दुनियाँ के प्रमुख धर्म और उनकी गहरी और संक्षिप्त जानकारी ! |
आइये मुख्य धर्मों के स्वभाव जानें !*धर्मग्रंथ
आरम्भ ही से धर्म का मसला बहुत संवेदनशील रहा है। प्राचीनकाल में लोग केवल अपने समाज के धर्म के बारे में ही जानकारी रखते थे। अन्य समाजों की आस्थाओं का ज्ञान उन्हें लगभग न के बराबर था, और यदि जानते भी थे तो वो भी उस बारे सतही जानकारी होती थी। आज भी हालत बदले नहीं है।आज भी हालत ज्यूं की त्यूं ही है। विश्व की सम्पूर्ण जनसंख्या का 30% हिस्सा ही एक दूसरे के धर्म व आस्थाओं के बारे में गहन जानकारी रखता है। बाकि की जनसंख्या का विचार यही रहता है कि धर्म भले ही अनेक हों पर मंजिल सभी का एक ही है अर्थात ईश्वरधाम। या फिर इसके विपरीत दूसरा विचार यह रहता है कि मेरा धर्म ही श्रेष्ठ है, किसी दूसरे धर्म के बनिस्बत।
बहुत से लेखक लोग अपने-अपने धर्मों की महिमा के लेख तो लिखते हैं या फिर एक दूसरे की आलोचना में व्यंग्य लेख। तो सहसा मेरे मन में ख्याल आया कि क्यों न मैं एक ऐसा लेख लिखूं, जिसमें हरेक उस मनुष्य को एक दूसरे के धर्म की गहरी जानकारी हो, उन्हें दुनियाँ के प्रमुख धर्म और उनकी गहरी और संक्षिप्त जानकारी हो ! इस तरह की जानकारी अक्सर कला सनात्कोत्तर स्तर की शिक्षाओं में ही दी जाती हैं अथवा वैशेषिक स्तर की शिक्षाओं में ही। तो आइये जरा सविस्तार से जानते हैं दुनियां के मुख्य धर्मों के बारे में :-
*हिन्दू धर्म* धर्मग्रन्थ
हिन्दू धर्म एक मात्र ऐसा धर्म है जो किसी व्यक्ति विशेष ने आरम्भ नहीं किया है। हम इसमें यह नहीं कह सकते कि इसका जन्मदाता कोई श्रीरामचन्द्र जी है या श्रीकृष्ण। यह धर्म तो पूर्णता शास्त्रों पर आधारित है। इस धर्म का मूल चार वेदों में बसता है - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्वेद। इनमें सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद को माना गया है। तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि बाकि के ग्रन्थ पूर्णता नवीन हैं। पढने की सुविधा की दृष्टी से उक्त काल के ऋषियों (लेखकों) ने समय-समय पर एक प्राचीन महाग्रंथ को चार हिस्सों (भागों) में बांट दिया। इन ग्रन्थों में इस संपूर्ण सृष्टि का ज्ञान निहित है और यह ज्ञान हर विषयों से सम्बन्धित है। इनमें किसी भी विषय का ज्ञान पाने के लिये इन ग्रन्थों को समझना बहुत कठिन है। क्योंकि इन ग्रन्थों की भाषा शैली Coded है। अर्थात जो इन लिखे भाषा शैली (शब्दार्थ एवं भावार्थ को) को Decod कर पायेगा वही इसके रहस्य ज्ञान को समझ पायेगा। इसीलये तो बहुत से लोग समय-समय पर अपनी-अपनी समझ से इनके ज्ञान को समझते हैं। इनमें भी शायद कुछेक ने किसी विषय पर स्वतः ही इन लेखों को Decod किया हो और कुछ ने नहीं। इसके अतिरिक्त बहुत सी बातें इनमें आसानी से समझ में आ जाती हैं। जैसे, आत्मा-परमात्मा, सृष्टि, 33 करोड़ देवी-देवता आदि-आदि।इस धर्म में कुछ समझने वालों ने अब तक यही समझा कि सम्पूर्ण सृष्टि का मूल भगवान शिव-शंकर है, तो कुछ ने समझा की भगवान विष्णू है। तो और गहराई से समझने वालों ने समझा की मां दुर्गा ही इस सृष्टि का मूल है। परन्तु शास्त्रों को और अधिक गहराई से अध्ययन करने पर यह जानकारी सामने आती है कि मां दुर्गा से भी प्राचीन मूल कोई और है और उससे भी प्राचीन कोई और है, उससे भी प्राचीन कोई और है, फिर उससे भी प्राचीन कोई और है जिसे ही *परमब्रह्म+परमेश्वर कहते हैं। अर्थात क्रमानुसार - *ब्रह्म-परमेश्वर - *परब्रह्म परमेश्वर - *परम ब्रह्मपरमेश्वर। इसलिये सारी मानवता का अन्तिम लक्ष्य परम+ब्रह्मपरमेश्वर की प्राप्ति ही है। क्योंकि इस बात को समझने वालों ने बताया है कि हम मनुष्य आत्माओं का इसी परम+ब्रह्मपरमेश्वर से बिछ्ड़ाव हुआ है, और उससे पुन: मिलन ही हमारा लक्ष्य होना चाहिये। जब तक हम मोक्ष की स्थिति (अवस्था) में नहीं आते तब तक इस परम+ब्रह्मपरमेश्वर से मिलन असम्भव है।
मनुष्य आत्माएं मोह के इस सागर (संसार) में अपने अपने सत-रज-तम कर्मों के अनुसार ही भटकते रहते हैं। कर्मों के अनुसार पृथ्वी, स्वर्ग (प्रथम) और अधोगति इन तीनों सृष्टि-चक्र में ही मनुष्य भटकता रहता है। जब तक कर्म का बीज शेष है तब तक तो मुक्ति असम्भव ही है।
इन ग्रन्थों में संसारिक सुखों की प्राप्ति, ऋद्धि-सिद्धि तथा दुख-संकटों से दूर रहने के लिये देवी-देवताओं की पूजा का विधान बताया गया है। मगर ये विधान उन लोगों के लिये हैं जो आध्यात्मिक न होकर संसारिक-प्रकृति के हैं।
बहरहाल कुछ प्राचीन ऋषि जानते थे कि ज्ञानियों की संख्या (आध्यात्मिक प्रकृति वालों की) बहुत कम होती है। इसीलिये उन्होनें वेदों का अध्ययन कर जनसाधारण के लिये एक *व्यवस्थित हिन्दू धर्म* का निर्माण किया। जिसमें प्रतीक (मूर्तिपूजा) पूजा, देवी-देवताओं की पूजा-पाठ, कर्मकाण्ड, यज्ञ, तन्त्र-मन्त्र-यन्त्र, ज्योतिष और वास्तु-शास्त्र इत्यादि का विस्तृत विधान दिया गया है। वास्तव में इस व्यवस्थित हिन्दू धर्म (मनुवादी) का आध्यात्म व मुक्ति के साथ कोई लेना-देना नहीं है।
अत: सैंकडों वर्षों से वर्तमान तक हम इसी हिन्दुधर्म को देखते और मानते आये हैं, न कि *आध्यात्मिक-हिन्दुधर्म (सनातनधर्म) को !
*जैन धर्म*
जैन धर्म व्यवस्थित हिन्दू धर्म से भिन्न उन लोगों की व्याख्या है जिन्होनें वेदों के विभिन्न विषयों को अपनी समझ के हिसाब से Decode किया है।1. मान्यता अनुसार इस धर्म का प्रथम प्रणेता भगवान ऋषभदेव जी हैं।
2. इन्होने अणुवाद के सिद्धांत को प्रकट किया।
3. परमात्मा के अस्तित्व को नकारा।
4. स्वयं की सत्ता (आत्म-सत्ता) को ही माना।
5. जीव रक्षा व जीव सुरक्षा इनका प्रथम ध्येय है, जिसे इन्होनें अहिंसा का नाम दिया है।
*बौध धर्म*
इस धर्म के प्रथम प्रणेता भगवान गौतम बुद्ध जी हैं।बुद्ध धर्म वस्तुत: संसारिक उलझनों व दुखों से निवृति के संघर्ष खोज का परिणाम है। जिसने उक्त काल में व्यव्स्थित हिन्दू धर्म पर जोरदार प्रहार किया।
1. परमात्मा के अस्तित्व के बारे में असमंजस के भाव को प्रकट किया।
2. उच्च मानवीय गुणों को हर पल धारण करने की शिक्षायें दीं।
3. मोक्ष के स्थान पर निर्वाण का प्रचार किया। जिसका अर्थ होता है मनुष्य आत्मा की एक ऐसी स्थिति जिसमें वो तमाम संसारिक झंझटों से कुछ समय के लिये मुक्ति प्राप्त करता है। स्थाई मुक्ति को इन्होनें नहीं माना।
4. व्यवस्थित हिन्दू धर्म की प्रतीक पूजा अर्थात संसारिक पूजा आराधना व आचार-व्यवहार (जाति-पाति) को इन्होनें नहीं माना।
इतिहास के एक काल में इस धर्म ने भी अपना मूल स्वभाव छोड़ दिया। अब यह धर्म भी व्यवस्थित हिन्दू धर्म की ही प्रति-छाया मात्र बन कर रह गया है। महायान शाखा से आगे चलकर आज का बज्रयान शाखा ही बुद्ध धर्म की पहचान बन कर रह गया है। जिसमें मूर्ती-पूजा, देवी-देवताओं की पूजा, गुरुओं की पूजा तथा तन्त्र-मन्त्र-यन्त्र का विधान आदि-आदि सम्मिलित हैं।
*यहूदी धर्म*
यहूदी धर्म का प्रणेता अब्राहम था। जिसने स्पष्ट रूप से उक्त काल में दुनियां के सामने एकेश्वरवाद की धारणा को सामने रखा। परन्तु अब्राहम ने कोई ग्रन्थ या धर्म नियम नहीं लिखे थे। उन्होने तो केवल एकेश्वरवाद के मौखिक विचार अपने कुटुम्ब व समाज के सम्मुख रखे थे। चूंकि अब्राहम एक धनवान योग्य व्यक्ति था और साथ ही साथ अपने समाज का नेता अथवा एक बिना ताज के राजा भी था। इसलिये उसके कुटुम्ब व समाज के लोगों ने उसके आदर्शों व विचारों का अनुसरण किया। इसी समाज (यहूदी) में आगे चलकर दूसरा प्रणेता हुआ- मूसा। मूसा ही यहूदी धर्म का वास्तविक नेता था। इस धर्म में यहूदी समाज के लिये जीवन जीने के कुछ व्यवहारिक नैतिक नियम बनाये गये। उनका उल्ंघन करने पर कठोर दण्ड भी निर्धारित किये गये। एक ईश्वर (यहोवा) को ही सर्व-श्रेष्ठ माना गया। केवल उसी की ही उपासना एवं नैतिक नियमों का पालन करना जो उसी यहोवा ने दिये हैं।अब्राहम का एक कुटुम्ब जो मिश्री दासी हाजिरा की सन्तानें थीं, ने जा कर अरब देश को बसाया। पारिवारिक मन-मुटाव के चलते इन्होनें अब्राहम को तो अपना पिता माना परन्तु यहूदियों को कभी भी स्वीकार नहीं किया। इसकी एक लम्बी कहानी है जो हमें मोटे तौर पर बाईबल में पढ़ने को मिलती है।
जब येशू के पश्चात उसके कुछ अनुयाइयों ने अरब देश में ईसाइयत का प्रचार किया तो मुहम्मद जी ने इस सन्देश को सुना। तत-पश्चात उन्होनें स्वयं सत्य को अनुभव करने के लिये यहोवा की ईबादत की, जिसे उसने खुदा कहा।
मुहम्मद के इस धर्म में यहूदियों की *तोराह* पुस्तकों की मोटी छाप है।
संक्षेप में कहें तो यहूदी धर्म ने दो धर्म सन्तानों को उत्पन्न किया। एक मिश्री दासी हाजिरा से - मुस्लिम धर्म। दूसरा स्वतन्त्र यहूदी स्त्री सारा से - ईसाई धर्म।
*मुस्लिम धर्म*
बहरहाल उपर्लिखित वर्णन से हमें यह तो ज्ञात हो गया है कि मुस्लिम धर्म की उत्पत्ति किस प्रकार हुई। तो चलिये अब इसके सिद्धांतों के बारे में जानते हैं :-वास्तव में मुस्लिम धर्म एक यहूदी धर्म ही है जो अब्राहम व मूसा को तो स्वीकारता है परन्तु यहूदियों को कदापि नहीं। इनमें एकेश्वरवाद की धारणा पूर्ण कट्टरता के साथ भरी हुई है। इनमें बहुत से धार्मिक नैतिक नियमों की पालना अवश्य्ंभावी हैं। अनुपालन न होने पर कठोर दण्ड भी निर्धारित है। गैर-मुस्लिमों के प्रति सदैव अस्वीकारियता की भावना रहती है। सभी को मुस्लिम बनाना तथा जन्नत प्राप्ति ही इनका लक्ष्य होता है। हठ-धर्मिता के चलते ये स्वयं के धर्म को ही सर्व-श्रेष्ठ तथा दूसरों को निकृष्ट मानते हैं।
*इसाई धर्म*
मुसलमानों के भाई बन्धु जो कि इसहाक की सन्तानों में आगे चलकर प्रभु येशू जी ने जन्म लिया वही इस *इश्वरिये विचार* के प्रणेता हैं। यीशु जी ने यहूदी धर्म की कट्टरता का बड़े ही सौम्य ढ़ग से जोरदार खण्डन किया था। उन्होनें हर धर्मों की पाखंड-वादिता पर प्रहार किया था। उन्होनें धर्मों के नैतिक नियमों के बनिस्बत मनुष्य की अंतरात्मा के नैतिक नियमों के अनुपालन पर जोर दिया। प्रभु यीशु की शिक्षायें केवल आत्मा के नैतिक मूल्यों की ही शिक्षायें थीं।वास्तव में यीशु ने किसी भी धर्म की उत्पत्ति नहीं की और न ही किसी धर्म-ग्रन्थ का आविर्भाव ही किया। बल्कि उन्होनें प्रत्येक मनुष्य को धर्म-कर्म के भारी बोझ से निवृत करने की सौम्य शिक्षायें दीं। जिनका सम्बन्ध मनुष्य की अपनी अंतरात्मा से है।
परन्तु आगे चलकर प्रभु यीशु के शिष्य पौलुस जी, जो की बहुत पढे-लिखे थे, ने यीशु की शिक्षाओं को इसाई धर्म बना डाला। अब एकेश्वरवाद की शिक्षा में *त्रिपुटीवाद* को जोडा गया। अर्थात पिता परमेश्वर - पुत्र परमेश्वर - पवित्रआत्मा परमेश्वर। और इसी के साथ यह भी माना गया कि बिना यीशु को प्रभु माने किसी को भी मुक्ति नहीं मिल सकती है।'
*हिन्दू धर्म, जैन धर्म और बुद्ध धर्म में पुनर्जन्म की धारणा है। यहूदी धर्म में पुनर्जन्म के स्थान पर पुनरुत्थान की भी धारणा है। अर्थात किसी मनुष्य के मरने के बाद फिर से जीवित हो जाने की धारणा। चूंकि कुरान व बाईबल में पुनर्जन्म के सन्दर्भ में कुछ नहीं लिखा गया है। इसीलिये इन धर्मों के लोग पुनर्जन्म की धारणा को नहीं मानते। बल्कि इसके स्थान पर पुनरुत्थान की धारणा को मानते हैं।
हिन्दू, जैन और बुद्ध धर्म में किसी मनुष्य को उसके कर्मों का दण्ड उसे उसी के जीवन काल में या फिर उसके अगले जन्म में मिलता है। ईश्वरीय न्याय जीवन में सदैव चलता है। परन्तु यहूदी, मुस्लिम और इसाई धर्म की विचारधारा में किसी मनुष्य को उसके कर्मों का दण्ड उसके जीवनकाल में ईश्वर दे भी सकते हैं और नहीं भी। लेकिन अन्तिम न्याय काल में सभी को उनके सम्पूर्ण कुकर्मों का दण्ड तो अवश्य मिलेगा ही।
Tags:
धर्म और विज्ञान
Very very good information!
जवाब देंहटाएं