*आतंकवाद का असली इतिहास, भ्रम और यथार्थ ! Terrorism real history in hindi*

आतंकवाद का इतिहास !

आतंकवाद का असली इतिहास, भ्रम और यथार्थ ! Terrorism real history in hindi

  मान्यतानुसार, प्रभु यीशु की मृत्यु के चार सौ साल बाद इसाईत के प्रचारक अरब देश में भी पहुंचे, जहाँ उनकी मुलाकात मुहम्मद साहिब से हुई। आतंकवाद का इतिहास की इस दास्तान में मुहम्मद जी ने "ईश्वरीये मानवतावादी" संदेश को बड़े ही गहरे दिल से ग्रहण किया। जबकि मुहम्मद साहिब आरम्भ ही से अरब समाज में व्याप्त (बहुदेववाद) पाखण्डी व रूढ़िवादी मजहब से दुखी थे। वो अपने अरब समाज में परिवर्तन लाना चाहते थे। इसलिये इस लिहाज से भी उन्हें इसाईत की "ईश्वर्येमानवतावाद" पसंद आई।

  *आतंकवाद के बारे में विभ्रम और यथार्थ !

  मानवततावादी ईश्वर को अह्सास व अनुभव करने के लिये और अपने स्वयं के चारित्र को मानवीय सयंम से भरने के लिये उन्होनें उम्र के 40वें वर्ष में जंगल में जाकर निराहार ईश्वरीये ध्यान किया।

   मुहम्मद जी एक धनी स्त्री फातिमा बेगम के शौहर थे, इसलिये उनका अरब समाज में बड़ा ही सम्मान था, और इस पर उनका उम्र के 40वें वर्ष में जंगल में तपस्या करने जाना उनकी इज्जत को अरब समाज में और अधिक बड़ा गया। जब वह जंगल से लौटे तो सभी ने यह जानना चाहा कि वह किस देवता के संदेश को लेकर जंगल से लौटे हैं और उनमें कौन सी चमत्कारी शक्ति का आविर्भाव हुआ है। इस पर मुहम्मद साहिब जी ने जब उन्हें अपना संदेश सुनाना आरम्भ किया तो समाज वाले हैरत में पड़ गये। क्योंकि ऐसा संदेश उनके समाज में इससे पहले कभी सुना नहीं गया था।

  मुहम्मद जी के संदेशों में यहुदी धर्म और येशु जी के पहाड़ी उपदेशों की छाप के साथ-साथ धर्म के ईमान को इंसानी व्यवहार में लाने के कड़े नियम भी मौजूद थे।  ये नियम कुछतर कड़े इसीलिये भी थे, क्योंकि उक्त काल के अरब समाज की कुरीतियों को अंकुश में लाने के लिये।

  मुहम्मद जी के ये नियम flexible थे, यानी की समय व परिस्थितियों के हिसाब से इनका लागुकरण होना था। परन्तु आगे चलकर मुहम्मद जी के अनुयायी मुहम्मद जी की अच्छी मंशा को न समझ पाये और इस्लाम के कड़े नियम (कट्टर) को ही इसका स्वरूप समझ लिया, जबकि इस्लाम का वास्तविक स्वरूप था- इंसानियत, केवल इंसानियत !

  जब कभी कोई व्यक्ति, परिवार या फिर समाज किसी नियम को कड़ाई से मनवाना चाहता हो तो उसके लिये यह जरुरी हो जाता है कि भय और दण्ड की व्यवस्था की जाये। इसीलिये इस्लाम में भी भय और दण्ड की व्यवस्था की गई। परन्तु ये सब भी एक सीमा में ही था, हालतों और समाज के हितों के अनुरूप। इस्लाम की यह व्यवस्था यहुदी व्यवस्था ही के समान थी।

  उक्तकाल में समाज में कहीं भी आतंक का नामो-निशान तक नहीं था। संभवत: इस्लाम के उदय होने से लेकर 15वीं-16वीं शताब्दी तक, या फिर 21वीं सदी तक इस्लाम में हमने कहीं भी आतंक को व आतंकवाद को नहीं देखा। हाँ, यह बात अलग है कि इतिहास में कुछ इस्लामी शासक व लुटेरे आतंकी जरुर हुये हैं, परन्तु ऐसा होते तो हमने हर मजहबों के सिरताजों को भी देखा है।

  जबकि आतंकवाद के होने की पीछे की सच्चाई तो यह है कि इससे पहले की इस्लाम में आतंकवाद आया, इसाईत में आतंकवाद पहले आया।


  यूरोपियन क्रिश्चियन धर्म- *The law of Inquisition!*

   मध्ययुग में युरोप में इसाईत का बोलवाला था। यूरोपियन इसाईत के कई समुदाय इस कदर अपनी धार्मिक व्यवस्था में कट्टर थे कि वे अपने मत व नियमों को सर्वोपरि मानते हुये, औरों से मनवाने के लिये अपनी कौम पर बेलगाम जादतियां करते थे, और यहाँ तक की वे गैर मजहबी लोगों को नफरत भरी नजरों से देखकर उन्हें भी स्वयं के कट्टर धर्म के मातहत लाकर आतंक से भरा जुर्म करते थे।

  यदि हम यूरोपियन इतिहास को पढ़ें, तो यह पता चलता है कि यूरोपियन ईसाइयत ने किस तरह मध्ययुग में अपने और बाहर वाले समाजों में आतंक का तांडव मचा रखा था। :-

 *उन्मुक्त और स्वच्छंद स्वभाव की स्त्रियों को उन्होने "डायन" करार देकर बीच-चौराहे पर जिन्दा जलवा डाला।
 *इससे पहले की इस्लाम में बुरका-प्रथा आई, पहले इसाईत के वेजेंटाईन साम्राज्य में बुरका-प्रथा की शुरुवात हुई।
 *इस्लाम आज जो-जो कर रहा है वो सब मध्ययुगीन ईसाइयत की नकल-भर है, जैसे, इंसान और जानवरों को बड़े ही निर्ममता से मारना।

 *अतीत में जिन भी अच्छे लोगों ने इन कट्टर व्यवस्था के विरुद्ध कुछ भी कहा, उनको भी इन्होने काफीर (दुष्ट और शैतान) करार देकर बीच-चौराहे पर जिन्दा जलवा डाला। जिनमें आज बहुत से नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं, जैसे, संत वेलेंटाईन आदि-आदि।

  *इसके अलावा जिन्होने धर्म-कर्म की चिंता किये बगैर केवल प्रकृति व प्रकृति के रहस्यों को जानना चाहा और उन पर प्रयोग व आविष्कार करना चाहा, उन्हें भी इन्होनें अपने तंग-खयालातों के चलते बीच-चौराहे पर जिन्दा जलवा डाला, या फिर सूली पर लटका डाला। जिनमें बहुत से नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं, जैसे, गेलिलियो-गेली इत्यादि।

 *आतंकवाद की यह घृणित सोच केवल यहीं तक न रूकी बल्कि स्वयं के धार्मिक फिरकों में भी धार्मिक मतों को लेकर झगड़ा रहा जिसने की उस काल में आतंकवाद का रूप लिया था और हजारों-लाखों लोगों की जाने गईं थीं।

  *यूरोपियन ईसाइयत का आतंकी रूप अपने आसपास की हर कौमों पर बेइन्तहाँ आतंक ढ़ाहाता था।

  उस काल में यूरोप अपने आप में एक दुनियां रही है।  उस काल में कोई एक सम्राट इतना शक्तिशाली नहीं था कि वह अपने पांव युरोप से बाहर की दुनियां में फैलाये। यदि ऐसा हुआ होता तो शायद आज जैसा आधुनिक युग में हुआ है इस्लाम आतंकवाद के नाम से पहचाना गया है, यूरोपियन ईसाइयत भी आतंकवाद के नाम से पहचानी जाती। इस्लामी आतंकवाद के जगजाहिर होने के पीछे केवल आधुनिक अन्तर्राष्ट्रीय आवागमन की सुविधा है।

 यूरोपियन क्रिस्चनस के आतंक के साये को धीरे-धीरे वहाँ उदित विज्ञान की विचारधारा ने समाप्त कर दिया।

 लेकिन इसके विपरीत असलियत में मध्ययुगीन यूरोपियन इसाईतीय आतंकवाद के पदचिन्हों पर चलने वाला इस्लाम आज आधुनिक युग में एक विकराल आतंकवाद बन चुका है, जिसे देखकर हैरानी होती है कि क्या यह वही इस्लाम है जो "इंसानियत" की वकालती करता था ?
अतः यह सोचना व कहना गलत है कि केवल इस्लाम में ही आतंकवाद  है। नहीं, आतंकवाद और आतंकवाद का इतिहास की जड़ों में केवल धर्मों की बातों के मर्म को न समझ पाने की बेवकूफी है। हम कलाम के मर्म को नहीं समझ पाते और कलाम के कड़े-नियमों को जो कि केवल कानून थे (क्योंकि उस काल में धर्मनिरपेक्ष कानून नहीं थे, कानून और धर्म एक ही रूप में थे।) उसे अपनी कट्टरता में तबदील करके आतंक का रास्ता इख्तियार करते हैं, केवल अपनी तंग और गिरी हुई घटिया सोच को इंसान और समाजों से मनवाने के लिये !

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