*क्या जातिव्यवस्था एक प्राकृतिक व्यवस्था है ?*

जातिव्यवस्था का सच !

क्या जातिव्यवस्था एक प्राकृतिक व्यवस्था है ? (एक सच)

   भारतीय सनातन धर्म में जातिवाद की अवधारणा प्रचलित है।

  तो क्या यह अवधारणा वास्तविक है, या फिर यह किसी मनुष्य विशेष की फिलासफी मात्र है ?

  परंतु हां, यह सच है कि मानवता में जातिवाद प्रचलित है।  केवल भारत ही में नहीं वरन सम्पूर्ण मनुष्य सभ्यताओं में जातिवाद होती है, किन्तु उस रूप में नहीं जिस रूप में भारत में होती है।

  वास्तव में जातिवाद कोई अवधारणा या फिलॉसफी नहीं है, यह तो मनुष्यजाति में प्रकृतिजनित वे गुण हैं जिनके आधार पर ही कोई मनुष्य अथवा व्यक्ति कर्म करता है।

  जातिवाद की वास्तविकता 

  जातिवाद की उत्त्पत्ति संस्कृत भाषा के 'वर्ण' शब्द से हुई है जिसका अर्थ होता है- रँग अथवा गुण। जातिवाद के संदर्भ में सनातन धर्म में इसका आशय है- गुण।

  हां, प्रकृति ने मनुष्य को चार गुणों से सुसज्जित किया है। ये चार गुण हर व्यक्ति में बराबर मात्रा में विद्यमान नहीं होते। हर मनुष्य (व्यक्ति) में इन चार गुणों में से एक ही गुण प्रधान होता है। इसलिये जिस व्यक्ति में जो गुण प्रधान होता है वह व्यक्ति उस जाति का व्यक्ति होता है। 

  जैसे यदि किसी व्यक्ति का गुण लेखन, कविता, दार्शन, शिक्षण व विज्ञान इत्यादि के क्षेत्र में हो, तो वह व्यक्ति ब्राह्मण कहलाता है।  तो इसी प्रकार सेना के क्षेत्र में रुचि रखने वाला व्यक्ति क्षेत्रिय कहलाता है। व्यापार, व्यवसाय, कृषि इत्यादि के क्षेत्र में उत्साहित होकर बड़ी ही रुचि से काम करने वाला व्यक्ति वेश्य कहलाता है।  तकनीकि कला, मजदूरी, शारीरिक श्रम इत्यादि में रुचि दिखाने वाला व्यक्ति शूद्र कहलाता है।

  ये सभी मनुष्यजाति के गुण हैं, केवल गुण। सारी मानवजाति पर यदि हम नजर दौड़ाएं तो यही सब पायेंगे- केवल ये चार गुण, जिन्हें सनातन धर्म में चारवर्ण या फिर चार जातियां कहा गया है।

  यदि कोई डाक्टर है तो यह जरुरी नहीं कि उसका बेटा भी डाक्टर ही बने। एक डाक्टर का बेटा बस कंडक्टर भी बन जाता है। यदि कोई लेखक या वैज्ञानिक है तो उसका बेटा या बेटी तकनीकी या फिर शारीरिक श्रम के क्षेत्र में भी काम कर जाता है। हम समस्त मानवजाति में यही व्यवस्था पाते हैं कि एक ही घर से अलग-अलग जाति (गुण) के बच्चे उत्त्पन्न होते हैं। यहाँ तक कि जिन पति और पत्नी का विवाह होता है वे दोनो भी अपने-अप्ने स्वाभाविक गुण से अलग-अलग जाति के होते हैं।



 भारतीय सनातन धर्म के एक भाग में भयंकर गलती अथवा दोष !


  इतिहास में सनातन धर्म की सभ्यता में किन्ही लोगों ने मिलकर इस प्रकृतिजनित स्वाभाविक गुण को एक संस्थागत जाति में परिवर्तित कर दिया, जो कि मानवता के लिये एक बहुत बड़ी भयंकर गलती है। 

 *मनुस्मृति के रूप में इस अमानवता को भारतीय जनमानस में परोसा गया है, और यह काम हजाओं सालों पहले ही से होता आया है और अब भी दिन-प्रति-दिन इसकी जड़ें और अधिक मजबूती से फैली जा रही हैं। भारतीय जनमानस का कर्म विधान भी इसी जातिवाद पर आधारित संस्थागत व्यवस्था पर आधारित है। 

 जो जातिवाद पहले प्रकृतिजनित जाति (गुण) की अवधारणा पर आधारित था, इतिहास के एक काले-काल में ये गुण कुछ मानवजनित फिलोसोफि पर आधारित हो गई।

  किसी ब्राह्मण का मुख देखना वास्तव ही में सौभाग्य की तथा मुक्ति की निशानी है, परंतु यदि वे व्यक्ति अपने प्राकृतिक गुण से ब्राह्मण (आध्यात्मिक बुद्धि का) हो तो।  यदि ऐसा ब्राह्मण केवल जन्मकृत (संस्थागत जातिव्यवस्था) ब्राह्मण हो तो इसमें कोई सौभाग्य की बात नहीं होती।

  सनातन धर्म के कर्मविधान में पुनर्जन्म व मुक्ति का जो भी विधान बताया गया है, निसन्देह ! उनके पीछे प्रकृतिजनित जातिव्यवस्था (गुण) विद्यमान है, जो कि अक्षरशः सही है। ऐसी प्राकृतिक व्यवस्था में कहीं कोई अछूत और निकृष्टता की भावना नहीं होती। हाँ, स्तरीकरण जरूर होता है।

 ब्राह्मण स्तर का बुद्धिमान व विवेकीय व्यक्ति  यदि उजाला (ज्ञान) होते हुये भी अंधियारे के जैसे कार्य करे तो ऐसा व्यक्ति निसन्देह, अपने स्वाभाविक स्तर (गुण) से नीचे गिर के अप्ने से निम्न स्तर (गुण) पर पहुँच जाता है। अब यह उसके कर्म पर निर्भर करता है कि उसने किस स्तर का निकृष्ट कर्म किया है।  अत्यन्त निकृष्ट कर्म करने वाला व्यक्ति मरणोपरांत अगले जन्म में शूद्रजाति में जन्म ले जाता है। यदि किसी शूद्र व्यक्ति ने शूद्र मनोमस्तिष्क होते हुये भी ब्राह्मंण के जैसे उत्तम कर्म किये हों तो वह व्यक्ति मरणोपरांत अगले जन्म में ब्राह्मण बन जाता है। यही जातिवाद पर आधारित कर्म व्यवस्था है जो कि पूरी तरह प्रकृतिजनित गुणव्यवस्था है, न की मनुष्य निर्मित (मनुस्मृति) संस्थागत जातिव्यवस्था है !

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