*इन्क्वीजिशन, ईसाई धर्म के बारे में !*

 *इन्क्वीजिशन, ईसाई धर्म के बारे में !

  दुनियां के सबसे उदार और प्रेम प्रदर्शित करने वाले मजहब का ऐतिहासिक अतीत ऐसा भी रहा होगा यह जान कर बड़ा ही ताज्जुब होता है। जी हाँ, यहां बात हो रही है ईसाइयत की। ईसाइयत का अतीत बहुत करके कड़वाहाट और बर्बरता (इन्क्वीजिशन) से भरा हुआ था, जिसके बारे में आज के किसी इन्सान को शायद ही मालूम हो ! पर *ईसाई धर्म के बारे में , यह जानने के लिए  इस लेख का मकसद किसी धर्म-संप्रदाय को नीचा दिखाना नहीं है बल्कि कुछ ऐतिहासिक सच्चाइयों को उजागर करना है, जिससे वर्तमान के लोगों को धर्म की सही राह पर चलने के लिये अभिप्रेरित किया जा सके।  इस लेख में हम जानेगे कि किस तरह एक कोमल और प्रेमी मजहब देखते ही देखते एक खुंखार मजहब बन गया। 

  रोमन साम्राज्य में ईसाइयत के प्रति विश्वास कम हुआ था !

  13हवीं शताब्दी में रोमन साम्राज्य राजनीतिक रूप से बहुत अस्थिर हो चुका था। मजहब के मामले में भी यहां गड़बड़ की शुरुआत हो चुकी थी। लोग ईसाइयत के प्रति उतने श्रद्धालु नहीं रह गये थे, और न ही वे ईसाई-संघ के हुक्मों को ही उतना मानते थे। यह सब इसीलिये हुआ क्योंकि लोग क्रूसेडों के युद्धों से पहले ही दुखी हो चुके थे, और साथ ही 'मिलेनियम-वर्ष' में (1000 ईसवी में) प्रभु-यीशु+मसीहा वापिस लौट कर उन्हें लेने नहीं आया था। इसके अलावा लोग ईसाई पादरियों के भोग-विलासी जीवन से भी नाराज थे, जिससे उन्हें लगने लगा की वे एक गलत मजहब पर श्रद्धा रख कर अपना जीवन व्यर्थ कर रहे हैं। इन्ही सब कारणों की बजह से लोग मजहबी मामलों में शंकालु होने लगे, और शंका मजहबी मामलों में एक खतरनाक चीज होती है।

  ईसाई-संघ का जो रूप बन गया था उससे पूरी तरह राजी न होने की वजह से लोग कुछ ढीलमिल तौर से और धीरे-धीरे रोशनी की खोज में दूसरी तरफ नजरें दौड़ाने लगे। ईसाई-संघ ने बदले में जोर-जबर्दस्ती शुरु कर दी और आतंक के तरीकों से लोगों दिमागों पर कब्जा कायम रखना चाहा। उसे यह ख्याल नहीं रहा कि आदमी का दिमाग बहुत नटखट होता है और शारीरिक बल इसके खिलाफ बहुत कमजोर हथियार है। उसने कोशिश यह की कि लोगों और समूहों की अंतरात्मा की बेकरारियों का गला घोट दे। उसने शंका का जवाब तर्क और दलील से देने की बजाय डंडे और सूली से देने की कोशिश की। 

 रोमन ईसाई संघ ने सच्चे ईसाई संप्रदायों को नष्ट किया।

 सबसे पहले 1155 ईसवी में ब्रेशिया के आर्नोद पर इनका गुस्सा फूटा। क्योंकि यह इंसान भ्रष्ट ईसाइयत और भ्रष्टाचारी पादरियों की निंदा करता था। ईसाई-संघ ने इस निर्दोष इंसान को झूठे दोष लगा कर फांसी पर टंगा दिया और फिर उसकी लाश को जला कर उसकी राख को ताइबर नदी में फिंकवा दिया।

  रोमन ईसाई-संघ ने उस हर ईसाई-संप्रदाय के विरुद्ध धर्म-युद्ध की घोषणा कर दी जो मजहबी मामलों में कम कट्टर और सही मार्ग पर थे।   

  इन्हीं दिनों एक महान इंसान हुआ था जिसे लोग 'असीसी का फ्रांसिस' कहते हैं। यह एक बड़ा धनवान आदमी था। लेकिन इसने अपनी दौलत त्याग कर गरीबी का व्रत लिया और बीमारों और गरीबों की सेवा के लिया दुनियां में निकल पड़ा।  चूँकि उस जमाने में कोढ़ी सबसे ज्यादा दुखी और बे-सहारा थे, इसलिये वह उनकी सेवा में खासतौर पर लग गया। इसी आदमी ने एक संघ चलाया, जिसे संत-फ्रांसिस का संघ कहते हैं। इसने अपने संघ के जरिये इंसानियत की बखूबी सेवा की। इसकी और इसके संघ की कद्र उस वक्त पूरे जमाने में थी। मुसलमान लोग भी इस नेक और प्यार के काबिल इंसान की बहुत इज्जत किया करते थे। मगर फिर रोमन ईसाई-संघ को इसकी इंसानियत की सेवा और गरीबों पर ज्यादा ध्यान देने का सिद्धांत रास न आया। रोमन ईसाई-संघ का कहना था कि कोई गरीब या दुखी सिर्फ ईश्वर को अप्रसन्न करके ही होता है, इसलिये इंसान को ईश्वर की सेवा करनी चाहिये, लोगों की नहीं। इस कारण 1318 ईसवी में फ्रांसिस-संघ के चार साधुओं को काफीर (अविश्वासी) करार दिया गया जाकर मार्साई में जिंदा जला दिया गया।

 ईसाइयत में दोमिनिक और इन्क्वीजिशन का आतंक

 ईसाइयत में दोमोनियन-संघ मजहबी मामलों में हद से ज्यादा एक कट्टर संप्रदाय था। इनके सामने बाईबल के पुराने नियम की मूलभूत आज्ञाओं का पालन करना ही सर्वोपरी था। अगर कोई सीधी तरह इन बातों को न समझे तो उसे मार-मार कर समझाया जाता था।

 1233 ईसवी में 'इन्क्वीजिशन ' कायम करके ईसाई-संघ ने बाकायदा और सरकारी तौर पर मजहब में हिँसा का राज कायम कर दिया। यह एक किस्म की अदालत थी, जो लोगों के ईमान के कट्टरपन की जाँच करती थी और अगर इसकी राय में वे जाँच में पूरे नहीं उतरते तो मामूली तौर पर उन्हें जिंदा जला दिये जाने की सजा दी जाती थी। 'अविश्वासियों (काफिरों)' को बाकायदा ढूँढ-ढूँढ कर पकड़ा गया और उनमें से सैंकडों को जिन्दा जला दिया गया। जिंदा जलाने से भी ज्यादा बुरी बात यह थी कि लोगों से प्राश्चीत कराने के लिये उन्हें भयंकर यातनायें दी जाती थीं। बहुत-सी गरीब अभागी औरतों पर डायने होने का झूठा आरोप लगाया जाता था और वे जला दी जाती थीं। 

 पोप के फतवों ने मानवता का सत्यानाश किया !

  पोप ने एक 'फतवा' जारी किया, जिसमें हरेक आदमी को मुखबिर बनने का हुक्म दिया गया। पोप ने रसायन-विज्ञान के खिलाफ फतवा दे दिया और इसे शैतानी हुनर करार दिया।  और ताज्जुब यह है कि ये तमाम अत्याचार और आतंक सच्चे विश्वास के साथ किये जाते थे। इनका विश्वास यह था कि किसी आदमी को जिन्दा जला कर वे उसकी आत्मा को या दूसरों की आत्माओं को पापों से बचा रहे हैं !  

  मजहबी लोगों ने अकसर अपनी बात दूसरों से जबर्दस्ती मनवाने की कोशिश की है,  उन्होंने अपने विचार जबर्दस्ती दूसरों के गले में उतारे हैं, और वे समझते रहे हैं कि वे जनता की सेवा कर रहे हैं। ईश्वर के नाम पर इन्होने लोगों को मारा है और हत्यायें की हैं। और 'अमर-आत्मा' को बचाने की बात करते हुये इन्होने नाशवान शरीर को जलाकर राख कर देने में जरा भी संकोच नहीं किया है।  मजहब का लेखा बड़ा खराब रहा है, पर जल्लादी बेरहमी में 'इन्क्वीजिशन' को मात करने वाली कोई चीज आज तक दुनियां में मेरे ख्याल से नहीं हुई है।  और फिर भी यह अचंभे की बात है कि ऐसी हरकतों के लिये जिम्मेदार लोगों में से बहुतों ने यह काम अपने नीजि फायदे के लिये नहीं बल्कि इस पक्के विश्वास से किया कि वे सही चीज कर रहे हैं।

ईसाई-संघ की कड़ी आलोचना और उसका दो गुटो में बंट जाना !

  वाईक्लिफ नामक एक अंग्रेज पादरी ने ईसाई-संघ की कड़ी आलोचना की। यह आकस्फोर्ड विश्वविद्यालय में एक प्रोफेसर था। इसी ने सबसे पहले बाईबल का अंगेजी भाषा में अनुवाद किया था। इसके मरने के बाद ईसाई-संघ ने इसकी कब्र से इसकी अस्थियों को निकाल कर जलवा दिया था। पर ईसाई-संघ इसके अच्छे विचारों को न जलवा सके, और इसके विचार तेजी से फैलने लगे। बोहेमिया में जो अब चेकोस्लोवाकिया कहलाता है, इसके विचारों की लहर से जानहस बहुत प्रभावित हुआ। जो बाद में प्राग-विश्वविद्यालय का कुलपति हुआ था। जान की अपने देश में बहुत इज्जत थी। जान के विचारों को पोप ने छेक दिया और उसे ईसाइयत के खिलाफ कहा। पर बावजूद इसके ये जान का कुछ न बिगाड़ सके। क्योंकि यह अपने ईलाके में बहुत मशहूर था।

  किन्तु ईसाई-संघ और पोप ने एक षडयंत्र के द्वारा इसे पकड़ लिया और इसे ईसाई-संघ के खिलाफ अपनी गलती कबूल करने पर दबाब डाला गया। परंतु अपने ईमान और सच्चाई में अडिग जान ने पीडादायक भयंकर मृत्युदंड को कबूल किया बनिस्बत इसके की वह झूठे मजहब के आगे घुटने टेके।

  जानहस का बलिदान बेकार नहीं गया। इस चिंगारी ने बोहेमिया में उसके पीछे चलने वालों में विद्रोह की आग जला दी। पोप ने इन लोगों के खिलाफ ईसाई-जिहाद की घोषणा कर दी। 

  जिहाद सस्ती चीज है; उसमें कुछ खर्च नहीं होता है और ऐसे बदमाशों और मौकापरस्तों की कमी नहीं थी, जो उससे फायदा उठाते थे। जैसा की H.G.Vails ने लिखा है कि 'बेगुनाह लोगों पर महा-भयंकर अत्याचार किये गये।' लेकिन जब जानहस के अनुयायियों की फौज अपना कड़खा गाती हुई सामने आई, तो ये जिहादी रफूचक्कर हो गये। जिस रास्ते से ये आये थे उसी रास्ते तेजी से भाग खड़े हुये। जब तक बेगुनाह देहातियों को मारना और लूटना संभव था, इन जिहादियों ने खूब सैनिक जोश दिखाया, लेकिन संगठित सेना के आते ही वे भाग खड़े हुये।

  इस तरह निरंकुश और अपने खास विचारों को ही माननेवाले मजहब के खिलाफ बलवों और विद्रोहों का सिलसिला शुरु हुआ, जो आगे चलकर सारे यूरोप में फैले और जिन्होने उसे दो विरोधी दलों में बाँट दिया और जिन्होंने आगे चलकर ईसाइयत के,'कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट', दो टूकड़े कर दिये।


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