*आतंकवाद से निपटने के अचूक अहिंसक तरीके!*

 
आतंकवाद के कारण और उनसे निपटने के चूक तरीके!

आतंकवाद से निपटने के अचूक अहिंसक तरीके! 

 आतंकवाद एक बहुचर्चित व दिल दुखा देने वाला विषय है। यह न केवल बहुचर्चित विषय है बल्कि भय तथा मायुसी की भी झांकी है। इसने मानवता को भारी परिमाण में नुक्सान पहुंचाया है। मानवता इसके कारण हमेशा एक भय और पीड़ा में जीवन व्यतीत करती है। तो क्या है आखिर इस आतंकवाद के पीछे का कारण ? क्या धर्म या राजनीति ?

  कुछ राजनीतिक विशेषज्ञ तो इसे एक घटिया राजनीति का नकाब मानते हैं, तो कुछ इसे कट्टरवादी धर्मों की घृणित मानसिकता की प्रति-छाया। परन्तु कुछ का मानना है कि आतंकवाद के पीछे ये दोनों ही कारण हैं। हां निसन्देह ! आतंकवाद के पीछे ये दोनों ही कारण हैं। जिसमें घटिया राजनीति इसीलिये सक्रिय हो जाती है क्योंकि इसके पीछे का कारण अतीत में हुये अन्याय व धोखे अथवा बदले की भावना होती है, और धर्म की घृणित मानसिकता तब प्रकट होती है जब एक घटिया राजनीति उसे उकसाती है।

  यदि सूक्ष्मता से देखा जाये तो हम पायेंगे कि राजनीतिक गतिविधियां न केवल उच्च स्तर (केन्द्रिय राज्य- देश), मध्य स्तर (प्रान्त) निम्न-स्तर बल्कि जनसामान्य में भी, जिनका कि राजनीति से कोई सम्बन्ध नहीं होता वो भी अपने-अपने स्तर में राजनीतिक हरकतें करते हैं। जिसका प्रभाव समाज, धर्म व राज्य पर पड़ता है। जितनी उच्च स्तर की एक घटिया राजनीति समाज पर कुप्रभाव डालती है उतनी ही जन-सामान्य की घटिया राजनीति भी उक्त देश की केन्द्रिय राजनीति पर कुप्रभाव डालती है। इस कार्य के लिये कट्टरवादी धर्म एक बारूद का काम करते हैं और चिंगारी लगाने का काम राजनीति करती है।

*आतंकवाद के कारण और उनसे निपटने के अचूक तरीके 

 सामान्यत: ये कडवाहट व असामाजिकता केवल उन्हीं देशों की पैदाईश है जो किसी न किसी कट्टरवादी धर्म से जुड़े हुये होते हैं। उदाहरण के लिये, जैसे, ईसाइयत इस्लाम को नहीं स्वीकारती। इसी तरह इस्लाम भी ईसाइत को नहीं स्वीकारता। ये दोनों कट्टरवादी धर्म वस्तुतः अपने अलावा किसी भी दूसरे पंथ अथवा मत (धर्म) को नहीं स्वीकारते। इस पर भी यदि उनके राजनीतिक ग्राउन्ड में कोई लोभ, ईर्षा या घृणा कार्य कर रही हो तो उनका धर्म एक बहाना बन जाता है- विस्फोट के लिये।

  हम एक घटिया राजनीति के बारे में तो आसानी से जान लेते हैं, तो क्या हम एक घृणित मानसिकता वाले धर्मों की व्याख्या को समझ पाते हैं ?

 वस्तुतः इन कट्टरवादी प्रचारक धर्मों का एक संकुचित इतिहास होता है जिसे इनके मानने वाले इसे अपनी परम्परा मानते हैं। *अमानवीय शक्तियों (Unknown n Invisible) के द्वारा उदघाटित इनके *विचार-पन्ने (Scriptures) होते हैं जिन्हें तहदिल से ये लोग माना करते हैं। मन को मोहित कर देने वाले इनके ये लेख तथाकथित उन लोगों को अमानवीय कर देते हैं जो इन विचारों का अनुसरण करते हैं। हैरान कर देने वाली बात तो यह है कि क्या कभी इन लोगों ने यह सोचा कि जिस अमानवीय शक्ति (Invisible man) ने उन्हें जो ये विचार या नियम आज्ञा के बतौर दीं हैं क्या वो मानवता के लिये हितकर हैं ? शायद यदि हम उन लोगों से यह पूछें तो वो कहेंगे - 100% हितकर हैं। अगर यह भी पूछें कि जिसने तुम्हें ये विचार या नियम दिये हैं तुमने कभी उसे देखा है या फिर वाकेई में वो कोई *ईश्वर ही है या फिर कोई दूसरी दुनियां का कोई प्राणी, लोग बिना यह जाने कि वो वास्तव में कौन है, उनकी बातों का अनुसरण करते हैं जो उक्त धर्म के ईश्वर ने कहीं।

 अगर वाकेई में ये ईश्वर थे तो वो मनुष्य के लिये केवल मनुष्यता की बात करेगा न कि धर्म की बात। क्योंकि मनुष्य की नैतिकता किसी धार्मिक विचार, मत या परम्परा के अनुसरण में नहीं होती, बल्कि उसकी अंतरात्मा के मूल-स्वभाव के अनुसरण में होती है।

 ईश्वरीय नैतिकता का सम्बन्ध इन्सान की अपनी अंतरात्मा के स्वभाव के अनुसरण में निहित होती है। जैसे, दया, करुणा, शान्ति, प्रेम, भाईचारा, क्षमा, सहिष्णुता, उदारता और मेल-मिलाप आदि-आदि। इसके संयुक्त आचरण को ही हम ईश्वरीय धर्म कह सकते हैं। परन्तु इसके विपरीत धर्म की नैतिकता में आत्मा की नैतिकता का कोई स्थान नहीं होता। वहां तुमसे यह कहा जायेगा- यह करो, वह मत करो ! अर्थात इस तरीके से तुम्हें उपासना, पूजा-पाठ या आराधना करनी है, इस तरीके से तुम्हें अपनी दिनचर्या व्यतीत करनी है, इस तरीके से तुम्हें जन्म व मृत्यु के संस्कार पूर्ण करने हैं; इस तरीके से तुम्हें अपने सामाजिक व्यवहार निभाने हैं, यदि तुमने ये सब बातें ना मानी तो तुम अधर्मी हो और दण्ड पाने के योग्य भी।

  अब सवाल यह उठता है कि क्या ईश्वर एक है या अनेक ? क्योंकि मुसलमानों का ईश्वर कहता है कि 'मूछें मत रखो और दाडी लम्बी रखो, पांच-प्रहर का नमाज अदा करो; चाहे मन में श्रद्धा या इच्छा हो या ना हो।' तो इसाईयों का ईश्वर कहता है कि 'मन्दिर में मत जाओ।' हिन्दुओं का ईश्वर कहता है की 'मूर्ती पूजा करो।'

  कितने निरा-मूर्ख और अज्ञानी हैं हम, जो इतनी सरल बात भी नहीं समझते कि *वास्तविक ईश्वर किसी भी मनुष्य को इन व्यर्थ के कर्म-काण्डों और रीतियों के अनुसरण के लिये नहीं कह सकता। क्या कोई ईश्वर एक वक्त में और वो भी एक ही धरती पर जो की उसके बच्चों (रचनाओं) का घर है दो या तीन अलग-अलग मनुष्य समुदायों से या समाज को दो भिन्न विचार या आदेश दे सकता है ? क्योंकि एक कहता है कि काले-बुरके में रहो तो दूसरा कहता है की श्वेत-परिधान में ही विवाह करो। 

   नहीं नहीं नहीं ! कहीं तो हमसे भारी चूक हुई है ईश्वर को समझने में। निसन्देह ! अतीत में उन इश्वरों ने करामाती शक्तियों से मनुष्यों को प्रभावित किया हो, तो भी सवाल तो यही रहता है कि क्या वास्तव में वो ईश्वर थे ? हो सकता है कि वो किसी और दुनियां के प्राणी हों ! क्योंकि अब हम सभी यह जान चुके हैं कि हमारी दुनिया से भी परे बहुत सी दुनियायें बसती हैं।

   सार्वभौमिक धारणा तथा अपनी अंतरात्मा के विचार के अनुसार ईश्वर का सम्बन्ध केवल मनुष्य की अपनी अंतरात्मा के नैतिक मूल्यों से ही है, अर्थात मनुष्य है तो मनुष्य के लिये उस ईश्वर के द्वारा प्रदत्त धर्म है - *मानवता !

   मगर अफसोस ! लोग अतीत के बोझ तले दबे हुये हैं, क्योंकि उनके पूर्वजों से लेकर चली आ रही परम्पराओं को वे ईश्वरीय मानते हैं; और इन परम्पराओं के लिये, जिनमें इनके धर्म भी सम्मिलित हैं लड़ मरने के लिये भी तैयार बैठे हैं। लोग आंख मूंद कर उन विचारों का अनुसरण करते हैं जिन्हें वे लोग ईश्वरीये विचार मानते हैं। परन्तु उससे हट कर कभी भी अपनी अंतरात्मा के विवेक का प्रयोग नहीं करते। क्योंकि ऐसा करना उनके धर्म की आज्ञा में हराम है और उनके ईमान के खिलाफ। यदि ऐसा ही चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब इस तरह के लोग पूरी मानवता का विनाश कर डालेंगे। तो न रहेगा मनुष्य और न रहेगा उनका धर्म ही !

 जो भी धर्म कट्टरवादी होते हैं, तो वो कट्टरवादी इसीलिये होते हैं क्योंकि उनके कलाम (वचन) में *दोगली* बातें अथवा आज्ञायें होती हैं, और उस कलाम को पढ़ने वाले Confuse हो जाते हैं कि क्या करें और क्या न करें ! बहरहाल, वो अपने हिसाब से उनका अर्थ निकाल लेते हैं। अधिकांशत: लोग नकारात्मक आदेश को ही स्वीकारते हैं क्योंकि उसमें उनको अच्छा लगता है यह जानकर की उनके लोग या समाज दूसरे लोगों या समाज से बेहतर अथवा अव्वल नम्बर के हैं।

  *आतंकवाद के कारण और उनसे निपटने के तरीके  

  अत: पूरी मानवता के शत्रु ये तथाकथित धर्म के पन्नों के वे नकारात्मक लेख हैं जो मनुष्य को आमनुष बना डालते हैं। आतंकवाद  को यदि धराशायी करना है, यदि उसे जड़ से मिटाना है तो एक ही उपाय है मनुष्य के पास, कि जिस तरह ये कट्टरवादी धर्म पूरी श्रद्धा के साथ अपना प्रचार करते हैं ठीक उसी रीति से  *ईश्वरिये+मानवतावादी* विचारों का अधिकाधिक प्रचार हो। इन्टरनेट, सोशल-मिडिया, प्रिंट-मिडिया, कापी-किताबों, स्कूल-स्लेबसों, मनोरंजन के साधनों तथा घर-घर में जाकर मानवतावादी विचारों का प्रचार हो। किसी कमर्शियल कम्पनी की तरह इन विचारों की मशहूरी हो। आखिरकर किसी कठोर वस्तु को तोड़ने के लिये हमें हीरे की आवश्यकता पड़ती है न! तो क्यों न ऐसे तंग-खयालात, कठोर विचारों व आस्थाओं को तोड़ने के लिये सौम्य, मृदुल विचारों की आवश्यकता न हो ?

 निदान सम्पूर्ण मानवता को ऐसा ही करना चाहिये। क्योंकि जब तक अपने संकुचित धर्म से ऊपर उठ कर हम सभी *ईश्वरिये+मानवतावादी* विचारों का पोषण नहीं करेंगे तब तक कट्टरता, आतंक, आतंकी व आतंकवाद अपना विकास करता ही रहेगा और अंतत: इस पूरी मानवता को एक दुष्ट अजगर की तरह निगल डालेगा !

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