*क्या धर्मों में सच्चाई है ? (एक वैज्ञानिक विश्लेषण !)*

 क्या धर्मों में सच्चाई है ? (एक वैज्ञानिक विश्लेषण !)

    dharm kya hai :- हम देखते हैं कि भारत और चीन से लेकर ईरान और यूनान तक भिन्न-भिन्न देशों में अनेक महापुरूष, बड़े-बड़े विचारक और धर्म-प्रवर्तक छठी शताब्दी ईसा पूर्व में मिले हैं। वे सब बिल्कुल एक ही समय में नहीं हुये, लेकिन उनका समय एक-दूसरे से इतना निकट था कि ईसा से पहले की छठी सदी का यह जमाना एक बड़ा रोचक युग बन गया है। ऐसा मालूम होता है कि उस समय सारी दुनियाँ  में विचारों की एक लहर उठ रही थी - लोगों के दिलों में जमाने की परिस्थिति से असंतोष और कोई बेहतर चीज प्राप्त करने की आशा व लालसा उमड़ रही थी। हमें हमेशा यह याद रखना चाहिये कि धर्मों के संस्थापक हमेशा किसी बेहतर चीज की खोज में रहते थे और अपने देश की जनता को सुधारने और ऊंचा उठाने और उसकी मुसीबतों को कम करने की कोशिश करते रहते थे। ऐसे लोग हमेशा क्रान्तिकारी रहे हैं और उस समय की बुराइयों पर हमला करने में जरा भी नहीं डरे हैं। जहाँ कहीं पुरानी परंपरा गलत रास्ते पर जाती हुई दिखाई दी, या उसके कारण आगे की उन्नति रूकती हुई मालूम पड़ी, कि उन्होने निडर होकर उस पर हमला किया और उसे मिटा दिया। और सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होने एक उच्च जीवन का एक नमूना पेश किया, जो असंख्य लोगों के लिये पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक आदर्श और प्रेरणा बन गया।

 ईसा के पहले की छठी शताब्दी में धर्म

 भारत में, ईसा से पहले की उस छठी सदी में, बुद्ध और महावीर पैदा हुये; चीन में कन्फ्यूशस और लाओ-त्से; ईरान में जरथुस्त या जोरास्टर और सामोस के यूनानी टापू में पाइथागोर। यह वही पाइथागोर है जिसने गणित में रेखागणित का आविष्कार किया है। पाइथागोर एक महान विचारक भी था।

 ईरान का जरथुस्त जोरास्टर धर्म का संस्थापक कहा जाता है। पर वास्तव मे जरथुस्त ने ईरान के पुराने विचारों और मजहब को एक नई दिशा की ओर मोड़ा और उन्हें नया रूप दिया। एक लंबे अरसे से यह मजहब ईरान से बिल्कुल उठ सा गया था। जो पारसी लोग बहुत पहले ईरान से भारत चले आये, वे अपने साथ इस मजहब को भी लेते आये और तब से बराबर उसी को मानते आ रहे हैं।

 चीन में इसी जमाने में दो महापुरुष हुये - कन्फ्यूशस और लाओ-त्से। कन्फ्यूशस का नाम ज्यादा सही तरीके से कुंग-फू-त्से लिखा जाता है। साधारण अर्थों में इन दोनों में से किसी को भी धर्म-संस्थापक नहीं कह सकते। इन्होंने नीति और सामाजिक व्यवहार के नियम बनाये और यह बताया कि आदमी को क्या करना चाहिये और क्या नहीं। लेकिन इनकी मृत्यु के बाद चीन में इनकी यादगार में बहुत से मन्दिर बनाये गये और इनके ग्रंथों का चीनी लोग वैसा ही आदर करते हैं, जैसा हिन्दू वेदों का और ईसाई बाईबल का। कन्फ्यूशस की शिक्षा का एक परिणाम यह हुआ कि उसने चीनियों को संसार में सबसे ज्यादा विनयशील, पूरे शिष्टाचारी और सुसंस्कृत बना दिया।

 भारत में महावीर और बुद्ध हुये। महावीर ने आजकल का प्रचलित जैन धर्म चलाया। इनका असली नाम वर्द्धमान था। महावीर तो उन्हें दी गई महानता की एक पदवी है। जैन लोग ज्यादातर पश्चिमी भारत और काठियावाड़ में रहते हैं और आजकल इनकी गिनती हिन्दूओं में की जाती है। काठियावाड़ और राजस्थान में आबू पहाड़ पर इनके बड़े सुन्दर मन्दिर पाये जाते हैं। अहिंसा में इनकी बड़ी श्रद्धा है और ये ऐसे कामों के बिल्कुल विरुद्ध हैं जिनसे किसी भी जीव को तकलीफ पहुँचे। 

 यूनान के पाइथागोर भी एक कट्टर शाकाहारी थे। उन्होने अपने शिष्यों और चेलों के लिये भी यह नियम बना दिये थे कि कोई मांस न खाये।

 इधर गौतमबुद्ध एक क्षेत्रिय थे और एक राजवंश के राजकुमार थे। सिद्धार्थ उनका नाम था। उनकी माता का नाम महारानी माया था। प्राचीन जातक-कथा में लिखा है कि महारानी माया "दूज के चंद्रमा की तरह उल्लास के साथ पूजनीय, पृथ्वी के समान दृढ़ और स्थिर-निश्चयवाली और कमल का समान पवित्र हृदयवाली थी"।

  गौतमबुद्ध और उनका धर्म (bodh dharm)

  'मृगदाव' में गौतम बुद्ध ने अप्ने सिद्धाँतों का प्रचार शुरु किया। उन्होने 'अष्टांग-मार्ग' का उपदेश दिया। देवताओं के नाम पर सब तरह की बलि की उन्होने निंदा की और इस बात पर जोर दिया कि उन बलिदानों के बजाय मनुष्य को अपने क्रोध, द्वेष, ईर्ष्या और बुरे विचारों की बलि देनी चाहिये।

 बुद्ध के जन्म के समय, भारत में पुराना वैदिक धर्म प्रचलित था। लेकिन वह बहुत बदल गया था और अपने ऊंचे आदर्शों से नीचे गिर चुका था। ब्राह्मण पुरोहितों ने तरह-तरह के कर्म-काण्ड, पूजा-पाठ और अन्ध-विश्वास जारी कर दिये थे, क्योंकि पूजायें जितनी बढ़ीं पुरोहितों को उतना ही अधिक फायेदा पहुँचता है। जाति का बंधन बहुत कड़ा होता जा रहा था और आम लोग शकुन, मन्त्र-तन्त्र, जादू-टोने और धूर्तों से डरते थे। इन तरीकों से पुरोहितों ने जनता को अपनई मुट्ठी में कर रक्खा था और क्षेत्रिय राजाओं की सत्ता को चुनौती देने लगे थे। इस तरह क्षेत्रियों और ब्राह्मणों में संघर्ष चल रहा था। उसी समय बुद्ध एक बहुत बड़े लोकप्रिय सुधारक के रूप में प्रकट हुये और उन्होने पुरोहितों के इन अत्याचाओं पर, और पुराने वैदिक धर्म में जो बुराइयाँ घुस आईं थीं उन सब पर, हमला बोल दिया। उन्होने सदाचारी जीवन बिताने और भले काम करने पर जोर दिया और पूजा-पाठ वगैरा का निषेध किया। उन्होने अपने अनुयाई भिक्षु और भिक्षुणियों की एक संस्था 'बौद्ध-संघ'का भी संगठन किया।

 कुछ दिनों तक संप्रदाय के रूप में बौद्ध-धर्म का प्रचार भारत में बहुत नहीं हुआ। मगर फिर यह भारत के बनिस्बत विदेशों में अधिक फैला और भारत में एक अलग संप्रदाय के रूप में यह करीब-करीब मिट-सा गया। जहां लंका से लेकर चीन तक दूर-दूर के मुल्कों में यह धर्म सर्वोपरी हो गया, वहां अप्नी ही जन्मभूमि भारत में यह फिर ब्राह्मण-धर्म या हिन्दू-धर्म में समा गया। लेकिन ब्राह्मण-धर्म पर इसका बहुत बड़ा असर पड़ा और इसने हिन्दू-धर्म में से बहुत-से अन्ध-विश्वास और पाखण्ड हटा दिये।

  धर्म के मामलों में आजकल की हालतें

  आजकल दुनियां में बौद्धधर्म के मानने वालों की संख्या ईसाइयत और इस्लाम के बाद तीसरे नम्बर पर है। इनके अलावा यहुदी, सिख, पारसी वगैरह दूसरे मजहब भी हैं। तमाम मजहबों और उनके संस्थापकों ने दूनियां के इतिहास में बहुत बड़ा हिस्सा लिया है, इसलिये इतिहास पर गौर करते समय इनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। लेकिन मजहबों के बारे में कुछ लिखते हुये कुछ दिक्कत होती है। इसमें शक नहीं कि बड़े-बड़े मजहबों के संस्थापक दूनियां के महान-से-महान और ऊंचे-से-ऊंचे व्यक्ति हुये हैं। लेकिन उनके शिष्य और बाद के अनुयायी न तो महान ही निकले और न नेक ही। 

 इतिहास में हम अक्सर देखते हैं कि जिस धर्म का उद्देश्य हमें ऊंचा उठाना और बेहतर और नेक बनाना है, उसी ने लोगों से जानवरों जैसा व्यवहार कराया है। लोगों में ज्ञान की रोशनी फैलाने के बजाये धर्म ने उन्हे अक्सर अंधरे में रखने की कोशिश की, उदार-हृदय बनाने की बजाय अक्सर लोगों को तंग-दिल और दूसरों के प्रति अहिश्नु बना दिया। धर्म की खातिर बड़े-बड़े महान और शानदार काम किये गये, लेकिन धर्म के ही नाम पर लाखों हत्यायें हुईं हैं और हर तरह के संभव कुकर्म भी किये गये हैं।

 ऐसी हालत में यह सवाल उठता है कि धर्म के मामले में कोई क्या रुख अपनाये ?

 कुछ लोगों के लिये धर्म का मतलब है - परलोक; फिर उसे स्वर्ग, वैकुण्ठ या बहिश्त चाहे जो कुछ कहा जाये। स्वर्ग में जाने की लालसा से लोग धर्म का पालन करते हैं या कुछ दूसरी बातें करते हैं। यह देखकर मुझे ऐसे बालक का ख्याल आता है जो ईनाम में जलेबी पाने के लालच में उधम नहीं मचाता। अगर कोई बच्चा हमेशा जलेबी की ही बात सोचा करे, तो मानो उसकी शिक्षा ठीक ढ़ंग से नहीं हुई है।  और हम उन लड़कों या लड़कियों को भी कम पसंद करेंगे जो जलेबी की खातिर सब कुछ करें। तब फिर हम ऐसे बड़े-बूढ़ों के बारे में क्या कहें, जो इस तरह सोचते और काम करते हैं ? क्योंकि आखिर जलेबी और स्वर्ग के ख्याल में कोई खास फर्क नहीं है। हम सब थोड़े-बहुत स्वार्थी होते हैं; लेकिन फिर भी हम अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा देने की कोशिश करते हैं कि वे जहां तक हो सके  निस्वार्थ बने। कुछ भी हो, हमारे आदर्श बिल्कुल स्वार्थहीन होने चाहिये ताकि हं अपने जीवन में उन तक पहुंचने की कोशिश करते रहें। 

 असल धर्म का मर्म और मनुष्य के जीवन का लक्ष्य

 हम सब सफलता चाहते हैं और अपने कर्मों का फल देखना चाहते हैं। यह स्वाभाविक ही है। लेकिन हमारा लक्ष्य क्या है ?

 क्या हमें सिर्फ अपनी ही फिक्र करनी चाहिये, या सार्वजनिक हित की- यानी देश, समाज ओर मनुष्यजाति की भलाई की ? आखिर इस सार्वजनिक हित में ही हमारी अपनी भलाई भी शामिल है। संस्कृत का एक महान् श्लोक है, जिसका मतलब यह है -'कि व्यक्ति को कुटुम्ब के लिये, कुटुम्ब को जाति के लिये और जाति को देश के लिये कुर्बान कर देना चाहिये।'

 एक अन्य श्लोक  में कहा गया है कि 'मुझे न तो अष्टसिद्धियों के साथ स्वर्ग की इच्छा है और न जन्म और मृत्यु छुटकारा पाकर मोक्ष पाने की ही कामना है। मेरी इच्छा तो यह है कि दुखी-जनों के दिलों में पैठ जाऊं और उनका दुख-दर्द अपने ऊपर ले लूं, जिससे वे पीड़ा से मुक्त हो जायें।'

 धर्मों की अज्ञानता और उनका अधूरापन

  एक मजहबवाला एक बात कहता है, दूसरा मजहबवाला दूसरी। और बहुत करके हरेक दूसरे को मूर्ख या धूर्त समझता है। इनमें सच्चा कौन है ? 

 चूंकि ये लोग ऐसी चीजों की बात करते हैं, जो न आँख से देखी जा सकती है और न सिद्ध की जा सकती हैं, इसलिए दलीलों से ऐसे मामलों को तय करना मुश्किल हो जाता है। दोनों के लिये यह हिमाकत मालूम होती है कि ऐसे मामलों पर पक्की बातें करें और उन पर एक-दूसरे का सिर फोडें। हममें से ज्यादातर तंग-विचारों के होते हैं और ज्यादा बुद्धिमान नहीं होते। तब हम  यह सोचने का साहस कैसे कर सकते हैं कि हमें सारे सत्य का ज्ञान है और उसे हम अपने पडौसी के गले में जबदस्ती उतार सकते हैं ? सम्भव है कि हम सच्चाई पर हों और यह भी संभव है कि हमारा पड़ोसी भी सच्चाई पर हो। अगर हम किसी पेड़ पर एक फूल देखें, तो उस फूल को तो पेड़ नहीं कहेंगे न। उसी तरह दूसरे आदमी ने उस दूसरे पेड़ की पत्तियाँ ही देखीं और तीसरे ने सिर्फ उसका तना ही देखा; तो हरेक ने उस पेड़ सिर्फ एक-एक हिस्सा ही देखा है। लेकिन उनमें से हरेक के लिये यह कितनी  बेवकूफी की बात होगी, कि वह यह दावा करने लगे कि सिर्फ फूल, पत्ती या तना ही पेड़ है, और इसी बात पर आपस में लड़ने लगें !

 मनुष्य को परलोक में दिलचस्पी नहीं होनी चाहिये। मनुष्य का लक्ष्य केवल अपने रास्ते को साफ-साफ देखना होना चाहिये। उसे इस लोक में अपना कर्तव्य साफ-साफ देखना चाहिये, और यदि दिख जाये तो उसे किसी दूसरे लोक की चिंता नहीं करनी चाहिये।

   सारांश 

 हम इस संसार में देखते हैं और अपने बड़े होते बच्चों को भी ध्यान से देखने के लिये बोल सकते हैं कि dharm kya hai, हमें इस संसार में धर्मात्मा लोग, धर्म का विरोध करने वाले लोग और ऐसे लोग जिन्हें न धर्म की परवाह है और न अधर्म की, देखने को मिलते हैं। बड़े-बड़े चर्च और धार्मिक संस्थायें पड़ी हैं जिनके पास बहुत धन और शक्ती है। वे उनका कभी अच्छा उपयोग करते हैं और कभी बुरा। यहां पर हमें नेक और उदार व्यक्ति भी मिलेंगे जो धर्मात्मा हैं और ऐसे धूर्त और बदमाश भी मिलेंगे जो धर्म की आड़ में लोगों को लूटते हैं और धोखा देते हैं। 

 इन सब बातों पर हमें खुद सोचना होगा और अप्ने बच्चों को भी ट्रेंड करना होगा इन बातों पर विचार करने के लिये। और तभी जाकर हम और हमारे बच्चे अप्ने लिये खुद ही सही निर्णय ले पायेंगे।

 आदमी दूसरों से बहुत-कुछ सीख सकता है, लकिन हर जरुरी बात उसे अपनी ही खोज और अनुभव से प्राप्त करनी पड़ती है। कुछ सवाल ऐसे हैं जिनके उत्तर हर स्त्री-पुरुष को खुद अप्ने ही आप तलाश करने पड़ते हैं।

लकिन हमें निर्णय करने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिये। किसी भी बड़े या महत्वपूर्ण निश्चय पर पहुंचने से पहले हमें अप्ने आपको अभ्यास और शिक्षा के जरिये इस योग्य बनाना होगा। यह ठीक है कि आदमी को खुद ही सोचना चाहिये और निश्चय करना चाहिये; लेकिन इसके लिये उसमें उतनी ही योग्यता भी होनी चाहिये। इसलिये मनुष्य को हर तरह की शिक्षा और ज्ञान के द्वारा, दूसरों के अनुभवों और अपने खुद के अनुभवों और अहसासों के द्वारा ही अपनी योग्यता बनानी चाहिए, जिससे हमे अपने कर्तव्यों और लक्ष्यों का भान हो सके।

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