भारतीय धर्मनिरपेक्षता की विफलता क्यों?
भारत देश दुनियां का सबसे बड़ा अप्रत्यक्ष लोकतन्त्र होने के साथ-साथ एक समाजवादी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र भी है। जिसका अर्थ है कि यह राष्ट्र विभिन्न धर्मों के मामले में निष्पक्ष तथा निरपेक्ष है। हमारे उत्तम पूर्वजों ने हमारे संविधान का निर्माण बड़े ही सोच समझ कर किया है। जिसकी हम देशवासी अपार प्रशन्नसा भी करते हैं। परंतु फिर भी हर अच्छे से अच्छे कामों में कोई न कोई कमी रह ही जाती है जिन पर कार्य करने वाले ध्यान दे ही नहीं पाते। जिनका पता तो भविष्य की पीढियों को परिस्थितिवश हो ही जाता है। तो आज हम भारत देश के वो भविष्य नागरिक हैं जिनके अतीत के पूर्वजों ने हमारे संविधान को बनाते समय कुछ कमियों की ओर ध्यान केंद्रित नहीं किया।आज हम उन कमियों को उजागर कर सकते हैं जिनका सामना हम कर रहे हैं, विशेष कर हम भारतीय संविधान की 'धर्मनिरपेक्षता' नामक कमी की ओर ध्यान केंद्रित करते हैं, जो हम वर्तमान पीढ़ी के आने वाली भविष्य पीढ़ी के लिये एक भयानक व पीढ़ादायक हो सकती है।
हर संस्था का अपना एक संविधान होता है !
एक देश जब एक राष्ट्र बनता है तो वह एक संस्था होती है और उस संस्था का अपना एक संविधान होता है तथा उस संविधान की शक्ति या तो उस देश के लोगों में ही केंद्रित हो सकती है या फिर किसी एक व्यक्ति विशेष अथवा परिवार में।
ठीक इसी प्रकार हर छोटे-मोटे समुह जो अपने-अपने हितों को लेकर बने हुये हैं और विभिन्न धर्म जो अपनी अपनी सत्यता को प्रतिष्ठापित करने में आतुर हुये हैं, उनके भी अपने अपने संविधान होते हैं, जो उनकी नियमावली तथा शास्त्रों के रूप में जाने जाते हैं।
कुछ धर्म ऐसे होते हैं जो अपने से अलावा दूसरे धर्मों को बर्दास्त नहीं करते और सदैव प्रचार मिशन में लगे रहते हैं तथा स्वयं को 100% सत्य मानते हैं।
तो इनमें भी कुछ धर्म ऐसे होते हैं जो किसी भी दूसरे धर्म से ईर्ष्या या द्वैष नहीं रखते तथा अपने स्वभाव में शील, नम्र, सभ्य और अनुग्रह से भरे हुये होते हैं, जो केवल समस्त मानवता तथा जीवमात्र की भलाई को ही मिशन मानते हैं। अपने प्रचार मिशन में उनकी कोई रुचि नहीं होती, केवल कार्य करने में उनकी रुचि होती है।
हमारे देश भारत में इन सब तरह के समूहों और धर्मों का वास है, जो सदियों से हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं।
लेकिन जब-जब हम भारतीय इतिहास को झांक-झांक कर और टटोल-टटोल कर देखते हैं तो हम पाते हैं कि यहां पर अलग-अलग समयों में कई बार एक धर्म संविधान ने एक दूसरे धर्म संविधान को कुचल डाला है, और इस प्रक्रिया में मानवता का भयंकर नाश भी हुआ है। लेकिन सौभाग्य से इस देश के नसीब अच्छे थे जो इस राष्ट्र में कुछ ऐसे नेता भी हुये थे जिन्होने धर्मों को राष्ट्र के शीर्ष पर काबिज होने नहीं दिया और राष्ट्र को धर्म से अलग रखा। इसलिए सौभाग्य से यह देश कई बार स्थाई रूप से एक धर्मतांत्रिक राष्ट्र बनने से बचा हुआ है।
लेकिन क्या यह स्थिति आगे भी ऐसी ही बनी रहेगी ?
जिन कालों में ये सब हुआ उन समयों में तो हमारे देश का कोई उत्तम लिखित संविधान भी नहीं था। परन्तु अब है, और उसमें जबर्दस्त शक्ति है और वो शक्ति प्रत्यक्ष रूप से स्वयं जनता की है, न कि किसी राजा या व्यक्ति विशेष की।
अब ऐसे में जरा कल्पना तो कीजिये कि हमारे देश में संविधान के अपरिभाषित धर्मनिरपेक्ष्ता के अनुसार यहां उपस्थित कट्टर धर्म समूहों और उनके कट्टर धर्मसंविधान यदि यहां की आबादी के बहुसंख्या को बरगलाने में और उन्हें अपने वश में करने में कामयाब हो गये, तो फिर क्या होगा ?
अगर बहुआबादी क्रिश्चयन या मुस्लिम बन जाती है तथा प्रजातंत्र की डोर शीर्ष में इनके हाथ में आ जाती है, तो फिर यकिन मानिये, इस देश का भविष्य अंधकार के गर्त में चले जायेगा। इस देश में कभी भी स्वतंत्रता, समानता और न्याय का सूर्य उदय नहीं हो पायेगा। यह देश एक धर्मतांत्रिक देश हो जायेगा, और यदि लोकतांत्रिक हुआ भी तो उसमें धर्मनिरपेक्ष्ता की हत्या सदा के लिये कर दी जायेगी। हमारे देश का संविधान उक्त धर्म के संविधान के अनुसार पुन: रचा जायेगा। क्योंकि ये सब करने में सारी शक्ति कट्टर मजहबी जनता के द्वारा केंद्रीय सत्ता को दी जायेगी। अल्पसंख्यकों को भयंकर पीड़ाएं दी जायेंगी या फिर उनकी हत्यायें कर दी जायेंगी।
अब ऐसे में हमारे लिये यह सोचना लाजिमी हो जाता है कि निश्चय ही हमें हमारे देश के संविधान के धर्मनिरपेक्षता शब्द को पुनर्परिभाषित करना होगा। अब यह बेहद जरुरी है कि इस देश में कट्टर मजहबी संविधान वाले धर्मों को प्रचार करने की स्वतंत्रता न दी जाये। यहां पर ऐसे हर धर्म के प्रचार पर रोक लगा दी जाये जिनके धर्मसंविधान कट्टर, अहिश्नु और अमानवीय हैं।
यदि जल्द से जल्द इस संदर्भ में कार्य न किया गया तो निकट भविष्य में भारत एक मजहबी राष्ट्र होगा और इसकी बागडोर तंगदिली व तंगख्यालति अमानवीय लोगों के हाथों में होगी, और ऐसा तो हमारे उत्तम संविधान निर्माताओं ने भी नहीं चाहा !
Right !
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