*अब की बार किसकी सरकार ? (2024 में प्रधान-मंत्री कौन ?)*

 


 अब की बार किसकी सरकार ? (2024 में प्रधान-मंत्री कौन ?)

 अब की बार सरकार किसकी ?, 

 और *2024 में कौन प्रधानमंत्री बनेगा ? 

 यह सवाल हर भारतीय के मन में अभी से उठ रहा होगा। बहुत से लोग यह कह रहे होंगे कि BJP ने अपने वायदे पूरे नहीं किये, इसलिये काँग्रेस की सरकार बननी चाहिये। तो कुछ कह रहे होंगे, नहीं, आप पार्टी की सरकार बननी चाहिये, क्योंकि यह पार्टी अभी बहुत उत्त्साहित है और कोई भी जनविरोधी काम नहीं करना चाहेगी। इन सबके बावजूद भी बहुत-से लोग ऐसे होंगे जो अब भी यह कह रहे होंगे की BJP की सरकार ही केन्द्रीय सत्ता में आनी चाहिये, क्योंकि इस पार्टी ने बहुत-से बड़े-बड़े काम किये हैं जो आज तक किसी भी राजनीतिक-पार्टीज ने नहीं किया है। 

 फिलहाल इन सब तरह के लोकविचारों को ध्यान में रखते हुये हमें यह जानने की और समझने की कोशिश करनी चाहिये कि वास्तव में हमारे विचार और मत कहाँ तक लोकतांत्रिक रूप से तार्किक हैं!

  राजनीतिक-पार्टीज के वायेदे

   कोई भी राजनीतिक-पार्टीज हों, वे अपने सिद्धांतों और कार्यों में जनकल्याण की बातों को लेकर के सत्ता में काबिज होने की चेष्ठा करती है। परंतु सत्ता में आने के बाद वे अपने वायदों पर खरी नहीं उतर पातीं, या यूँ कहें की बिल्कुल भी वायदों को निभा नहीं पातीं।

  ऐसा क्यों ? ऐसा इसलिये होता है क्योंकि हमारे संविधान में इस संदर्भ में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की गई है जिससे जनता स्वयं सरकार को खरे काम न कर पाने पर आड़े-हाथों ले सके। आड़े-हाथों लेने का कार्यभार केवल संसद और विधानसभाओं के सुपुर्द कर दिया गया है।

  संविधानिक व्यवस्था के अनुसार जो भी राजनीतिक-पार्टी सत्ता में आती है, यदि वह अपने कार्यों को सही तरह से न करे तो विपक्षी पार्टी उस सरकार को गिराने के लिये संसद या विधानसभा में उस सरकार के खिलाफ अविश्वास मत को इक्कठा करने की कोशिश करती है। यह प्रक्रिया संवैधानिक है और दिखने में एक बेहतरीन व्यवस्था लगती है।

 यदि यह व्यवस्था एक बेहतरीन व्यवस्था होती, तो क्योंकर सरकारें अपनी मनमानी करती आती हैं और विपक्षी दल भी उनका कुछ बिगाड़ नहीं पाती ? 

  क्या इस संदर्भ में हमने कभी सोचा ? नहीं न ? यदि नहीं सोचा तो अब हमें इस संदर्भ में सोचना चाहिये। हमें सोचना चाहिये कि कहाँ हम लोग या संसद या विधानसभाओं के सदस्यगण कमजोर पड़ जाते हैं। सत्ता में काबिज पार्टी अपनी मनमानी करती जाती है-करती जाती है और जनता या विपक्षी पार्टी सिवाए निंदा करने के कुछ नहीं कर पाते। यह बात अलग है की भविष्य में भी यही सत्ता-आरूढ़ पार्टी सत्ता में पुन: आये !

  हम भारतीय लोग लोकतंत्र के होते हुये भी दुखों से मुक्त होने के लिये पूरे पाँच-वर्ष तक इन्तजार करते रहते हैं कि कब यह सत्ता में आरूढ़ पार्टी का कार्यकाल समाप्त होगा और हम एक दूसरी पार्टी की सरकार को चुनेंगे। ऐसा करते-करते हम पूरे पाँच-वर्षों तक उस सत्ता-आरूढ़ सरकार के अन्यायों और जबरन-कार्यों को सिवाए सहने के और निंदा करने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर पाते। इसके बाद भी दूसरी पार्टी की सरकार को भी पूरे विश्वास के साथ जब चुनते हैं तो वह भी अपने कार्यकाल में दगेबाज निकल जाती है। 

 यही सिलसिला लगभग 72 वर्षों से भारतीय सरकारों में चला आ रहा है। और हम सभी सब कुछ जान और समझ कर भी मंदबुद्धियों की तरह बैठे रहते हैं, कुछ सोच-विचार कर नई युक्तियाँ नहीं निकाल पाते। हम यह सोच कर चुप बैठे रहते हैं की स्ंविधान तो लिख दिया गया है, इसमें जैसी व्यवस्था दी गई है वे मान्य है।  किन्तु हम यह नहीं सोचते कि निसन्देह, संविधान लिखित है, परंतु हम जो जनता हैं वो किसी कागज के लेख नहीं बल्कि जीते-जागते, सुख-दुख का एहसास करने वाले इंसान हैं। 

  हमने ही यह संविधान लिखा हैं, तो हमें ही चाहिये की हम ही इस संविधान की कमियों को भरें। हमें भारतीय संविधान को एक नई दिशा देनी चाहिये। हमें इसे जड़ नहीं वरन सजीव बनाना चाहिए, परिस्थितियों और हालतों के मुताबिक सक्रिय संविधान बनाना चाहिये। तो इसके लिये हमें क्या करना चाहिये ? इसका समाधान बतौर एक सुझाव के रूप में निम्न है:-


सरकार के वायदों पर केवल जनता की पकड़ हो

  जब कभी कोई राजनीतिक पार्टी सत्ता में आने के लिये जनता से जो-जो लुभावने वायेदे करती हो, तो जनता को संवैधानिक रूप से ऐसी व्यवस्था तय करनी चाहिये जिससे उन लुभावने वायदों की पकड़ केवल उन्हीं के हाथों में हो, न की संसद या विधानसभाओं के।

  वैसे तो इस तरह की व्यवस्था प्रत्यक्ष-लोकतंत्र में की जाती है, मगर फिर भी हमें कोई न कोई ऐसी युक्ति तो बनानी ही चाहिये जिससे Recall की शक्ति अप्रत्यक्ष-लोकतंत्र में भी प्रत्यक्ष-रूप से जनता के हाथों में हो। इस संदर्भ में संविधान में कुछ संशोधन करने की जरुरत जान पड़ती है तथा इसे व्यवहार में लाने के लिये सर्वोच्च न्यायालय और चुनाव आयोग के हाथों अधिकार-शक्ति सुपुर्द कर दी जानी चाहिये।

  संविधान में कोई ऐसी 'प्रक्रिया की व्यवस्था' की जानी चाहिये, जिससे वायेदे पूरे न हो पाने पर जनता स्वयं उसी सरकार के कार्यकाल के दौरान हस्तक्षेप कर उस सरकार को सत्ता से हटा सके अथवा उस सरकार को रिकाल (Recall) कर सके। Recall की इस प्रक्रिया में -

  *संशोधित संविधानिक व्यवस्था

  *सर्वोच्च न्यायालय 

  *और  चुनाव आयोग

  का ही हस्तक्षेप होना चाहिये। क्योंकि विगत 70 वर्षों से हमारे देश में विपक्षी पार्टीज जनता की ऐसी दयनीय हालतों के लिये सरकारों से खरी तरह से लड़ नहीं पाईं। यदि लड़ भी पाईं हों, तो भी इस तरह की दयनीय हालतों का परमानेंट निबटारा नहीं कर पाईं। 

  इसलिए हर लोकतांत्रिक-देशों के बुद्धिजीवी-वर्ग को यह चाहिये कि वे इस तरह की कोई न कोई संवैधानिक व्यवस्था बनाये जिससे विभिन्न राजनीतिक पार्टीज के मध्य के टकराव सदा के लिये समाप्त हो जायें। उनके बीच कोई किसी तरह की प्रतिस्पर्धा न हो, और न ही संसद या विधानसभाओं में गुटबाजी या विपक्षी पार्टी का ही अस्तित्व हो।

  वहां पर केवल राजनीतिक पार्टीज हों, जो केवल जनकल्याण की भावना से सत्तारूढ़ पार्टी की सहयोगी हों तथा उस पर गंभीर मामलों में अंकुश लगाने वाले हों।

  अप्रत्यक्ष-लोकतंत्र सही मायने में तभी सफल होगा जब Recall की शक्ति पंचभुजों अर्थात - संविधान, जनता, सर्वोच्च न्यायालय, चुनाव आयोग एवं प्रेस के हाथों में हो।

 तभी जाकर सरकार एक आदर्श सेवक की भाँति लोकतंत्र में कार्य करेगी और जनता से किये अपने हर वायदों को अपने कार्यकाल में पूरा भी करेगी। 

  इस संदर्भ में देश की सभी जनता को चिंतन कर आगे कदम उठाने की जरुरत है।  देश के बुद्धिजीवी वर्ग को कुछ युक्ति करनी चाहिये। उन्हें कुछ प्रारूप तैयार कर आवश्यक रूप से संविधान में संशोधन कर ऐसी 'प्रक्रिया की व्यवस्था ' करनी ही चाहिये। अन्यथा यह सवाल खुद से और दूसरों से करते फिरना की *2024 में कौन प्रधानमंत्री बनेगा ?  एक  व्यर्थ  सवाल  होगा !

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