*जानिये भगवतगीता की सच्चाई !*

 

  
भगवत गीता की सच्चाई !

जानिये भगवतगीता की सच्चाई! 

   shrimad bhagwat geeta हिन्दुओं की एक पवित्र आध्यात्मिक पुस्तक है।  यह पुस्तक एक धार्मिक पुस्तक नहीं है। हिन्दु संस्कृति विशेषत: एक दार्शनिक सँस्कृति है, जिसका एक पहलु मनुवादी धर्म का है जो की यहाँ की भूमि में व्यापक है, और इसका दूसरा पहलु ऋषियों द्वारा रचित दार्शनिक पुस्तकों का है, जो की यहाँ की भूमि के जनमानस में व्यापक नहीं। उन्हें केवल इन पुस्तकों के नाम मालूम हैं परन्तु उनमें छिपे ज्ञान मालूम नहीं। भगवतगीता ऋषियों द्वारा रचित दार्शनिक पुस्तकों का निचोड़ है, सार है। यह पुस्तक संपूर्ण सृष्टि के रहस्यों को उजागर करती है। इस पुस्तक में ना तो लौकिक इतिहास का, ना तो लौकिक धर्म का और ना ही लौकिक बातों का ही जिक्र है। इस पुस्तक में पूर्णत: इस सृष्टि व पारलौकिक सृष्टि का ही जिक्र है। इस पुस्तक को पढ़ते ही ऐसा लगता है कि मानो कोई वैज्ञानिक पुस्तक या यूं कहें परा-वैज्ञानिक पुस्तक या परा-मनो-वैज्ञानिक पुस्तक पढ़ा जा रहा हो।

  किन्तु इतना कुछ होने पर भी भगवत गीता की आवश्यकता इसलिये जान पडी क्योंकि यहाँ बहुत सी बातें स्पष्ट नहीं हैं। जो बातें व्याख्यित हैं उनमें सृष्टि के मूलतत्व (परमात्मा) की संरचना, स्वभाव और चरित्र के बारे में बहुत से बिन्दुओं में प्रश्नचिन्ह आ खडे होते हैं।

 तो आइये जरा श्रीमदभगवत-गीता के व्याख्यान पर विश्लेषण करते है:-

  सृष्टि निर्माण और मोक्ष की संकल्पना 

  पहली समस्या, मोक्ष अति दुर्लभ है। जो दिखता नहीं उस पर विश्वास कैसे किया जाये !

  दूसरी समस्या, मोक्ष पाने के लिये मनुष्य को अपनी बुद्धि से लेकर अपने प्राण शरीर तक को मारना पड़ता है। एक जागृत आत्महत्या अथवा समाधि। ईश्वरीय सृष्टि के भोगों से विरक्त होना पड़ता है।

  संपूर्ण गीता का सार यह है >  परमात्मा ने यह सृष्टि बनाई। आद्य प्रकृति उसकी अपनी कृति है अर्थात उसका अपना हिस्सा जो तीनों गुणों से युक्त है। अब परमात्मा इस प्रकृति में उतरता है और उसे विभिन्न आयाम, रूप-रँग व आकार देता है। वह अपने आपको पंचमहाभूतों के पिण्ड में (पृथ्वी) बीज रूप में विभक्त करता है। फिर उसकी अपनी जड़-प्रकृति उसे विभिन्न रूप-रँग व आकार और स्वभाव देती है। किन्तु जो बीज रूप में इन आकारों व स्वभावों में ढलता है वह तो एक समान रहता है। वह तो अपरिवर्तित है। वह स्वयं इन तीनों गुणों से संपन्न प्रकृति में दुख झेलने के लिये उतरा है, अथवा परमात्मा ने अपने अंशों को दुख झेलने के लिये इस प्रकृति में स्थापित किया है। हर चीज का कर्ता वह स्वयं है और फिर यह कहता है की मैं कर्ता नहीं हूँ। यही नहीं अपने जीव रूपों से (जीव-जन्तुओं, पशु-पक्षियों और मनुष्य आदि) भी कहता है की तुम भी कर्ता नहीं हो, वरन यह प्रकृति (त्रिगुण-प्रकृति) कर्ता है.....................

   तुम स्वयं को अकर्ता जान इस प्रकृति से बाहर निकल आओ। इसके लिये तुम्हें स्वयं को भूलना होगा अथवा स्वयं को हृदय ही हृदय से मारना होगा। जिस हेतु से जीवात्मा का जन्म भोगने के लिये होता है तुम्हे वह नहीं भोगना है। क्योंकि भोग चाहे किसी भी तरिके से हो भोग भोग ही होता है। उससे तुम प्रकृति के गुलाम ही बनते हो। अत: पूर्ण वैराग्यवान हो जाओ।

  इन उपर्लिखित पंक्तियों को ध्यान से पढ़ कर सोचो और समझो - सब परमात्मा के आधार संकल्प से उत्त्पन्न हुआ है। अब परमात्मा स्वयं कहते हैं कि संकल्प मत लो। तुम वास्तव में एक ज्योति हो, एक ऐसी ज्योति जो रस, गन्ध, स्पर्श, रूप और शब्द नहीं करती। जिसका अपना स्वयं का आप आनन्द है।

  यदि ऐसा ही है तो आत्मा क्यों प्रकृति में सम्मिलित हुई ? वह तो ज्ञानस्वरूप है। वह तो प्रकृति के सारे गुणों को और उनके फलों को जानता है। वह (आत्मा>परमात्मा के अंश) जीवन में प्रवेश क्योंकर करता है और फिर अपने पूर्ण ज्ञान से जागृत अवस्था में जीवन हत्या करता है- मुझे जी कर भी नहीं जीना, सब जगह दुख है। सब जानते हुये भी प्रकृति को उसी ने आकर्षित किया, न कि प्रकृति ने। और अब देखो, जीवात्मा उस परमात्मा के बनाये हुये मकड़जाल से निकलने की कोशिशें करता है। अपनी हालतों का खुद दोषी (आत्मा अथवा परमात्मा) और फिर कहता है की मैं निर्दोष हूँ।

  खुद संकल्प के आधार अपना भौतिक शरीर (कल्पवृक्ष अथवा ब्रह्मांड या फिर जीव शरीर) बनाता है और फिर कहता है कि यह शरीर व्यर्थ है।   जीवन मुझसे (आत्मा अथवा परमात्मा) है, मृत्यु भी मुझसे ही है। ऐश्वर्य और दुखों का भोक्ता भी मैं ही हूँ। प्रकाश और अंधकार भी मैं ही हूँ। सत्य और असत्य भी मैं ही हूँ। परन्तु वास्तव में मैं ना तो सत्य हूँ और न ही असत्य ही हूँ।

  संपूर्ण निष्कर्ष, गीता का परमेश्वर शून्य है। यह मात्र एक स्थिति है जहाँ कोई व्यक्ति या व्यक्त भाव नहीं होता, केवल खालिस्थान। गीता का परमात्मा अवतार भी लेता है तो भी वह स्वयं ही दोषी है। हर चीजों का कर्ता वह स्वयं है। उसी ने ही प्रकृति और उसके गुण बनाये। उसी ने अप्रत्यक्ष रूप से रह कर काम, क्रोध, लोभ, मोह, इर्ष्या, द्वेष और अहंकार बनाये, लेकिन फिर कहता है की मैने नहीं बनाये, तो फिर कहता है कि ये सब भाव मुझ ही से हैं, क्योंकि मुझसे परे कुछ भी नहीं। फिर इसी संदर्भ में कहता है कि इन सब दोषों से निकल आओ। 

  हाय ! कितना कष्टकारी और दुखी करने वाला है यह परमेश्वर (परमात्मा)।  यह अपने ही बनाये हुये निर्दोष आत्माओं को अपनी ही बनाई दोषवान प्रकृति में ढ़ाल कर उन्हें दुख देता है ओर कहता है, खुद को समझो, पह्चानों और बाहर निकलो।

  जो प्रकृति से बाहर निकलने के इस क्रम में प्रकृति का दास है वे दुख झेले बेचारा। गीता के अनुसार, भयंकर नरक का अधिकारी भयंकर ताम्सिक गुणों का दास ही होता है। तो ये गुण  या त्रिगुण किसने बनाये ?  ये गुण भी उसने ही रचे हैं तो इसमें उस जीवात्मा का क्या दोष।

  यदि यह संपूर्ण प्रकृति दोषयुक्त है, पापयुक्त है, तो फिर परमात्मा इस प्रकृति में क्यों विराजमान है - जीवात्मा रूप में ?

  इसके विराजने से भी प्रकृति में कुछ सुधार नहीं होता, वरन हाँ, जो निर्दोष है (जीवात्मा) उसमें परिवर्तन अवश्य होता है। वे दोषयुक्त और पापी अवश्य बन जाता है।

  तीसरी समस्या, गीता का परमेश्वर अवतार लेता है समय समय पर, परन्तु उसका मकसद पाप (दोषों) को मिटाना नहीं बल्कि पापी को मिटाना है। गीता में पापी की परिभाषा केवल आतताई और आतंकी लोग ही हैं, जबकि यही परमात्मा आत्म रूप से सभी लोगों में एक समान रूप से विद्यमान है तथा सभी मनुश्य दोषयुक्त हैं। केवल उनके शरीर के नष्ट कर देने से पापों से (दोषों से) मुक्त कर देते हैं यह परमेश्वर। परन्तु जो मन में हैं, जो दिमाग में है, जो चित में है, जो और जैसा वे स्वयं है उसे कैसे नष्ट करेगा यह परमेश्वर ? 

 गीता के परमेश्वर का चरित्र निम्नांकित है:-

 लीलामय (खेल खेलने वाला)।

 रास लीला करने वाला।

 दोषयुक्त।

 करके मुकरने वाला।

 मकड़जाल बनाने वाला।

 अपनी रचनाओं को दुख देने वाला।

 अपने परिवार (जीवसंसार का) का निर्माण भले-बुरे प्रकार की खिचड़ी के रूप में करने वाला।

 हत्यारा (शरीर का निरादर करने वाला।

   गीता में उल्लिखित देवी-देवता असुरों का (बुरी शक्तियों का) नाश करते हैं। मुख्य देवता तीन हैं और देवियां भी तीन हैं। बाकि के समस्त देवी देवता इन्हीं के अंश हैं। ये सब असुरों का नाश करते हैं, क्योंकि ये कल्याणकारी हैं।

  अब जरा ध्यान से समझें ! इनसे बड़े असुर भला और कौन हो सकते हैं ? गीता के ही अनुसार, क्या प्रकृति के ये तीन गुण हीं मनुष्य को शूल की भाँति नहीं चूभते ? क्या ये तीन गुण जो की तीन देवता या देवियों के परिचायक हैं ही हमें कष्ट नहिं देते, क्या ये ही इस सृष्टि में हमारे लिये बन्धन का कारण नहीं ? 

 तो फिर इनसे बडा दुखों का, कष्टों का, और नाश का कारण भला और कौन हो सकता है ? 

  ये स्वयं जीवों में अपने गुणों का समावेश करवाते हैं अथ्वा करवाने देते हैं और फिर उक्त जीव के नाश के लिये पुराण रचते हैं।

  ये सभी देवी-देवता किनसे लड़ते हैं, कौन सी शक्ति है जिनसे ये लड़ते हैं ? ,shrimad bhagwat geeta यह बताने में असमर्थ रहा।

  वास्तव में ये देवी-देवता स्वयं से स्वयं को ही मारते हैं।

  अत: परमात्मा का अर्थ यह नहीं कि उसमें मन, बुद्धि व इन्द्रियां नहीं होतीं और अहंभाव तथा संस्कार भी नहीं होते। ये सब होते हैं। इन्हें ही संपूर्ण रूप में परमात्मा या फिर जीवात्मा कहते हैं।

  परमेश्वर के मन ने कुछ बनाने की ठानी और उसकी बुद्धी ने ताना-बाना बुना, उसकी इन्द्रियों ने हरकतें कीं और फिर सब्से बढ़कर उसके अपने संस्कार ने (सत्य) उसकी सभी योजनाओं को व्यवस्थित किया, और तभी उसने स्वयं को मैं कहा। इससे पहले मैं कहने के लिये कोई आधार ही न था।

  ठीक इसी प्रकार, जीवात्मा का मन, बुद्धि, इन्द्रियां, अहंभाव व शरीर है और वे भी संस्कारित है। उसका स्वरूप परमात्मा का ही स्वरूप है !

  यह समालोचना मात्र कोई निष्कर्ष नहीं है वरन एक पहल है उन कमियों को उकेरने की, जिनकी ओर मनुष्य का ध्यान कभी जाता ही नहीं। ऐसी कोशिश का मकसद विश्वास के क्षेत्र में संदेह पैदा करना नहीं, बल्कि आध्यात्म के क्षेत्र के ज्ञान की सही सही ढ़ंग से खोज करना है।

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