*क्रूसेड या सलीब के (ईसाइयों के) युद्ध क्यों हुये ? (Crusade+)*

 

क्रूसेड या सलीब के (ईसाइयों के) युद्ध क्यों हुए ? (Crusade+) 

 जाहिर बात है कि लगभग हम सभी जानते हैं कि कूस अथवा सलीब का संबंध किससे है। हाँ, इसका संबंध है -ईसा मसीह से, जिन्हें यहुदी प्रीस्ट लोगों ने क्रूस अथवा सलीब का मृत्यु दंड दिया था। इस लेख के संबंध में इसका संबंध ईसा मसीह के मानने वाले उन यूरोपियन लोगों से है, जिनका जिक्र इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया है। 

 वैसे तो ईसा मसीह एक शान्ति के दूत थे, परंतु इनके मानने वाले, क्रूसेडों अथवा सलीब के युद्ध करने वालों के नाम से प्रसिद्ध हुये। यह क्रूसेड अथवा सलीब शान्ति का कोई अभियान नहीं था, लेकिन जाहिराना तौर पर एक भयंकर युद्ध था उन तंजीमों के प्रति, जो गैर मजहबी थे ईसाइयत के।

  क्रूसेडों के युद्ध के कारण (Crusade)

  लगभग 1085 ईसवी के करीब-करीब सेलजुक तुर्कों की बढ़ती हूई ताकत से यूरोप भयभीत हो गया था- खासकर कुसतुनतुनियां की सरकार, जिस पर सीधा खतरा था। यरूशलेम और फिलिस्तीन के ईसाई तीर्थयात्रियों पर तुर्कों के अत्याचार की कहानियों ने यूरोप के लोगों में उत्तेजना फैला दी थी और वे गुस्से से भर गये थे। इसलिये 'धर्मयुद्ध' का ऐलान कर दिया था। पोप और ईसाई संघ ने यूरोप के सारे ईसाइयों को आदेश दिया कि वे 'पवित्र' नगर के उद्धार के लिये सेनाएं सजायें।

  इस तरह 1095 ईसवी से ये 'क्रूसेड' या सलीब के युद्ध शुरु हुये और डेढ़ सौ वर्षों से ज्यादा समय तक ईसायत और इस्लाम में, सलीब और हिलाल में, लड़ाई चलती रही। बीच-बीच में लंबे वक्त तक लड़ाई रूकी भी रहती थी, लेकिन युद्ध की हालत बराबर बनी रही। ईसाई जिहादियों के दल-के-दल लड़ने के लिये, और ज्यादातर उस 'पवित्र'देश में मरने के लिये जाते रहे। इस लंबी युद्धबाजी से ईसाई जिहादियों को कोई ठोस नतीजा नहीं मिला। कुछ समय के लिये यरूशलेम ईसाई जिहादियों के हाथ में आ गया, लेकिन बाद में फिर वह तुर्कों के हाथ में चला गया और उन्हींके कब्जे में बना रहा। क्रूसेडों का खास नतीजा यह हुआ कि लाखों ईसाइयों और मुसलमानों को मुसीबतें झेलनीँ पडीं, मौत के घात उतरना पड़ा और एशिया कोचक और फिलिस्तीन की जमीन इंसान के खून से तर हुई।

  युद्ध के पीछे लोगों में ईसाई जगत की भावना का होना

  यूरोप में क्रूसेडों ने ईसाई-जगत की भावना को, यानी इस भावना को बढ़ाया कि सब गैर-ईसाइयों के मुकाबले में ईसाइयों की अपनी ही अलग दूनियाँ है। यूरोप भर में इसी समान भावना और उद्देश्य का दौर था कि 'काफिरों' मतलब 'अविश्वासियों' के हाथों में से 'पवित्र देश'का उद्धार होना चाहिये। इस समान उद्देश्य ने लोगों में जोश भर दिया था और इस महान हित की खातिर कितने ही आदमी अपना घर-बार और धन-दौलत छोड़कर चल दिये। बहुत से लोग ऊंचे इरादों से गये थे, लेकिन बहुत से पोप के इस वादे से आकर्षित हुये थे कि वहां जाने से उनके गुनाह माफ कर दिये जायेंगे। क्रूसेडों के और भी कई कारण थे। रोम हमेशा के लिये कस्तूनतुनियाँ के ऊपर हुकूमत करने वाला बन जाना चाहता था। उस वक्त तक कुसतुनतूनियां और रोम के ईसाई संघ अलग-अलग थे। कुसतुनतुनियाँ वाले अपने-आप को कट्टर-ईसाई-स्ंघ कहते थे। वे रोमन ईसाई-संघ से सख्त नफरत करते थे और पोप को कल का छोकरा समझते थे। पोप कुसतूनतुनियाँ का यह घमंड चूर करके उसे अपने संघ में लाना चाहता था। काफिर तुर्कों के खिलाफ धर्म-युद्ध की आड़ में वह अपनी यह पुरानी लालसा पूरी करना चाहता था। राजनीतिकों का और अपने को राजनीतिज्ञ समझनेवालों का यही ढंग होता है ! रोम और कुसतुनतूनियाँ का यह संघर्ष याद रखने लायक है, क्योंकि क्रूसेडों के समय में वह बराबर सामने आता रहा।

  क्रूसेड युद्ध के अन्य कारण

  क्रूसेडों का दूसरा कारण व्यापार से ताल्लुक रखता था। व्यापारी लोग, खासकर वेनिस और जिनेवा के बढ़ते हुये बंदरगाहों के व्यापारी, इन युद्धों को चाहते थे, क्योंकि इनका व्यापार घटता जा रहा था। वजह यह थी कि सेलजुक तुर्कों ने पूर्व के कई तिजारती रास्तों को बंद कर दिया था।

  लेकिन आम जनता तो इन कारणों को बिलकुल नहीं जानती थी। किसी ने उसे ये बातें नहीं बताई थीं। राजनीतिक लोग आमतौर पर अपने असली कारणों को छिपा रखते हैं और धर्म, न्याय, सत्य, वगैरा की लंबी-चौड़ी दुहाई दिया करते हैं। क्रूसेडों के समय में यही बात थी और आज भी यही है। उस समय लोग उनकी बातों में आ जाते थे और आज भी ज्यादातर लोग राजनीतिकों की चिकनी-चुपड़ी बातों में आ जाते हैं।

 क्रूसेड युद्ध में आम जनता का शामिल होना

  यह युद्ध कोई एक कौम की सेना का दूसरे कौम की सेना से नहीं था, बल्कि एक कौम की जनता का दूसरे कौम की जनता से सीधा टक्कर था।  क्रूसेडों में शामिल होने के लिये बहुत आदमी जमा हो गये। उनमें बहुत-से तो नेक और लगनवाले थे, लेकिन बहट-से ऐसे भी थे, जो भलमनसाहत से दूर थे और लूट-खसोट की उम्मीद ने ही उन्हें इस तरफ खिंचा था। इस अजीब जमघट में पुण्यात्मा और धर्मात्मा लोग भी थे और आबादी का वह कूड़ा-करकट भी था जो हर तरह के जुर्म कर सकता था। नेक काम समझकर उसमें मदद पहुँचाने के लिये घर छोड़ कर जाने वाले इन जिहादियों ने, या उनमें से ज्यादातर ने, दर-असल नीच-से-नीच और महाघृणित अपराध किये। बहुत से तो रास्ते में लूट-मार और दूसरे बुरे कामों में ऐसे मशगूल हो गये कि फिलिस्तीन के पास तक नहीं पहुंचे। कुछ ने रास्ते में यहूदियों को कत्ल करना शुरु कर दिया; कुछ ने अपने ईसाई भाइयों को ही कत्ल कर डाला। कभी-कभी ऐसा भी हुआ कि जिन ईसाई देशों से होकर ये लोग गुजरे वहां के किसानों ने इनकी बदमाशियों से तंग आकर इनका मुकाबला किया और इनपर हमला करके बहुतों को मार डाला और बाकी को भगा दिया।

 क्रूसेडों में भयंकर रक्तपात (Crusade)

 आखिर में बुइलों के गाद्फ्रे नामक एक नार्मन के नेतृत्वमें ये जिहादी फिलीस्तीन पहुँच गये। इन्होने यरूशलेम जीत लिया और फिर वहाँ 'एक हफ्ते तक मार-काट मची'। हजारों लोग कत्ल कर दिये गये। इस घटना को अपनी आंखों से देखनेवाले एक फ्रांसिसी ने लिखा है :"मसजिद की बरसाती के नीचे घुटने तक खून था, और घोड़ों की लगाम तक पहुंच जाता था।" गाद्फ्रे यरूशलेम का बादशाह बन गया। 

 क्रूसेड में भी *मुस्लिम- सलादीन की मानवता 

 सत्तर वर्ष बाद मिश्र के सुलतान *सलादीन ने यरूशलेम को ईसाइयों से फिर छीन लिया। इससे यूरोप के लोग फिर भड़क उठे और एक के बाद एक क्रूसेड हुये। इस बार यूरोप के कई बादशाह और सम्राट खुद जिहाद में शामिल हुये, लेकिन उन्हें कोई सफलता न मिली। वे इस बात पर ही आपस में झगड़ते थे कि बड़ा कौन है, और एक दूसरे से ईर्ष्या रखते थे। ये क्रूसेड वीभत्स और क्रूर लड़ाइयों की और एक तुच्छ साजिशों और नीच अपराधों की कहानी है। लेकिन कभी-कभी मनुष्य-स्वभाव के नेक पक्ष ने इस वीभत्सता पर विजय पाई, और ऐसी घटनायें भी हुईं जब दुश्मनों ने एक दूसरे के साथ भलमनसाहत का और वीर-धर्म का बर्ताव किया। फिलीस्तीन में बाहर से आये हुये इन राजाओं में इंग्लेंड का 'शेर-दिल' रिचर्ड भी था जो अपने शारीरिक बल और साहस के लिये मशहूर था। सलादीन से लड़ने वाले जिहादी भी उसकी इस उदारता के कायल थे। कहते हैं कि एक बार रिचर्ड बहुत बिमार पड़ गया, उसे लू लग गई थी। जब सलादीन को इसकी खबर हुई तो उसने उसके पास पहाड़ों से ताजा बर्फ भिजवाने का इंतजाम कर दिया। आजकल की तरह उन दिनों पानी को जमाकर नकली बर्फ नहीं बनाई जा सक्ती थी। इसलिये पहाडों से कुदरती बर्फ तेज हरकारों के जरिये मँगवाई जाती थी।

 कुस्तुन्तुनियाँ पर जिहादियों का कब्जा

 जिहादियों का एक जत्था कुसतुनतुनियाँ भी जा पहुंचा और उसने उसपर कब्जा का लिया। इसने पूर्वी साम्राज्य के यूनानी सम्राट को मार भगाया और वहां लातीनी राज्य और रोमन ईसाई-संघ कायम किया। कुसतुनतुनियाँ में भी भयंकर मारकाट हूई और जिहादियों ने शहर का एक हिस्सा जला भी दिया। लेकिन यह लातीनी (Letin) राज्य ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रह सका। पूर्वी साम्राज्य के यूनानी कमजोर होते हुये भी वापस लौटे और पचास साल से कुछ ही ज्यादा समय के अंदर उन्होने लातीनियों को मार भगाया। कुसतुनतुनियाँ का पूर्वी साम्राज्य दो सौ वर्षों तक और बना रहा। अंत में 1453 ईसवी में तुर्कों ने उसे हमेशा के लिये खत्म कर दिया।

 कुसतुनतुनियाँ पर जिहादियों का यह कब्जा रोमन ईसाई-संघ और पोप की इस इच्छा को जाहिर करता है कि वे अपना प्रभाव वहां तक बढ़ाना चाहते थे। हालाँकि घबराहट के मौके पर इस शहर के यूनानियों ने तुर्कों के खिलाफ रोम से सहायता मांगी थी, फिर भी उन्होने जिहादियों की कुछ भी मदद नहीं की। बल्कि वे उनसे सख्त नफरत करते थे।

  बच्चों का क्रूसेड युद्ध (Crusade)

 लेकिन इन क्रूसेडों में सबसे भयंकर वह था जो 'बच्चों का क्रूसेड' कहलाता है। बहुत बड़ी संख्या में बच्चों ने, ज्यादातर फ्राँस के और कुछ जर्मनी के बच्चों ने जोश में आकर अपने घरों को छोड़ दिया और फिलिस्तीन जाने का इरादा कर लिया। उनमें से कितने ही तो रास्ते में मर गये और कितने ही खो गये। ज्यादातर बच्चे मार्सल्स जा पहुंचे, जहां उन बेचारों के साथ धोखा किया गया और बदमाशों ने उनके जोश से बेजा फायेदा उठाया। 'पवित्र' देश तक पहुंचा देने का बहाना बनाकर गुलामों के व्यापारी इन्हें अपने जहाजों में बिठाकर मिश्र ले गये और वहां इन्हें गुलामीके लिये बेच दिया।

  यरूशलेम मुसलमानों के अधीन ही रहा

 फिलिस्तीन से लौटते समय इंग्लैंड के बादशाह रिचर्ड को पूर्वी यूरोप में उसके दुश्मनों ने पकड़ लिया और उसे छुड़ाने के लिये बहुत बड़ी रकम देनी पड़ी। फ्राँस का राजा फिलिसेएं में ही गिरिफ्तार कर लिया गया था और उसे भी रूपया देकर छुड़ाया गया था। पवित्र रोमन साम्राज्य का एक सम्राट, फ्रेडरिक बारबरोसा फिलिस्तीन की एक नदी में डूब गया। इधर ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, क्रूसेडों का जादू कम होता गया। लोग इन युद्धों से उकता गये थे। यरूशलेम मुस्लमानों के ही हाथों में बना रहा, लेकिन यूरोप के राजाओं में और लोगों में अब यरूशलेम को छीनने के लिये ज्यादा जान व माल बर्बाद करने का उत्साह नहीं रहा। तब से लगभग 700 वर्षों तक यरूशलेम मुसलमानो के ही अधीन रहा। पर पिछ्ले यूरोपीय महायुद्ध के समय, 1918 ईसवी में, एक अंग्रेज सेनापति ने इसे तुर्कों से छीन लिया था।

  बाद के क्रूसेड

 बाद के क्रूसेडों में एक क्रूसेड बड़ा ही दिलचस्प और गैरमामूली था। सच तो यह है कि पुराने अर्थ में यह क्रूसेड था ही नहीं। पवित्र रोमन साम्राज्य का सम्राट फ्रेडरिक द्वितीय फिलिस्तीन गया और वहां लड़ने की बजाये उसने मिश्र के सुल्तान से भेंट की और दोनों में एक दोस्ताना समझौता हो गया। फ्रेडरिक एक असाधारण व्यक्ति था। उस जमाने में, ज्यादातर राजा बे-पढ़े-लिखे होते थे, यह अरबी के अलावा कई भाषायें जानता था और इसलिये पोप ने उसे बहिष्कृत कर दिया, लेकिन उस पर इसका कोई असर न हुआ।

 मतलब यह कि क्रूसेडों का कोई नतीजा नहीं निकला। पर इस लगातार लड़ाई ने सेलजुक तुर्कों को कमजोर कर दिया। लेकिन इससे भी ज्यादा यह हुआ कि सामन्त-प्रथा ने सेलजुक साम्राज्य की जड़ें खोखली कर दीं। बड़े-बड़े सामन्त सरदार अपने को एक तरह से स्वाधीन मानने लगे। वे आपस में लड़ते रहते थे। कभी-कभी नौबत यहां तक पहुंचती थी कि वे एक-दूसरे के खिलाफ ईसाइयों की सहायता मांगा करते थे। कभी-कभी तुर्कों की यह अंदरूनी कमजोरी उन्हें जिहादियों के हाथ का खिलौना बना देती थी। लेकिन जब कभी सलादीन की तरह कोई दबंग सुलतान होता था तब इनकी नहीं चलती थी।

 क्रूसेडों के युद्धों का नतीजा

 क्रूसेडों का युद्ध यूरोप में ललित कलाएँ, कारीगरी, विलासिता, विज्ञान व बौद्धिक जिज्ञासा लेकर आया, यानी वे तमाम चीजें लाया, जिनसे साधु पीटर को सख्त नफरत होती।

 सलादीन 1193 ईसवी में मर गया, और पुराने अरब-साम्राज्य का जो कुछ भाग बच रहा था वह भी धीरे-धीरे टूक-टूक हो गया। पश्चिमी एशिया के कई हिस्सों में, जो छोटे-छोटे सामन्त-सरदारों के कब्जे में थे, उपद्रव होने लगे। आखिरी क्रूसेड 1249 ईसवी में हुआ। इसका नेता फ्राँस का राजा लुई नवम था। वह हार गया और कैद कर लिया गया।

 इसी बीच पूर्वी और मध्य एशिया में बड़ी-बड़ी घटनायें घट रही थीं। चंगेज-खाँ नामक जबर्दस्त सरदार के नेतृत्व में मंगोल आगे बढ़ रहे थे और पूर्वी क्षितिज पर काली घटा की तरह छा रहे थे। क्रूसेडों में लड़नेवाले दोनो पक्ष, यानी ईसाई और मुसलमान दोनों ही इस मँडराते हुये हमले को एक समान डर से देख रहे थे।

 *मध्यएशिया के बुखारा नामक शहर में एक बहुत बड़ा अरब हकीम रहता था जो एशिया और दोनों में मशहूर था। उसका नाम इब्नसीना था, लेकिन यूरोप में वह 'एवीसेना'के नाम से ज्यादा मशहूर है। वह 'हकीमों का शाह'कहा जाता था। क्रूसेडों के शुरू होने के पहले, 1037 ईसवी में, उसकी मृत्यु हो गई। पूरे संसार में इब्नसीना की बहुत कीर्ति है।* 

 यहां तक कि जब अरब साम्राज्य का पतन हो रहा था तब भी, अरबी सभ्यता पश्चिमी एशिया में और मध्यएशिया के एक हिस्से में जारी रही। ईसाई-जिहादियों से लड़ाई में मशगूल रहने पर भी *सलादीन ने बहुत-से कालेज और अस्पताल बनवाये। लेकिन इस सभ्यता के अचानक और पूरी तरह खत्म होने का दिन आ चुका था, क्योंकि पूर्व की तरफ से मंगोल बढ़े चले आ रहे थे। 



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