ईसा और ईसाइत !
जैसा कि ईसा के नाम से जाहिर होता है, ईसा के जन्म से या ईसा के माने हुये जन्मदिन से। इतिहास में ईसा मसीह वह व्यक्ति है जिसके नाम से ईसवी सन की शुरुआत होती है। ईसा के बाद होनेवाली घटनाओं की तारीखों के आगे ईसवी सन लिखने का रीवाज हो गया है।
यीशु का परिचय
ईसा या जैसा कि उनका नाम था यीशु, की कथा बाईबल के नये अहदनामे में दी हूई है। ईसा की जीवन कथाओं के विवरणों में उनकी जवानी के दिनों का कोई हाल नहीं दिया गया है। वह नासरत में पैदा हुये; गैलिली में उन्होने प्रचार किया और तीस वर्ष से ऊपर की उम्र में वह यरूशलेम आये।
इसके थोड़े ही दिन बाद रोमन गवर्नर पान्तियस पाइलेत की दालत में उनपर मुक्कदमा चला और उसने इनको सजा दी। यह साफ नहीं मालूम होता कि अपना प्रचार शुरु करने से पहले ईसा क्या करते थे या कहाँ गये थे। मध्यएशिया भर में, कश्मीर में, लद्दाख में और तिब्बत में और इससे और उत्तर के देशों में अभी तक लोगों का यह पक्का विश्वास है कि यीशु या ईसा इन देशों में घुमे थे। कुछ लोगों का यह विश्वास है कि वह भारत भी आये थे। पक्के तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता, लेकिन जिन विद्वानों ने ईसा की जीवनी का अध्ययन किया है, वे यह नहीं मानते कि ईसा भारत या मध्य एशिया में आये थे। लेकिन अगर आये हों तो यह कोई असंभव बात नहीं कही जा सकती। उस जमाने में भारत के बड़े-बड़े विश्वविद्यालय, खासकर उत्तर-पश्चिम का तक्षशिला का विश्वविद्यालय, दूर-दूर देशों के लगनवाले विद्यार्थीयों को आकर्षित करते थे और मुमकिन है कि ईसा भी ज्ञान की तलाश में यहां आये हों। बहुत-सी बातों में ईसा के सिद्धांत गौतम के सिद्धांतों से इतने ज्यादा मिलते-जुलते हैं कि यह बहुत संभव मालूम होता है कि ईसा को गौतम के विचारों की पूरी-पूरी जानकारी थी। लेकिन बौद्ध-धर्म दूसरे देशों में काफी प्रचलित था, और इसलिये ईसा भारत आये बिना भी उसके बारे में अच्छी तरह से जान सकते थे।
मजहबों की सच्चाई
स्कूल का हरेक बच्चा जानता है कि मजहबों के नाम पर लड़ाई-झगड़े और कड़वे संघर्ष हुये हैं। लेकिन संसार के मजहबों की शुरुआत पर गौर करना और उनकी तुलना करना बहुत दिलचस्प है। सब मजहबों के नजरियों और उपदेशों में इतनी समानता है कि यह देखकर हैरत होती है कि लोग छोटी-छोटी और गैर-जरुरी बातों के बारे में झगड़ा करने की बेवकूफी क्यों करते हैं। लेकिन पुराने उपदेशों में नई-नई बातें जोड़ दी जाती हैं, और उनको इस तरह तोड़-मरोड़ दिया जाता है कि उनका पहचानना मुश्किल हो जाता है। सच्चे धर्म-प्रचारक की जगह तंगदिल और कट्टर हठ-धर्मी लोग आ बैठते हैं। बहुत बार मजहब ने राजनीति और साम्राज्यवाद की दासी-जैसा काम किया है। पुराने रोमन लोगों की तो यह नीति थी कि जनता की भलाई के लिये, या यों कहो कि उसे लूटने के लिये, उसमें अन्धविश्वास पैदा किया जाय; क्योंकि अन्धविश्वासी लोगों को दबाए रखना ज्यादा आसान होता है। अमीर-वर्ग के रोमन लोग वैसे तो बड़ी ऊंची-ऊंची फिलासफी बघारते थे, लेकिन व्यवहार में जिस चीज को वे अप्ने लिये अच्छी समझते थे, उसे जनता के लिये ठीक और हितकर नहीं मानते थे। बाद के जमाने के एक मशहूर इतालवी लेखक मेकियावेली ने राजनीति पर एक पुस्तक लिखी है। उसका कहना है कि शासन के लिये मजहब जरुरी चीज है, और कभी-कभी शासक का कर्तव्य हो जाता है कि वह ऐसे मजहब की हिमायत करे जिसे वह खुद झूठा समझता हो। इस जमाने में भी हमारे सामने ऐसी बहुत-सी मिसालें हैं कि साम्राज्यवाद ने मजहब की आड़ में शिकार खेला है। इसलिये कार्ल मार्क्स का यह लिखना ताज्जुब की बात नहीं है कि "मजहब जनता की अफीम है"!
ईसा यहुदी थे। यहुदी एक निराली और अजीब-तौर पर उद्यमी कौम थी, और अब भी है। दाऊद और सुलेमान के जमाने में कुछ समय के वैभव के बाद उनके बुरे दिन आये। यह वैभव भी था तो बहुत थोड़ा, लेकिन अपनी कल्प्ना में उन्होने उसे यहां तक बढ़ा-चढ़ा दिया कि उनके लिये वह अतीत का एक स्वर्णयुग बन गया और वे विश्वास करने लगे कि वह युग एक निश्चित समय पर फिर लौटेगा और उस समय यहुदी कौम फिर महान और शक्तिशाली हो जायेगी। वे लोग सारे रोमन साम्राज्य में और दूसरे देशों में फैल गये, लेकिन अप्ने इस पक्के विश्वास के कारण वे आपस में मजबूती से बंधे रहे कि उनके वैभव का दिन आने वाला है और एक मसीहा वह दिन दिखायेगा। बेघर और आश्रयहीन बेहद परेशानियों और अत्याचारों के शिकार और अक्सर मौत के घाट उतारे जाने वाले यहूदियों ने दो हजार वर्ष से ज्यादा तक अपनी हस्ती किस तरह बचाये रक्खी और किस तरह आपस में बंधे रहे, यह इतिहास की एक अद्भूत घटना है।
यहुदी एक मसीहा का इन्तजार कर रहे थे, और शायद यीशु से उन्हें इसी तरह की उम्मीदें थीं। लेकिन बहुत जल्द इनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया, क्योंकि ईसा चालू तारिकों और सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह की बिल्कुल नई बातें करते थे। खास तौर से वह अमीरों और उन पाखंडियों के खिलाफ थे, जिन्होने धर्म को कुछ व्रत-उपवासों और कर्म-कांडों का मामला बना दिया था। धन-दौलत और कीर्ति की आशा दिलाने के बजाय, वह एक अस्पष्ट और अज्ञात स्वर्गीय राज्य की खातिर लोगों से अप्ना सब कुछ त्याग देने को कहते थे। उनकी बातें रूपकों और कहानियों के रूप में होती थीं, लेकिन यह बिल्कुल स्पष्ट है कि वह जन्म से ही विद्रोही थे, और जमाने की हालत को सह नहीं सकते थे, और उसे बदलने पर तुले हुये थे। यह वह बात न थी जो यहुदी चाहते थे इसलिये बहुत-से यहुदी उनके खिलाफ हो गये और उन्होने ईसा को पकड़कर रोमन अधिकारियों के सुपुर्द कर दिया।
यीशु की मृत्यु और उनके अनुयाई
मजहबी मामलों में रोमन लोग असहिष्णु नहीं थे, क्योंकि साम्राज्य में सब मजहबों को बर्दाश्त किया जाता था; यहां तक कि अगर कोई किसी देवी-देवता को बुरा कहता या गाली देता तो उसे सजा नहीं दी जाती थी। तब्रेसी नामक एक रोमन सम्राट ने कहा था, " अगर देवताओं का अपमान किया जाता है तो उन्हें खुद ही निबट लेने दो"। इसलिये जब रोमन गवर्नर पान्तियस पाइलेत के सामने यीशु पेश किये गये तो इस मामले के मजहबी पहलु की ओर उसे जरा भी चिंता न हूई होगी। यीशु को लोग एक राजनीतिक विद्रोही, और यहुदी लोग सामाजिक विद्रोही समझते थे, और यही जुर्म लगाकर उनपर मुकदमा चलाया गया, सजा दी गई, और गोलगोथा में उन्हें सूली पर लटका दिया गया। यातना की इस घड़ी में उनके चुने हुये शिष्यों तक ने उनका साथ छोड़ दिया और उन्हें मानने से भी इन्कार कर दिया। इस विश्वासघात से उन्होंने ईसा की पीड़ा को इतना असहनीय बना दिया कि मरने से पहले उनके मुँह से दिल को हिला देने वाले ये शब्द निकल पड़े- "मेरे ईश्वर ! मेरे ईश्वर ! तूने मुझे क्यों त्याग दिया है ?"
मृत्यु के समय यीशु जवान ही थे; उनकी उम्र तीस वर्ष से कुछ ही ज्यादा थी। जब हम बाईबल की सुन्दर भाषा में उनकी मौत की करूण कहानी पढ़ते हैं तो हमारा दिल पसीज जाता है। बाद के युगों में ईसाई धर्म की जो तरक्की हूई, उसने करोड़ों के मन में यीशु के नाम के लिये श्रद्धा पैदा कर दी; हालाँकि उन लोगों ने उनके उपदेशों पर अमल बहुत कम किया है। लेकिन यह याद रखना चाहिये कि जब वह सूली पर चढाये गये थे तब उनका नाम फिलिस्तीन से बाहर के लोग ज्यादा नहीं जानते थे। रोम के लोग तो उनके बारे में कुछ भी नहीं जानते थे, और पान्तियस पाइलेत ने इस घटना को बिल्कुल ही महत्व नहीं दिया होगा।
यीशु के नजदीकी अनुयायियों और शिष्यों ने डर के मारे उन्हें अपना कहने से भी इन्कार कर दिया था। लेकिन यीशु की मृत्यु के कुछ ही दिन बाद पाल नामक एक नये अनुयाई ने, जिसने यीशु को खुद नहीं देखा था, अपनी समझ के अनुसार ईसाई मत का प्रचार शुरु कर दिया। बहुत-से लोगों का ख्याल है कि जिस ईसाइयत का पाल ने प्रचार किया, वह यीशु के उपदेशों से बहुत भिन्न है। पाल एक योग्य और विद्वान आदमी था, लेकिन वह यीशु की तरह सामाजिक विद्रोही नहीं था।
ईसाई धर्म की शुरुआत
बहरहाल पाल कामयाब हुआ और ईसाई मत धीरे-धीरे फैलने लगा। रोमन लोगों ने शुरु में इसे कोई महत्व नहीं दिया। उन्होने समझा कि ईसाई भी यहुदीयों का ही कोई सम्प्रदाय होगा। लेकिन ईसाइयों का साहस बढ़ने लगा। वे दूसरे तमाम मतों के कट्टर विरोधी बन गये और उन्होने सम्राट की मूर्ति की पूजा करने से बिल्कुल इन्कार कर दिया। रोमन लोग उनकी इस मनोवृत्ति को, और उनकी निगाह में ईसाइयों की इस तंग-खयाली को, समझ नहीं सके । इसलिये वे ईसाइयों को सनकी, लड़ाकू, असभ्य और मानव-प्रगति का विरोधी समझने लगे। ईसाइयत को वे लोग शायद एक मजहब की हैसियत से बर्दाश्त करने को तैयार हो जाते, लेकिन सम्राट की मूर्ति के सामने सर झुकाने से उनका इन्कार करना, राजद्रोह समझा गया, और उसकी सजा मौत करार दी गई। ईसाई लोग आदमी और जानवर की कुशतियों की भी बड़ी आलोचना करते थे। इसका नतीजा यह हुआ कि ईसाई सताये जाने लगे। उनकी जायदादें जब्त की जाने लगीं और उन्हें शेरों का भोजन बनाया जाने लगा। लेकिन जब कोई व्यक्ती किसी उसूल के लिये मरने को तैयार हो जाता है और ऐसी मौत को वास्तव में गौरव समझने लगता है, तो उसे या उसके उसूल को दबाना असंभव होता है। इसलिये रोमन साम्राज्य ईसाइयों को दबाने में बिल्कुल असफल रहा। उल्टे इस लड़ाई में ईसाइयत की जीत हूई और ईसा की चौथी सदी के शुरु में एक रोमन सम्राट खुद ईसाई हो गया और ईसाई मत रोमन-साम्राज्य का राज्य-धर्म बन गया। इस सम्राट का नाम कान्स्तेन्तीन था, जिसने कुस्तुनतुनिया नगर बसाया।
ईसाई मजहब का प्रचार और उनके आपसी झगड़े
ज्यों-ज्यों ईसाई मजहब फैला, त्यों-त्यों ईसा के देवत्व के बारे में जबर्दस्त लड़ाई-झगड़े पैदा हो गये। गौतमबुद्ध ने कभी देवत्व का दावा नहीं किया था, लेकिन फिर भी वह एक देवता और अवतार की तरह पूजे जाने लगे। इसी तरह यीशु ने भी खुदाई का कोई दावा नहीं किया था। यीशु ने जो बार-बार कहा है कि वह ईश्वर के पुत्र हैं, उसका अर्थ यह कभी नहीं है कि उन्होने खुदाई का या मनुष्यों से ऊपर होने का दावा किया था। लेकिन अपने महान पुरूषों को देवता का रूप दे देना और देवता के आसन पर बैठाने के बाद उनके उपदेशों को छोड़ देना, मनुष्य-जाति को ज्यादा पसंद है। छ: सौ साल बाद पैगंबर मुहम्मद ने एक और बड़ा मजहब चलाया, लेकिन शायद इन उदाहरणों से फायेदा उठाकर उन्होने साफ-साफ और बार-बार यह कहा कि वह इन्सान हैं, खुदा नहीं।
इस तरह यीशु के उपदेशों को समझने और उनपर अमल करने के बजाये, ईसाई लोग यीशु के देवत्व और ईसाई त्रिपुटी के रूप के बारे में तर्क-वितर्क और झगड़े करने लगे। वे एक दूसरे को काफिर कहने लगे, एक-दूसरे पर अत्याचार करने लगे और एक दूसरे का गला काटने लगे। एक बार ईसाइयों के अलग-अलग संप्रदायों में एक संयुक्त शब्द के ऊपर बहुत जोरदार और भयंकर मतभेद हुआ। एक दल कहता था कि प्रार्थना में होमो-आउजन शब्द इस्तेमाल किया जाना चाहिये; दूसरा होमोइ-आऊजन इस्तेमाल करना चाहता था। इस मतभेद का यीशु के देवत्व से संबन्ध था। इस संयुक्त शब्द के पीछे भयंकर युद्ध हुआ और बहुत-से आदमी मारे गये।
ज्यों-ज्यों ईसाई-संघ की ताकत बढ़ती गई, त्यों-त्यों ये घरेलु झगड़े बढ़ते गये। ईसाई मजहब के विभिन्न संप्रदायों में इसी तरह के झगड़े पश्चिमी देशों में कुछ अरसे पहले तक होते रहे।
यह ताज्जुब की बात है कि इंग्लेंडमें या पश्चिमी यूरोप मे पहुंचने के बहुत पहले, और उस समय जबकि रोम तक में उसे नफरत से देखा जाता था और उस पर पाबंदी लगी हूई थी, ईसाई मजहब भारत में आ पहुंचा था। यीशु के मरने के बाद करीब सौ साल के अंदर ही ईसाई धर्म-प्रचारक समुद्र के रास्ते दक्षिण भारत आये थे। उनके साथ शिष्ट बर्ताव किया गया, और उन्हें अप्ने नये मजहब के प्रचार करने की छूट दे दी गई। उन्होंने बहुत-से लोगों को अप्ने मत का अनुयाई बनाया और ये लोग तबसे आज तक दक्षिण भारत में उतार-चढ़ाव के दिन देखते हुये रह्ते आये हैं। उनमें से बहुत लोग ईसाई मजहब के पुराने संप्रदायोंके अनुयायी हैं, जिनकी अब अब यूरोप में हस्ती तक नहीं है। आज कल इनमें से कुछ के मुख्य स्थान एशिया-कोचक में है।
राजनीतिक दृष्टी से, आजकल ईसाइयत का बोलबाला है, क्योंकि वह यूरोप की प्रमुख कौमों का मजहब है। लेकिन जब हम अहिंसा और सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह का प्रचार करनेवाले विद्रोही यीशु की तुलना उनके आजकल के बकवादी अनुयायियों से करते हैं, जो साम्राज्यवाद, शस्त्रास्त्रों, युद्धों और धन की पूजा में विश्वास करते हैं, तो तो यह ख्याल हमें हैरत में डाल देता है। यीशु का 'पर्वत का उपदेश' और आजकल की यूरोप व अमेरिका की ईसाइयत, इन दोनों में कितनी हैरत भरी असमानता है ! इसलिये कोई ताज्जुब की बात नहीं अगर बहुत-से लोग यह सोचने लगें कि आजकल पश्चिम में अप्ने को ईसा के अनुयायी कहनेवाले ज्यादातर लोगों के मुकाबले में बापू ईसा के उपदेशों के बहुत ज्यादा निकट थे।