*लोकतांत्रिक भ्रष्टाचार को कैसे मिटायें ?*

  
Loktantrik bhrashtachar !

  लोकतांत्रिक भ्रष्टाचार को कैसे मिटायें? 

  भारत में भ्रष्टाचार का सामना करने के लिये यह नितांत आवश्यक है कि लोकतंत्र में निर्दलीय-शासन प्रणाली होनी चाहिये। 

निर्दलीय-शासन प्रणाली की आवश्यकता!

  वैसे तो पारंपरिक विद्वानों का यह मानना है कि लोकतंत्र की सफलता के लिये लोकतंत्र में दलीय-व्यवस्था होनी चाहिये।  दलीय व्यवस्था होने से लोकतांत्रिक समाज में विद्यमान नाना प्रकार की भिन्न-भिन्न विचारधाराओं, आवश्यकताओं की लोकतांत्रिक ढ़ंग से परिपूर्ति हो जाती है। परन्तु सच कहें तो वस्तु-स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। 

  लोकतंत्र में लोग अपनी-अपनी भिन्न-भिन्न मांगों, विचारधाराओं, सिद्धांतों और आवश्यकताओं को लेकर राजनैतिक दल बनाते हैं, परन्तु ये दल राष्ट्र-हित से बढ़कर दलीय-हितों को ही अधिक महत्व देते हैं। यही नहीं, ये राजनैतिक दल सत्ता के लालच में (राजनैतिक भ्रष्टाचार) इस कदर गिर जाते हैं कि दलीय गठबन्धन तक कर लेते हैं। इस प्रकार लोकतंत्र की गरिमा और लोकतांत्रिक बहुसमाज के हितों की हानि हो जाती है। 

  किसी भी लोकतंत्र में वहाँ का संविधान (चाहे लिखित हो या अलिखित) ही सर्वोपरि होता है, क्योंकि संविधान लोकतंत्र का प्राण होता है। अतः संवैधानिक लोकतंत्र में विभिन्न राजनैतिक दलों का हमेशा के लिये सफाया कर देना चाहिये। आखिरकर भ्रष्टाचार से लोकतंत्र की बुनियाद कमजोर होती है!

  राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों की आवश्यकता!

  अब मन में यह सवाल जरूर उठेगा कि कहीं ऐसा कर देने से लोकतांत्रिक ढांचे को चोट न लग जाये या फिर लोकतंत्र धराशायी न हो जाये। नहीं, ऐसा कुछ नहीं होने वाला। तो क्या यह सच नहीं कि हमारे लोकतांत्रिक समाज की सारी मूलभूत आवश्यकताओं से लेकर विस्तृत आवश्यकताओं और विचारों का जिक्र जो की राष्ट्र व लोकतंत्र के हित में है का वर्णन हमारे संविधान के 'राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों' में है।  यदि कोई भी व्यक्ति जो लोकतांत्रिक ढ़ंग से समाज व देश की सेवा करना चाहता है तो वह अपने सिद्धांत व राष्ट्र-हितैषी विचारधाराओं को संविधान के राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों से ले सकता है. या दूसरे शब्दों में कहें संविधान में उल्लिखित लोकतंत्र हितैषी व राष्ट्र हितैषी सिद्धांतों, विचारों, मांगों और आवश्यकताओं को आधार मानकर चुनाव लड़ सकता है।

  वैसे तो राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांत लोकतंत्र में किसी भी राज्य के लिये दिशा-निर्देश हैं, परन्तु यदि इन्हें भी आधार मानकर या इसके अतिरिक्त संविधान में नये मानदंडों को व्यवस्थित किया जाये जो कि लोकतंत्र हितैषी व राष्ट्र हितैषी हों। इस तरह की संवैधानिक व्यवस्था में किसी भी प्रत्याशी के लिये यह निर्धारित किया जाये कि उसे जनता के हित में क्या क्या करना है। यदि कोई प्रत्याशी चयनित हो जाता है, परन्तु संविधान की उक्त व्यवस्था के अनुरूप योग्य काम न कर पाता हो तो ऐसी स्थिति में उसे पदच्युत करने की भी व्यवस्था की जानी चाहिये। हमारे देश भारत में चयनित नेता की अयोग्यता के कारण उसे सत्ता से वापिस उतारने की कोई सरल व्यवस्था नहीं है। जिस कारण एक अयोग्य और भ्रष्ट नेता पूरे 5 वर्ष तक किसी खटमल या मच्छर की तरह जनता का सारा खून चूस जाता है और लोकतांत्रिक समाज को बीमार कर जाता है।

    साराँश 

  अतः ऐसी संवैधानिक व्यवस्था तो होनी ही चाहिये, जो एक मापदंड हो उस प्रत्याशी के लिये जो चुनाव में खड़ा होना चाहता है कि वे उस पर चयनित होने के बाद खरा-खरा उतरे।

  किसी भी प्रकार के राजनैतिक दलों के अस्तित्व में होने से लोकतंत्र का स्वास्थ्य खतरे में ही रहता है। बहुदलीय प्रणाली लोकतंत्र में विस्फोट के लिये अच्छा है। धर्म, संप्रदाय, भाषा व जाति पर आधारित बहुदलिये प्रणाली लोकतंत्र के लिये किसी परमाणु बम से कम नहीं। हाँ, द्विदलीय शासन प्रणाली काफी हद तक अच्छी है, पर उत्तम तो कदापि नहीं।

  इसीलिये भारत में भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए सबसे बेहतर तो यही होगा कि संपूर्ण रूप से लोकतंत्र में से राजनैतिक दलीय-व्यवस्था को समाप्त कर दिया जाये।  जो जो भिन्न-भिन्न सिद्धांत, मांगें व आवश्यकतायें भिन्न-भिन्न राजनैतिक दलों के होते हैं उन्हें छोड़ संवैधानिक रूप से सर्व-लोक-हितैषी सिद्धांतों, मांगों व आवश्यकताओं को किसी भी प्रत्याशी के लिये चयनित हो जाने के बाद संवैधानिक कानूनी रूप से एक मापदंड मान लिया जाना चाहिये।  ऐसा करने से लोकतंत्र में से भ्रष्टाचार का समूल रूप से नाश हो जायेगा और लोकतंत्र विशुद्ध रूप से स्वस्थ तथा पवित्र बन जायेगा।

  अतः लोकतांत्रिक जनता को चाहिये कि इस संदर्भ में जरा गंभीरता से सोच विचार करें, क्योंकि इसमें लोकतंत्र के लिये हानि कम और लाभ ज्यादा है ! 

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