरवी करते हैं, क्या उनमें भी बुराइयाँ नहीं हैं ? हाँ, हर धर्म या मजहब में अगर अच्छाइयाँ हैं  तो उनमें बुराइयाँ भी हैं, जो बतौर कुरीतियों के रूप में सदियों से चली आ रही हैं। लेकिन हमें तो अपने धर्म या मजहब की बुराइयाँ देखने का मन ही नहीं होता। हमें तो दूसरों के धर्म या मजहब में बुराइयाँ ढूंढ़ने का शौक होता है। दूसरा कोई हमारे धर्म या मजहब की बुराइयों के बारे में अगर हमें बताये तो हम उसे चीर-फाड़ खाते हैं। लेकिन हम खुशी-खुशी दूसरे के धर्म या मजहब की निंदा करते हैं। अपने धर्म की रक्षा के नाम पर हम हरसंभव अमानवीय काम करते हैं और फिर भी यह कहते-फिरते-रहते हैं कि हम धार्मिक लोग हैं !

  इतिहास या अतीत की जिन बातों को हमने कभी देखा नहीं, जाना नहीं और ढंग से समझा ही नहीं, उन बातों को लेकर हम एक-दूसरे से लड़-झगड़ पड़ते हैं। खाली इस विश्वास से कि ये बात हमारे धर्म-ग्रंथ में लिखी गई हैं जो उस ईश्वर की ओर से है या ऋषियों के द्वारा लिखी गईं हैं। जबकि हममे से किसी ने न तो उस ईश्वर को ही देखा है और न ही पेगंबरों या ऋषियों से मुलाकात ही की है, तो भी इस खाली विश्वास के साथ, कि यह हमारी आस्था के बिन्दु हैं, हम उस पर विश्वास करके दूसरी तमाम आस्थाओं को छोटी-दृष्टि से देखते रहते हैं। 

  प्रचारक मजहबों में जितना प्रेम झलकते हुये दिखाई देता है उतना ही उनमें दूसरे धर्मों के लिये तंगदिली और तंगखयाल्ति भरी पड़ी रहती है, जो समय-समय पर मजहबी-आतंक में भी तबदील होती रहती है।  गैर-प्रचारक धर्म जितने कर्मकांडी और भक्तिहीन होते हैं उतने ही उनमें अपने धर्म की प्राचीनता और वैज्ञानिकता को लेकर घमंड भरा हुआ होता है, और इस घमंड में वे भक्तिमय अथवा भक्तिमार्ग में चलने वाले प्रचारक मजहबों का पुरजोर विरोध करते हैं और उन्हें सताया भी करते हैं। 

  उपरोक्त ये सभी मजहब या धर्म अतीत की पैदाईश हैं। अतीत ने इन्हें पैदा किया है। अतीत के वक्त में उन लोगों में सुधार करने और इंसानियत की भावना से भरने के लिये। लेकिन हम उन मजहबों और धर्मों की भावनाओं को नहीं समझते। हमें तो आदत हो गई है उस बीते जमाने के हिसाब से उनमें बताये संस्कृति और परंपरा को फॉलो करने की। हम मजहब या 'धर्म के मर्म' को भूल गये हैं या समझते ही नहीं। हम तो बस परंपराओं, रीत-रीवाजों को ही अपना धर्म मान बैठे हैं और जो कोई उनके खिलाफ जाता हो, उसकी बस खैर-नहीं !

  अब ऐसी स्थिति में धर्म या मजहब कहाँ है ? वे तो सिर्फ एक डकोसला बन कर रह गये हैं, जो वर्तमान की हमारी पीढ़ी के लिये बस एक बोझ बन कर रह गये हैं; ये एक ऐसी गाड़ी के समान बन गये हैं जो चलते तो हैं हमें साथ लेकर, पर वे आधुनिक नहीं बल्कि एक बेलगाड़ी जैसे हैं, जो बस, उस बेल को दुख और कष्ट ही देते हैं। 

  "धर्म या मजहब उस पुरातन-गाड़ी के समान हैं जो खुद अपने-आप से नहीं चलते वरन उस गाड़ी के आगे लगे बेल के समान मनुष्य के द्वारा ही चलते हैं। हाँ, धर्म या मजहब की पुरातन गाड़ी को खींच कर चलाने वाला बेल 'इंसान' ही है, जो वाकेई में एक बेल की तरह ही है। बेल का खुद का दिमाग नहीं होता कि क्या करना है, कहाँ जाना है। धर्म या मजहब की गाड़ी में पीछे जो सवार होता है वही धर्माधिकारी उसे कोडे मार-मार कर अपनी इच्छा से चलाता-फिरता है। इस संदर्भ में इंसान एक गदे से भी बदत्तर एक बेल के समान है !"

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 धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र का संविधान ही हमारा धर्म है !

  इस आधुनिक युग में हमारा धर्म क्या होना चाहिये ? धर्म की अगर और गहरी परिभाषा में झांका जाये तो इसका अर्थ होता है कि समय, काल और परिस्थिति के अनुसार धारण करना अथवा ढ़लना। क्योंकि धर्म जड़ होना या सदा के लिये आरूढ़ होना ही नहीं होता वरन धर्म जीवन है और जीवन किसी बहती नदी के समान है। इसलिये खास करके धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में तो वहाँ का संविधान ही लोगों का सर्वोच्च धर्म होना चाहिये। क्योंकि यह धर्म किसी ईश्वर की ओर से किसी संदेशवाहक के हाथों  नहीं भेजा गया है और न ही किन्हीं ऋषियों ने तप करके इसे स्वर्ग से पाया है, वरन यह धर्म हम लोगों ने ही हमारी पीढ़ाओं और हालतों को मध्यनजर रखते हुये ही बनाया है ताकि हम जीवन में प्रगति और शान्ति की धारा में आगे की ओर बह सकें, न की सदैव पीछे की ओर अटके रहें। 

  धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक संविधान वह सर्वोच्च-धर्म है जो लोगों को आस्था की आजादी देता है, जीवन की आजादी देता है - बिना किसी दूसरे मजहब या धर्मों को आघात किये। अपने-अपने धर्म या मजहबों की बुराइयों (गलत-पक्ष को) को देखते हुये तो हमारी आंखें खुलनीँ चाहियें कि वाकेई में अगर 'धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक संविधान' न होता तो आज भी हम अपने ही धर्म में किसी न किसी रीति अपमानित होते, छोटे होते या फिर अपने ही मजहब में कट्टरता के शिकार होते। 

  हम जो अपने-अपने धर्म या मजहबों की ढींगे मार रहे हैं और उनकी बढ़चढ़ कर प्रशंसा कर रहे हैं, और दूसरे धर्म या मजहबों की निंदा, तो यह इसलिये संभव हो पा रहा है क्योंकि हमारे देश का संविधान धर्मनिरपेक्ष है अन्यथा हम यह सब भी न कर पाते और दुबक कर बैठे पड़े होते धर्माधिकारियों (धर्म के ठेकेदारों) के पाँव तले।

 सारांश 

  Understanding secularism की  समझ के अनुसार, हर इंसान को अपना धर्म या मजहब प्रिय है, पर उन्हें अपनी आधुनिक गाड़ियों के समान धर्म या मजहब रूपी बेलगाड़ियों को अब छोड़ देना चाहिये, या फिर उस बेलगाड़ी में बेल को (खुद को) हटा देना चाहिये और उसमें आगे की तरफ धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक संविधान रूपी इंजन को लगा देना चाहिये, ताकि पीछे सवार धर्माधिकारी उसे अपने हिसाब से न हाँक सकें। 

 

Understandin secularism

  सबसे बड़ी खुशी और महानता की बात यह है कि उस अज्ञात ईश्वर की इच्छा से, जिसे हम काल, समय या विधाता कहते हैं इस मानव-जगत में 'लोकतंत्र' उत्त्पन्न हुआ, और फिर उससे भी बड़ी खुशी की बात है कि लोकतंत्र मे ही 'धर्मनिरपेक्षता' का सिद्धान्त प्रकट हुआ ! और जिन महापुरूषों ने लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता को प्रकट किया वही लोग सही मायने में उस अज्ञात ईश्वर के सच्चे पेगंबर और ऋषि हैं।

  आज उस विधाता (काल या समय) की इच्छा यही है कि हम धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के संविधान को ही अपना सर्वोच्च-धर्म माने, और इसी ज्ञान और धारणा को ध्यान में रखते हुये परस्पर व्यवहार करें।

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