*काम (Works) ही बुराइयों की जड़ है ! (Covid-19 Lockdown का एक कारण और!)
मनुष्य बुरा नहीं होता, बुरे होते हैं उसके काम !
हां, अकसर लोग तो यही कहते हैं- 'मनुष्य बुरा नहीं होता, बुरा होता है समय या नसीब।'
पर असल जिंदगी में बात कुछ और होती है। मनुष्य, हरेक मनुष्य असल में अच्छा ही होता है, पर उसकी अच्छाई तब खत्म हो जाती है जब वे कोई न कोई "काम" (Work) करता है।
काम ही सभी बुराइयों की जड़ है !
हजारों साल पहले भगवान गौतम बुद्ध जी ने दुनियां को यह संदेश दिया कि 'मूल रूप से मनुष्य अच्छा होता है, लेकिन अपनी ईच्छाओं और लालसाओं के कारण वे एक बुर मनुष्य बन जाता है।'
तो इस संदर्भ में हम क्या कहें कि क्या वास्तव ही में मनुष्य की ईच्छायें हीं बुराइयों की जड़ हैं ? यदि ईच्छायें ही न हों तो किसी भी जीव का जीवन और वो भी मनुष्य का जीवन निरर्थक और नीरस हो जायेगा। यदि ईच्छाओं को मारना ही है तो विधाता मनुष्य मसन ईच्छाओं को उत्त्पन्न ही न करता।
यथार्थ में ये ईच्छायें बुराई की जड़ नहीं हैं। बुराई की जड़ है तो केवल और केवल किसी मनुष्य का काम (Work) करना। जब कोई मनुष्य किसी काम में कर्ताभाव से कार्य करता है तो अनायास ही उसमें अहम, मोह, लोभ, झूठ और छल-कपट और अनगिनत अभिलाषाओं की उपज हो जाती है। काम चाहे कोई भी हो, किसी भी क्षेत्र का काम हो, छोटा-बड़ा, अच्छा या बुरा, बदले में मनुष्य में बहुत से विकारों को जन्म देती है।
जैसे हम कुछ उदाहरण देखते हैं- जमीन में फसल बो कर खेती करने वाला किसान भले ही ईमानदारी और मेहनत की कमाई करके खाता हो पर उसमें अपनी मेहनत करने का घमंड कूट-कूट कर भरा होता है। ऐसे में वही मनुष्य अगर किसी दूस्रे आरामपरस्त काम करने वाले को देखे तो वे किसान उससे ईर्ष्या करने लग जाता है और मेहनत भरे, कड़े परिश्रम भरे अपने काम की बढाई तथा महिमा बखान करने लग जाता है ताकि सामने वाला मनुष्य लज्जित हो। इसी प्रकार मजदूरों, तकनीकी कामगारों के जीवनों को देखें तो उनका जीवन बहुत कठोरता भरे मन से भरा हुआ होता है। वो तो अप्ने मेहनत भरे कार्य के बदले ली जाने वाली पूँजी पर झूठ, छल-कपट का भी आश्रय ले जाते हैं। ऐसे लोग भी अपने से बेहतर आरामपरस्त कार्य करने वालों से ईर्ष्या रखते हैं।
इसी प्रकार चाहे गैर-कानूनी काम कर्ने वाले लोग हों या कानूनी रूप से काम करने वाले ईमानदार लोग सभी की स्थिति एक जैसी ही होती है। क्योन्की सभी अप्ने अप्ने कामों पर दंभ भरते हैं, और उनमें अप्ने अप्ने कामों के प्रति एक सूक्ष्म घमंड होता है कि 'मैं कर्ता हूँ !' यही मैं कर्ता हूँ का भाव उनमें मोह, लोभ, झूठ, छल-कपट, ईर्ष्या और द्वेष को उत्त्पन्न करता है।
*याद करिये जब हम बच्चे थे और हमारे पास कोई काम-धंधा नहीं था तो हम कैसे थे !
क्या हम इस धरा पर किसी स्वर्गदूत से कम थे ?
क्या हमारे चेहरे पर वो रोनक और कान्ति नहीँ थी जिसे देखते ही हर कोई हमारी ओर आकर्षित हो जाया करता था, हमें प्यार से सहलाने लगता था, हमसे बातें करने लगता था, हमारे साथ अधिक से अधिक रहना पसंद करता था।
तो क्या अब हम जो बड़े हो गये हैं अब ऐसी हालत है हमारी ?
नहीं न ? क्योंकि हमारी सादगी, हमारी मधुरता, हमारा जीवनरस और हमारे जीवन का संगीत जो हममें ही है, हमारे कामों (Works) के कारण मर से गये हैं। इसीलिये सब कुछ (कामों को) करने के बाद भी हमें वो आनन्द, वो मधुरता और वो शान्ति की अनुभूति नहीं हो पाती जैसा हम बचपन में महसूस किया करते थे।
तो फिर क्या हमें काम नहीं करना चाहिये ?
काम करना अब मनुष्य की मजबूरी है, क्योंकि उस्ने अप्ने लिये समाज बनाया है। उस्ने समाज ही नहीं वरन राज्य और महाराज्य भी बना लिये हैं। तो जाहिर सी बात है वो किसी मकड़ी की तरह अपने लिये जाला बुन चुका है और यही उसका सँसार है। काम के रूप में मनुष्य ने अपने भाग्य की रचना हजारों-लाखों साल पहले ही कर डाली थी । अब ऐसे में वही मनुष्य इस मकड़जाल से जीते जी बाहर निकल सकता है जो अपने हर काम को 'मैं कर्ता हूँ' के भाव से नहीं करता है।
ऐसा मनुष्य ही काम करते हुये भी आसक्ति रहित रहता है और उसमें अहम (घमंड), मोह , लोभ, झूठ, छल-कपट, ईर्ष्या और द्वेष इत्यादि की उपज नहीं हो पाती। वो इन संसारिक कामों को करते हुये भी निर्मल व निष्पाप हो जाता है। उसका हृदय बालकों (छोटे बच्चों) के समान हो गया होता है, क्योंकि वास्तव में परम+ईश्वर ने हमें ऐसा ही बनाया है। उसने हमें इस धरा पर काम करने के लिये नहीं बनाया था वरन इस धरा को भोग्ने के लिये ही बनाया था (see the book of Genesis in the Bible).
पर अफसोस ! हमने यह क्या कर डाला।
हमारे कामों से तंग आ कर प्रकृति ने भी Lockdown कर डाला !!!!