*जीवन क्या है, राग या वैराग ?*




 जीवन क्या है, राग या वैराग?

  जीवन क्या है यह एक बुनियादी विषय है। हम जो सोचते हैं, जो धारणायें हमारी होती हैं वही हमारे लिये जीवन का मतलब होता है। जैसे, एक शराबी के लिये जीवन का मतलब शराब में डूबे रहना है। एक व्यभिचारी के लिये जीवन का मतलब व्यभिचार की मदिरा में डूबे रहना है। एक कवि के लिये जीवन का मतलब जीवन को काव्य के रूप में देखना है।  एक वैज्ञानिक के लिये जीवन का मतलब जीवन को विज्ञान के रूप में ही देखना है। एक धार्मिक व्यक्ति के लिये जीवन का मतलब जीवन को केवल धार्मिक नजरिये से ही देखना है। एक दार्शनिक के लिये जीवन का मतलब जीवन में केवल दार्शन को ही खोजना है। यहाँ हरेक व्यक्ति के लिये जीवन का मतलब उसकी अपनी मनोवृती के अनुसार तय होती है। इसलिये यहाँ हम किसी भी व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से उसके पास जाकर उसे *समग्र-जीवन का मतलब नहीं समझा सकते।  उपर्लिखित जीवन के मतलब तो प्रत्येक व्यक्ति का उसके जीवन के प्रति व्यक्तिगत नजरिये से है। परन्तु इससे भिन्न हम यहाँ *समग्र-जीवन के अर्थ की बात करते हैं।

  लगभग हर व्यक्तिगत धारणा ने *समग्र-जीवन के अर्थ को अपने-अपने ढंग से परिभाषित करने की कोशिशें की हैं। विज्ञान भी एक व्यक्तिगत धारणा ही है, जो समय के साथ चलकर अब व्यापक धारणा के समान विस्तृत हो गई है। ठीक इसी प्रकार धर्मों के सन्दर्भ में भी ऐसा ही हुआ है, दार्शन के सन्दर्भ में भी ऐसा ही हुआ है।
 चूंकि यह ब्लोग एक *समग्र-जीवन दार्शन* पर आधारित है इसलिये इस लेख का उद्देश्य जीवन के अर्थ को एक समग्र रूप से ही देखना है।

 *विज्ञान के लिये जीवन का अर्थ

  विज्ञान के लिये जीवन किसी कौतुहल से कम नहीं। इसके लिये जीवन मात्र भौतिक चीजों की खोज और प्रयोग है। विज्ञान के लिये जीवन *नैतिकता और अनैतिकता का गठजोड़ नहीं। विज्ञान के लिये जीवन अदृश्य, अंजान सत्ता या व्यक्ति, दशा या स्थान पर विश्वास नहीं। विज्ञान के लिये जीवन केवल उसी रूप में है जिस रूप में मनुष्य को छोड़ अन्य पशु-पक्षी या अन्य जीव-जन्तु उसे स्वीकारते हैं। विज्ञान की भावना में जीवन का अर्थ एक पशु या अन्य जीवों के समान जीना है।

 *धर्म के लिये जीवन का अर्थ

   धर्म के लिये जीवन का अर्थ मनुष्य की उच्च-वैचारिक दशा में नैतिकता और अनैतिकता के भेद को दिखाना है। नैतिकता के फल और अनैतिकता के परिणाम से जनमानस को अवगत करवाना है।

*दार्शन के लिये जीवन का अर्थ   

 एक दार्शनिक के लिये जीवन का अर्थ नैतिकता और अनैतिकता से दूर हटकर जीवन जीने का नाम ही जीवन है।
 परन्तु इन सबसे भिन्न *समग्र-जीवन दार्शन के नजरिये में जीवन का अर्थ है:-
 जीवन को समग्रता में संपूर्ण स्वीकार करना, अर्थात विज्ञान के नजरिये को स्वीकार करना, परन्तु पूर्णतः में नहीं।
 धर्म के नजरिये को स्वीकार करना, परन्तु पूर्णतः में नहीं। दार्शन के नजरिये को स्वीकार करना, परन्तु पूर्णतः में नहीं।
  समग्र-जीवन के नजरिये में जीवन दो आधारों पर आधारित है:- पहला राग, और दूसरा वैराग। समग्र-जीवन दार्शन में उपर्लिखित जितने भी आशय हैं वे सब *राग और वैराग* के प्रतिरूप हैं।
 यदि कोई मनुष्य हँसता है, तो वह रोता भी है। यदि कोई मनुष्य खुश होता है, तो वह दुखी भी होता है। हाँ, यही जीवन है।
  परन्तु जीवन का अर्थ है - हंसी और रोने के बीच का संतुलन। जीवन का अर्थ है खुशी और दुख के बीच का संतुलन।
  कोई सुखदाई होने के लिये अपने जीवन को राग में रमा देना चाहता है, तो उससे पूछिये कि क्या उसे सुख मिला? कोई दुखों से निवृति के लिये अपने जीवन को वैराग्य में रमा देना चाहता है, तो उससे पूछिये कि क्या वह निवृत हुआ?
  समस्त पशु-पक्षी, कीट-पतंगें, सरी-सृप इत्यादि दुख और सुख को भोगते हुये भी न तो राग में है और न ही वैराग्य में है। वे तो केवल एक *दार्शनिक जीवन जी रहे हैं। परन्तु मनुष्य एक दार्शनिक जीवन नहीं जी सकता, क्योंकि वह तो एक *सृजनशील प्राणी है, अन्य जीवों की भान्ति मात्र *क्रियात्मक (Functionl being) प्राणी नहीं। मनुष्य को जीवन के सुख और दुख पूर्ण राग और वैराग्य के साथ उसकी हृदय की गहराइयों तक एहसास और अनुभव में आते हैं।

 *फूलने-फलने की लालसा, जीवन जीने की लालसा जीवन का एक रागी पहलु है।
 *कष्टों, पीड़ाओं और दुखों से निवृति की ओर अविमुख होना जीवन का वैरागी पहलु है।
 *हिन्दु धर्म-दार्शन के अनुसार, जीवन का *रागी पहलु तो भगवान *विष्णु की शिक्षा के अन्तर्गत आता है।
 और जीवन का *वैरागी पहलु तो भगवान *शंकर (महादेव) की शिक्षा के अन्तर्गत आता है, जो मनुष्य को विलय की स्तिथि में ले चलता है।

  यदि सुख है तो दुख की अनुभूति भी होती है, ऐसा क्यों ? 
 ऐसा इसलिये नहीं होता कि ऐसा ही होता है क्योंकि यही जीवन है, वरन ऐसा तो किसी भिन्न *तात्विक-गठजोड़*(evil spirit) के कारण होता है।
  इससे पहले की नैतिकता उत्त्पन्न हुई, जीवन में अनैतिकता उत्त्पन्न हुई थी, तभी नैतिकता उत्त्पन्न हुई ताकि अनैतिकता बढ़ न सके। ये ही अनैतिक-तत्वों के गठजोड़ ही (काम (केवल स्वार्थ), क्रोध, लोभ, मोह, इर्ष्या, द्वेष और अहंकार) रागी जीवन को अस्त-व्यस्त और भ्रष्ट कर देते हैं। फिर मनुष्य के पास केवल एक ही विकल्प रह जाता है कि वह वैराग को धारण कर ले। क्योंकि वह यह सोचने लगता है कि दुखों का कारण सुख (इच्छाएं),(राग) है। जबकि सत्य इससे भिन्न है। दुखों का कारण राग नहीं होता।

*ईश्वर ने हमें फूलने-फलने की मनाही नहीं की, और न ही उन्होनें हमें यह कहा कि तुम मुझमें *विलय (वैराग्यता) हो जाओ। अगर ईश्वर को हमें विलय करवाना ही होता तो वह मनुष्य को बनाता ही क्यों ?
ईश्वर जिसका नाम *जीवन है, वह तो मनुष्य से यही आशा रखते हैं कि मनुष्य जीवन को राग और वैराग के बीच में होकर जीयें। अर्थात जीवन के जड़ को हिला देने वाले तत्व *अनैतिकता के सिर को सदैव कुचलते रहने का प्रयास ही जीवन का अर्थ है मनुष्य के लिये, न की मात्र रागी होना या वैरागी होना। जीवन राग और वैराग का मिश्रण है।

  जब कभी राग के बढ़ने से अनैतिक-तत्वों का गठजोड़ मनुष्य के जीवन 
को खाने लगे, तो मनुष्य को चाहिये क़ि वह वैराग की शिक्षा प्राप्त कर उसे आत्मसात करे। परन्तु उसे (वैराग्यपन को) ही जीवन न माने। क्योंकि यह कार्य तो केवल भगवान *शंकर (महादेव) का ही है, क्योंकि वह *विलय के देवता हैं।
 भगवान महादेव द्वारा दीक्षित शिक्षा (वैराग्य की) के द्वारा ही मनुष्य स्वयं तथा अन्यों के भीतर के अनैतिक-तत्वों का विनाश कर सकते हैं।

 अत: मनुष्य के लिये जीवन का अर्थ न केवल राग है और न ही वैराग, वरन जीवन का अर्थ है सदैव स्वयं के भीतर के अनैतिक तत्वों का नाश करते रहने का प्रयास, तथा राग और वैराग के बीच की समता !!! 



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