*मनोरंजन उद्योग की अश्लीलता (आखिर मनोरंजन भी एक साहित्य है!) !*


 

मनोरंजन उद्योग की अश्लीलता (आखिर मनोरंजन भी एक साहित्य है!)!*

  क्या हम Shudh manoranjan का लुत्फ़ उठाते हैं या फिर कुछ और से अपना जी बहलाते हैं, जो अपने खुद के और समाज के लिए अहितकर है? हम बचपन से यह पढ़ते आये हैं कि 'साहित्य समाज का दर्पण होता है, और साहित्य उसे कहते हैं जो समाज का *हित करे।' समाज में जो कुछ घटित होता है साहित्य उसे ही उकेरता है। साहित्य का काम केवल सामाजिक गतिविधियों व उसके आचार-व्यवहार को उकेरना ही नहीं होता, बल्कि समाज को गलत राह से बचाना भी होता है ताकि समाज एक सही दिशा में आगे बढ़ कर उन्नति प्राप्त कर सके।

आखिर मनोरंजन भी एक साहित्य है!

  साहित्य के अन्तर्गत आने वाली विधाओं में- कला, लेखन, कवितायेँ, निबन्ध, शोध, मनोरंजन इत्यादि होते हैं। साहित्य अपनी अभिव्यक्ति कला, समाचार पत्रों, पत्र-पत्रिकाओं, शोध-लेख और टी वी एवं फिल्म इन्डस्ट्री के माध्यम से करती है। 

   काफी दशकों से वर्तमान तक मनोरंजन के माध्यम को छोड बाकि के सभी माध्यमों ने अपनी भूमिकाएं लगभग बेहतर ढंग से निभाईं हैं। कुछ एक अपवाद हैं जिन्होनें सामाजिक नैतिकता की परवाह किये बिना केवल लाभ कमाने के उद्देश्य से कार्य किया है।

  मनोरंजन उद्योग का लालच !

  मनोरंजन जगत (माध्यम) ने तो पूरी मानवता के नैतिक चरित्र को ही बिगाड़ कर रख दिया है। उसने Shudh manoranjan को बहुत पहले ही छोड़ दिया है. पहले-पहल टी वी या फिल्में केवल वही बातें बताती थीं जो समाज में घटित होतीं थीं। किन्तु अब टी वी या फिल्में केवल वही बताती अथवा दिखाती हैं जिनसे समाज प्रभावित होता हो। अर्थात जिनसे समाज का प्रत्येक व्यक्ति मन की गहराई से प्रभावित हो। 
    ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि मनोरंजन के क्षेत्र में कला और कलाकार प्रोडयूसर और फाइनेन्सर के गुलाम होते जाते हैं। कारण यह है कि बिना पैसों के तो कुछ भी बडा या छोटा काम तक नहीं होता। यदि एक लेखक या निर्देशक समाज के भले के लिये कुछ करना भी चाहे तो भी वे नहीं कर पाते। हां, जैसे-तेसे वे अच्छी बातें टी वी फिल्मों के द्वारा पहुंचाने की कोशिश तो करते हैं परन्तु इसके साथ-साथ उन्हें वे बातें अथवा दृश्य भी फिल्मांकित करनी पड़ती हैं जिनसे व्यक्ति या समाज प्रभावित होता है।  मतलब यह है कि टी वी या फिल्म-इन्डस्ट्री समाज के लिये स्वयं फेशन निर्धारित करती है। जैसे, अमुक हीरो या हीरोइन के हेयर स्टाईल या कपड़े पहनने के ढंग आदि-आदि। टी वी या फिल्मों के माध्यम से प्यार-मोहब्बत की परिभाषा बदल दी जाती है। अब प्यार प्यार ना हो कर रोमांस, हवस व अश्लीलता बन कर रह जाती है। इन तरीकों से लोगों का ध्यान अधिकाधिक आकर्षित किया जाता है ताकि इस माध्यम में जुड़े लोगों की अधिकाधिक कमाई हो। 

   आज इस प्रक्रिया में फाइनेन्सर, प्रोडयूसर, निर्देशक, एक्टर व लेखक तक सांठगांठ में जुड़े रहते हैं। निर्देशक का निर्देशन प्रोडयूसर या फाइनेन्सर की मर्जी से होता है। एक्टर, राईटर भी डायरेक्टर प्रोडयूसर की मर्जी से काम करते हैं। और यह सब काम ये सब लोग बड़ी ही बेशर्मी के साथ करते हैं। आज हीरोइन्स अपनी बेशर्मी की सीमा पार कर चुकी हैं। नग्नता और अश्लीलता आज हीरोइन्स के गहने बन चुके हैं।


  पूरी तरह अश्लीलता को प्रदर्शित करना अलग बात है, परन्तु एक सभ्य तरीके से अश्लीलता और हवस को प्रदर्शित करना बहुत ही बुरी और हानिकारक बात है जो की हमारी *फिल्म इन्डस्ट्री करती है।
Shudh manoranjan

  समाज में मनुष्य के मनो-मष्तिष्क पर इसका गंदा असर!

   किसी वेश्यालय की वेश्या किसी मनुष्य के मन की कामुकता को शान्त करती है। परन्तु फिल्म इन्डस्ट्री की हीरोइन्स किसी मनुष्य के मन की कामुकता को हजार गुणा बढ़ा देती है। क्योंकि लोग जब पहले ही से अमुक हेरोइन्स की अदाकारी के दीवाने होते हैं तो ऐसे में उनके अश्लील मेक-अप, अश्लील फेसियल एक्सप्रेशन, अश्लील वेशभूषा और फिर अश्लील अदकारी से, जो की फिल्मों की कहानियों तथा हॉट-फोटोशूट, हॉट-वीडियो शूट से उनके मन की कामुकता को भयंकर तरीके से बढा देती हैं। तो इसका परिणाम यह होता है कि समाज में लोग बाल्यकाल ही से अश्लील चरित्र के बन जाते हैं और फिर समय-समय पर बलात्कार तथा हत्थयायें जैसीं बारदातें होती जाती हैं। इस पर कुछ लोग तो यह कहते हैं कि पश्चमी वेश-भूषा और नग्नता में दोष नहीं, बल्कि किसी व्यक्ति की सोच में ही यह दोष होता है। हां, यह सही कहते हैं। परन्तु कभी सोचा है हमने कि क्यों दिन-प्रतिदिन खास करके हमारे देश के लोगों की सोच ही ऐसी बनती जा रही है ? क्योंकि कोई स्त्री यदि सामने भी नगन घूमे तो कुछ गलत ना होगा। परन्तु बिना तन ढके या ढक कर भी यदि टी वी या फिल्मों में कामुकता भड़का देने वाली कहानियां या दृश्य दृश्यमान किये जाएं तब तो नि:सन्देह, लगभग हरेक व्यक्ति का मन कामुक होगा ही।

   आज के सन्दर्भ में प्रत्येक व्यक्ति की सोच को ये टी वी व फिल्म इन्डस्ट्रीज ही निर्धारित करती हैं। क्योंकि समाज में वास्तव में ऐसा होता ही नहीं है जैसा कि टी वी या फिल्म इन्डस्ट्रीज हमें दिखाती हैं। ये समाज को ऐसा कुविचार कुदृश्य दिखाती हैं जिनसे व्यक्ति या समाज कुप्रभावित होता है।
 इसलिये साहित्य का यह सम्भाग जो कि मनोरंजन का माध्यम है आज पूरी तरह से लालची लोगों के अधीन है, जो की अधिकाधिक धन कमाने की लालसा में प्रोडयूसर या फाइनेन्सर बनते हैं और व्यक्ति अथवा समाज को उल्लु बना कर उनके मनों को भ्रष्ट  करते हैं। इसीलिए आज भ्रष्टता का यह स्तर इस कदर गिर चुका है कि जिसके चलते आज कोई भी स्त्री या पुरुष अपने ही घर पर सुरक्षित नहीं है। इन सब बातों के जिम्मेबार मनोरंजन के ये माध्यम ही हैं। यदि ध्यान से देखा जाये तो सरकार भी इन मामलों में दोषी होती हैं, क्योंकि सरकार को सरकारी खजाना बढ़ाना होता है।

    समाधान  

  अत: यदि व्यक्ति या समाज को एक साफ-सुथरे चरित्र का तथा सही दिशा में उन्नति की ओर बढ़ाना है तो हमें जल्द से जल्द साहित्य के इस सम्भाग में - मनोरंजन इन्डस्ट्रीज, में हस्तक्षेप कर अंकुश लगाना ही होगा, और Shudh manoranjan को स्थापित करना होगा। भले ही यह कार्य बहुत कठिन है। क्योंकि इस भ्रष्ट इन्डस्ट्रीज से सरकार को तथा बहुत-सी व्यापारिक व एडवरटाईजिंग कम्पनिज को करोडों-अरबों का फायेदा जो होता है। इसलिये इस क्षेत्र में सुधार की यह लड़ाई हम जन-साधारण को ही लड़नी पड़ेगी। आखिर कर हमारी कमाई का एक बड़ा हिस्सा ये भ्रष्ट लोग हमें इस तरह उल्लु बना कर खा जाते हैं।
  निदान यदि साहित्य का कोई भी सम्भाग व्यक्ति या समाज का हित नहीं करता तो वह साहित्य हो ही नहीं सकता। इसलिये आवश्यक है कि साहित्य के ऐसे सम्भाग में सुधार किया जाये या फिर इस तरह के सम्भाग को साहित्य ही ना कहा जाये ! 

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