*लोकतंत्र की सफलता के नए तरीके!*

लोकतंत्र की सफलता की शर्तें !

लोकतंत्र की सफलता के नए तरीके!    

 
 भारतीय शासन व्यवस्था अप्रत्यक्ष लोकतंत्र पर आधारित है। एक ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्था जिसमें लोग अपने प्रमुख नेता को अप्रत्यक्ष ढंग से चुनते हैं। जनता अपने कल्याण की समस्त आशायें अपने जनप्रतिनिधियों के साथ-साथ देश के या राज्य के प्रमुख प्रतिनिधियों पर भी रखते हैं। ये जनप्रतिनिधि राज्य या देश की जनता के कल्याण के लिये कानून बनाते हैं। वे कई प्रकार के नियम व उपनियम बनाते हैं। लेकिन तब भी हमारे लोकतंत्र में संपूर्ण जनता का कोई कल्याण नहीं हो पाता। आखिर क्यों ? शासन व्यवस्था उत्तम है, नियम व उपनियम कल्याणकारी हैं तब भी ऐसा क्यों ? अब इसके जबाव में हमारे विशेषज्ञों के साथ-साथ देश की आम जनता भी इन सारी नाकामयाबियों भारतीय लोकतंत्र की कमियाँ का ठीकरा प्रशासन के ऊपर डाल देते हैं। वे देश के प्रशासनिक अधिकारियों व कर्मचारियों पर दोष लगाते हैं, और जनता स्वयं दूध की धुली बन जाती है। हाँ, मगर इन सब बातों में 30% दोष प्रशासन का रहता है बाकि के 70% दोषों का कारण जनता स्वयं ही है।

लोकतंत्र की कामयाबी का आधार   

  लोकतंत्र की कामयाबी जनता द्वारा अपने जनप्रतिनिधियों को चुनकर संसद या विधानसभा में भेजने मात्र से ही नहीं होती, और न ही उत्तम कानून या कल्याणकारी नियम व उपनियम बनाने से, वरन जनता द्वारा लोकतांत्रिक गतिविधियों (चुनाव के अलावा भी) में प्रत्यक्ष भाग लेने से ही होती है। जनता उच्चस्तर से लेकर निम्नस्तर तक के चुनावों में तो उत्साहित होकर भाग तो लेती है परन्तु जब बात किसी कानून, नियम व उपनियम के लागुकरण की (Implementation) होती है तो भारतीय जनता चुपचाप मूक-बधिर हो जाती है।

  चुनाव के पश्चात जनता कभी भी Grass root level के कार्यों में भाग नहीं लेती। *त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था में लोकतंत्र ने प्रत्यक्ष रूप से जनता की सहभागिता सुनिश्चित की है। जिसके आधार पर ही लोकतंत्र की कामयाबी निर्भर है। पंचायती व्यवस्था में जनता पंचों व सरपंचों को चुनती है। फिर जनता के ये प्रतिनिधि जिस भी राजनीतिक पार्टी से बल पा कर सत्ता में आते हैं, उसी पार्टी या उस पार्टी के चमचों की आवभगत करनी शुरु कर देते हैं। इसके अतिरिक्त ये प्रतिनिधि भाई-भतीजावाद, जात-पात और जान-पहचान या दोस्ताना के आधार पर भी कार्य करते हैं। यहाँ तक की सरकार द्वारा तैनात पंचायत-सचिव भी इन जनप्रतिनिधियों की चमचागिरी करते रहते हैं और साधारण अपरिचित जनता पर धोंस जमाते रहते हैं। जनसाधारण से इस तरह का व्यवहार वे इसलिये कर पाते हैं क्योंकि जनता ने उन्हें ये सब करने की छूट दे रखी है। जब लोगों से लोकतंत्र यह कहता है कि वे ग्रामसभाओं व पंचायतों की मीटिंग्स जायें, तो भी वे नहीं जाते, क्योंकि उनके पास टाईम नहीं है। जनता के लिये चुनाव महत्वपूर्ण है, परन्तु चुनाव के पश्चात जनप्रतिनिधियों और प्रशासन के कार्यों को देखना और नियन्त्रण करना उनके लिये महत्वपूर्ण नहीं। क्योंकि उन्हें लगता है कि नियन्त्रण का यह कार्य विपक्षी पार्टिज का है या सरकार का है या फिर किसी और एजेन्सी का। लेकिन लोकतंत्र की सफलता के लिये जनता की ऐसी सोच विकृत है।
लोकतंत्र की सफलता की शर्तें !


यदि जनता स्वयं लोकतांत्रिक गतिविधियों में निरंतर हिस्सा ले, तो निसन्देह, लोकतंत्र कभी भी असफल नहीं होगा। जनता का ग्राम सभाओं और पंचायतों की सभाओं में न जाने से, वहाँ केवल पंचों और सरपंचों, सचिवों और चमचों की उपस्थिति मात्र से वे सरकार द्वारा निर्धारित नियमों व उप्नियमों की वाट लगा देते हैं। उन्हें ऐसे अवसरों पर यह मौका मिलता है कि सरकार द्वारा सर्व-जनता के सुपुर्द कल्याणकारी पेकेजों और प्रावधानों का फायदा वे केवल अपने, अपने चमचों और रिश्तेदारों के हेतु सुपुर्द कर देते हैं, और इस तरह जनता में योग्य लोगों तक इसका फायदा नहीं पहुंच पाता, जिनके हेतु ये प्रावधान किये गये होते हैं। हमारे लोकतंत्र में  IRDP, BPL और अन्तोदय इत्यादि वे सब लोग बनाये जाते हैं जो कि इनके पात्र नहीं होते। आर्थिक रूप से संपन्न व्यक्ति IRDP, BPL और अन्तोदय इत्यादि बनाये जाते हैं, और यहाँ तक कि वे इनमें 10 से 15-15 वर्षों तक जमे रहते हैं। सर्व-जनता ये सब देख कर भी आवाज नहीं उठाती, क्योंकि उन्हें लगता है कि ऐसा करना व्यर्थ है। 

 समाधान  

इन साधारण सी दिखने वाली लोकतांत्रिक समस्याओं का समाधान अति-साधारण ही है।
*लोकतंत्र की सफलता की शर्तें* :-
  जनता को चाहिये कि वे निरन्तर लोकतांत्रिक गतिविधियों में भाग ले।
 लोगों को चाहिये कि वे ग्राम सभाओं व पंचायतों की सभाओं में भाग ले।
 इन सभाओं में जा कर वे चुप ना रहें।
 गाँव की जो भी समस्यायें है उन्हें वहाँ उठायें।
 स्वयं की (व्यक्तिगत) जो भी समस्या है उसे भी वहाँ उठायें।
 कानून से संबंधित, प्रावधानों से संबंधित जो भी अन्याय हो रहा हो, उसकी भी आवाज वहाँ उठायें।
 जितने भी कल्याणकारी फायदे सरकार की ओर से कमजोर वर्गों के लिये या योग्य पात्रों के लिये निर्धारित किये गये हैं, यदि वे सब उन्हें न दिये जाकर किसी अपात्र को दिये गये हैं तो इस अन्याय के प्रति भी वहाँ आवाज उठायें।
 प्रशासन के अधिकारियों के संमुख जनप्रतिनिधियों की पोल-पट्टी खोल के रख दें।
 मुख्य अधिकारियों के संमुख प्रशासन के दूसरे कर्मचारियों (जैसे सचिव आदि) की भी पोल-पट्टी खोल के रख दें।
 जनता को चाहिये कि वे ये सब कार्य बिना डरे या हिचकिचाये करें।
 ऐसा करने से जनता शक्तिशाली बनती है और जनप्रतिनिधि तथा प्रशासनिक कर्मचारी मात्र सेवक बनते हैं।
 यदि ऐसा न करो तो ये सब जनता के बास बन जाते हैं।

 *इस हेतु सरकार को भी चाहिये की ग्राम सभाओं, पंचायतों तथा उच्चस्तर की सभाओं की मीटिंग्स में लोकतंत्र के चौथे-स्तम्भ - पत्रकारों की भी उपास्थिति अनिवार्य हो।

 *सबसे महत्वपूर्ण समाधान यह है कि राज्यपाल द्वारा तैनात एक एजेन्सी की भी उपस्थिति अनिवार्य हो, जिसका कार्य जनसाधारण को सरकार के द्वारा निर्मित प्रत्येक कानूनों, नियमों व उपनियमों, प्रावधानों, फायदों की जानकारी देना तथा उनके हित के लिये सरकार या जनप्रतिनिधियों और प्रशासनिक कर्मचारियों पर निगरानी रखना, यदि गड़बड़ हो तो उसकी शिकायत राज्यपाल तक पहुंचाना। फिर राज्यपाल इस मुद्दे को राज्य की केंद्रीय सरकार के संमुख रखे और यदि मुद्दा गम्भीर हो तो विधानसभा के संमुख। इस एजेन्सी को यह अधिकारिक शक्ति जनता के द्वारा दिया गया माना जाये।

  इस तरह की व्यवस्था का प्रावधान न केवल त्रिस्तरीय पंचायती व्यवस्था में हो, वरन नगरपालिकाओं व नगरपरिषदों में भी होनी चाहिये।
 और अधिक ऊपर की लोकतांत्रिक संस्थाओं में भी यही व्यवस्था होनी चाहिये।

 इस तरह की एजेन्सी इतनी शक्तिशाली होनी चाहिये कि इस पर किसी राजनीतिक पार्टी या प्रशासन का दबाव न पड़ सके, अर्थात यह एजेन्सी इनमें से किसी के भी अधीन न हो। केवल राज्यपाल के अधीन हो।

  सर्व-साधारण जनता को शासन (सरकार) और प्रशासन (सरकारी कामों) या किसी भी संस्थागत कार्यों में यदि कोई भी गड़बड़ी या दिक्कत का भान हो या अन्याय हो तो वे तुरंत इस एजेन्सी को *तथ्य-परक हो कर संपर्क करे।
 बिना तथ्य-परक हुये शिकायत करना कानूनी जुर्म माना जाना चाहिये और इसके लिये अमुक व्यक्ति या संगठन या संस्था पर जुर्माना लगाया जाना चाहिये।

 इस तरह की व्यवस्था को जितनी जल्द हो सके सरकार को निर्मित करना चाहिये।
 लोकतंत्र की सफलता के लिये इस तरह की प्रक्रिया को एक आवश्यक स्तंभ माना जाना चाहिये । 
 क्योंकि आज *पत्रकारिता भी या तो बिक जाती है, या दबाव में रहती है या फिर उसकी आवाज से सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगती !

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