*मृत्यु पर दफनाने और जलाने की प्रथा कैसे उत्त्पन्न हुई ! Rites of death in hindi

 मृत्यु पर दफनाने और जलाने की प्रथा कैसे उत्त्पन्न हुई ! Rites of death in hindi

  दफनाने और जलाने (Rites of death) की प्रथा की उत्त्पत्ति कब और कहाँ से हुई यह पता लगा पाना लगभग नामूमकिन है। क्योंकि इस सँसार में बहुत सी मनुष्य प्रजातियां हैं और उनमें भी उन्हीं की धार्मिक रीवाजों के अनुसार बहुत सी जातियां भी हैं। लेकिन मोटे-तौर पर हम यह आंकलन अवश्य लगा सकते हैं कि इन दफनाने व जलाने की प्रथाओं के पीछे का विज्ञान क्या है, जिससे ही यह पता चल जायेगा कि दफनाने व जलाने की प्रथा की उत्त्पत्ति कब और कहाँ हुई।

  तो आइये इस विज्ञान को समझते हैं:-

  इस जगत में मनुष्यों का मुख्यतः तीन वंशों में विभक्त होना!

  इस जगत में मनुष्यों ने जब अपना सँसार बनाया तो मनुष्य तीन वंशों में विभक्त हुआ। 

  ये तीन वंश हैं - सूर्यवंश, चंद्रवंश और नागवंश।

  मनुष्यों का इन वंशों में विभक्त होने के पीछे केवल प्रकृति के प्रति उनकी गहन दृष्टी और फिलासोफी थी। चूँकि मनुष्य उस काल में प्रकृति से अत्यन्त प्रभावित था, इसलिये यह जाहिर सी बात है कि वे प्रकृति और उसकी स्थितियों व गतियों से बड़े गहरे से गहरे प्रभावित हुआ हो। किसी वस्तु, स्थिति, समय या व्यक्ति से प्रभावित होने का अर्थ यह होता है कि मनुष्य उस वस्तु, स्थिति, समय या व्यक्ति के प्रति अत्यन्त चिंतन-मनन करना आरम्भ कर देता है, जिसके नतीजेतन मनुष्य एक फिलोसोफी को उत्त्पन्न करता है जो कि उसके हृदय, बुद्धि व विवेक से उत्त्पन्न होता है जिसके पीछे केवल प्रकृति की अप्रत्यक्ष अभिप्रेरणा व सत्यता निहित होती है। इसलिये मनुष्य प्रकृति के गहनतम संपर्क में आकर स्वभावतः यह जान गया कि वह इस पृथ्वी की कौन सी दिशा में निवास कर रहा है।

 अत: मनुष्य प्रजातियों का जो हिस्सा पृथ्वी के पूर्वी हिस्सों (भूगोल) में निवास कर रहा था उन्होने स्वयं को सूर्यवंशी मानना शुरु किया।चूँकि सूर्य पृथ्वी के पूर्वी दिशा से उदय होता है इसलिये पृथ्वी के पूर्वी दिशा में निवासित होने के कारण उन्होने स्वयं को सूर्यवंशी कहा। असल बात तो यह है कि सूर्य कोई व्यक्ति तो है नहीं कि जिसके इंसानी बच्चे हों और जो यह कह सकें की वे सूर्यवंशी हैं। सूर्यवंशी होने के पीछे केवल और केवल उन मनुष्यों के पृथ्वी के पूर्वी दिशा में निवासित होने का ही कारण था। ठीक इसी प्रकार चंद्रवंशी मनुष्य प्रजातियों का वे समुह है जो पृथ्वी की पश्चिमी दिशा में निवासित थे। भूगोलविज्ञान के अनुसार सूर्य पृथ्वी की पश्चिमी दिशा में अस्त होता है। जिसके अस्त होते ही रात्रि का आरम्भ होता है और सूर्य अपनी चमक में चंद्र रूप में प्रकट होता है। इस तथ्य को आधार मान कर पश्चिमी दिशा में निवासित मनुष्यों ने स्वयं को चंद्रवंश कहना शुरु कर दिया।  सूर्य और चंद्रवंशी वे प्रजातियां हैं जो अतीत में पृथ्वी के इन हिस्सों में स्थिरता से अपनी-अपनी सभ्यताएं बना कर आवासित थे।

जबकि नागवंशी मनुष्यों की वे प्रजातियां हैं जो इस पृथ्वी पर स्थिरता से कहीं टिक न सके। कभी इधर तो कभी उधर। उनका कहीं कोई स्थिर ठिकाना न था। इसलिये उनकी कोई सभ्यता नहीं थी। ये लोग खानाबदोशी (घुमंतु) जातियां थीं और तंबुओं में रहते थे। ये प्रजातियां स्वयं को नागवंशी इसीलिये कहते थे क्योंकि इनका स्वभाव व गति नागों (सर्पों) की तरह था। नाग (सर्प) भी पृथ्वी के किसी कोने में यूं स्थिरता से नहीं रहते। उनका कहीं कोई निश्चित ठिकाना नहीं होता। नाग हमेशा भटकते रहते हैं और जगह जगह अपना ठिकाना बनाते हैं और फिर छोड़ देते हैं। इन लोगों का स्वभाव भी ठीक ऐसा ही था।

  सूर्यवंश में जलाने की प्रथा

  सूर्यवंश में जलाने की प्रथा के पीछे का विज्ञान यह रहा है कि पृथ्वी के पूर्वी दिशा से सूर्य के उदय होते ही वातावरण में से जितनी भी नकारात्मक शक्तियां हैं या फिर हानिकारक विषाणु, किटाणु या अदरिश्य सूक्ष्म जीव, उन सबका अन्त उसकी किरणों में उपस्थित अग्नि के कारण हो जाता है. इसलिये पृथ्वी के पूर्व दिशा में रहने वाले मनुष्य जब मरते हैं तो उनकी लाश में से पश्चिम दिशा में मरने वालों की अपेक्षा अधिक हानिकारक कीटाणु, विषाणु और अति सूक्ष्म जीव उपस्थित होते हैं, जिनका खात्मा केवल और केवल अग्नि को सूर्य रूप मान कर किया जा सकता है। इसीलिए इस गहन विचार अथवा चिन्तन के अनुसार सूर्यवंशीयों ने मरणोपरांत मनुष्यों को जलाना शुरु किया।

 चंद्रवंश में दफनाने की प्रथा

 चंद्रवंश में दफनाने की प्रथा के पीछे का विज्ञान यह है सूर्य पश्चिम दिशा में अस्त होता है अर्थात वह पृथ्वी के गर्भ में डूब जाता है। अतः चंद्रवंशीयों ने यह माना कि उन्हें अप्नी भौगोलिक स्थिति के अनुसार अपने स्वजनों की लाशों को धरती के गर्भ में दफनाना चाहिये। इसीलिये पश्चिमी जगत के लोगों में दफनाने की प्रथा का विकास हुआ। इसका आद्य-ऐतेहासिक प्रमाण हम बेबिलोन में चंद्रदेव की समाधि के होने से जान सकते हैं।

 नागवंशीयों की मरणोपरांत प्रथा

  नागवंशीयों की मरणोपरांत कोई निश्चित प्रथा नहीं थी, क्योंकि ये पृथ्वी की जिस दिशा में जाते उसी दिशा की मरणोपरांत प्रथा को अपनाते।  

 पृथ्वी की उत्तर और दक्षिण दिशा की मरणोपरांत प्रथा

  पृथ्वी की उत्तरी दिशा में मनुष्यों के समान प्रजाति वास करती थी। जिन्हें ही शायद हमारे वेदिक शास्त्र देव कहते हैं। इसके विपरीत पृथ्वी के दक्षिणी दिशा में मनुष्यों के समान मगर विकराल और भयभय प्रजाति रहती थी, जिन्हें ही शायद हमारे वेदिक शास्त्र असुर, राक्षस या दानव कहते हैं। इन तथ्यों का आधार यह है कि आज भी हमारी भारतीय परंपरा में यही कहा जाता है की उत्तरी दिशा में देवता रहते हैं, वो देवताओं का निवास स्थान है और दक्षिणी दिशा असुरों का है। तो जाहिर सी बात है कि इन पारंपरिक बातों के पीछे कुछ तो सच होगा। क्योंकि हमारे पूर्वज (मनुष्यों के) इतने बेवकूफ तो नहीं थे, वे जो भी कहते थे या करते थे उनके पीछे कुछ न कुछ तो सच होता ही है जिसे आज का विज्ञान भी मान चुका है।  देवतागण भी उत्तरी दिशा के निवासी होने के कारण स्वयं को मरणोपरांत जलाते थे। और उधर असुरगण पश्चिमी दिशा के निवासी होने के कारण स्वय्ं को मरणोपरांत दफनाते थे।

  जैसे जैसे समय आगे बड़ता गया देवतागण और सूर्यवंशी एक दूसरे की भूमि पर आवासित होने लगे। इसी तरह चंद्रवंशी और असुरगण भी एक दूसरे की भूमी पर आवासित होने लगे। लेकिन इन्होने अपनी अपनी हदें सूर्य उदय और अस्त के अनुसार पार नहीं की। अपने अपने मृत्यु के संस्कारों को कायम रखा।

 कलयुग का आरम्भ

  विशेष कर कलयुग का आरम्भ तभी से माना जा सकता है जब से चंद्रवंशीयों और सूर्यवंशीयों ने अपने-अपने भौगोलिक स्थानों को छोड़ दिया और जाकर अपने से विपृत भौगोलिक दिशाओं में रहना शुरु किया। सूर्यवंशी केवल पूर्वी व उत्तरी दिशा में रह सक्ते हैं क्योंकि उन्होने इन दिशाओं के आधार पर स्वयं को सूर्यवंशी माना था, और उनका यह गहरा ज्ञान और फिलॉसफी जो की प्रकृति से सत्यवत प्रभावित व ग्राह्य थी उनके DNA में जडमत हो चुकी थी।  उत्तर दिशा को पूर्व दिशा के समकक्ष माना जाता है, जबकि पश्चिम दिशा को दक्षिण दिशा के समकक्ष माना जाता है।  इन्हीं नियमों के उल्लंघन करने पर भी कलयुग का आरम्भ हुआ माना जा सकता है।

 तो आगे के किसी लेख में हम शीघ्र ही जानेंगे कि दफनाने और जलाने के बाद मनुष्य किन-किन गतियों को प्राप्त होता है, अर्थात उसका क्या होता है!...................

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