*न्यायव्यवस्था में सुधार की जरुरत!*


न्यायालयों में सुधार की जरुरत !

न्यायव्यवस्था में सुधार की जरुरत!

    किसी भी समाज व सभ्यता में न्याय का विशेष महत्व होता है। जहां किसी सभ्य समाज की व्यवस्था में न्याय शीर्ष पर हो केवल वही समाज अपने समाज को सभ्य समाज के रूप में सम्बोधित कर सकता है। इसके लिए हमें न्यायालयों में सुधार की आवश्यकता है !

  इस संसार में हरेक देशों (समाजों) के आचार-व्यवहार उनकी पारंपरिक धारणाओं, मान्यताओं, सांस्कृतिक मूल्यों एवं आस्थाओं पर आधारित होता है। लोग उस समाज में उपर्लिखित तत्वों के आधार पर ही अपनी दिनचर्यात्मक व्यवहार करते हैं। उस समाज की राजनीतिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था उस समाज के नागरिकों से इन तत्वों का अनुशासित संचालन करवाती है। परंतु यदि इन तत्वों के अनुशासित संचालन में वहां के किसी भी नागरिक या गैर-नागरिक द्वारा अतिक्रमण किया जाता है तो उस देश या समाज के विधान द्वारा निर्मित स्वतन्त्र न्याय-पालिका द्वारा उन तत्वों की सुरक्षा की जाती है। भले ही हरेक देश की अपनी देशीय सीमा के भीतर अपने-अपने आचार-व्यवहार हों परंतु कुछ ऐसे भी आचार-व्यवहार होते हैं जो कि सर्व-व्यापक होते हैं और प्रत्येक देश में समरूप। उदाहरण के लिये, 'मानवता व मानव अधिकार से सम्बन्धित प्रश्न।' प्रत्येक देश में न्याय का दिया जाना जितना महत्वपूर्ण है उतना ही उस न्याय का *सुव्यवस्थित व सुगमता से दिया जाना उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है।
 किसी भी देश की न्याय-प्रणाली को इन दो प्रक्रियाओं में से होकर गुजरना चाहिये :- 
 1.*सुव्यवस्थित न्याय।
 2. *सुगम्य न्याय।



           1. सुव्यवस्थित न्याय 

    न्यायिक सुधार में सुव्यवस्थित न्याय से आशय यह है कि उस देश का न्याय आधार मात्र परम्पराओं व पूर्व-व्यवस्थित आधार पर न होकर के गतिशील सांस्कृतिक धारा में बह रहे प्रगतिशील समय के अनुरूप हो। चूंकि पारम्परिक व्यवस्थित न्याय में विलम्ब हो सकता है परंतु प्रगतिशील समय के अनुरूप न्याय में कोई विलम्ब नहीं होता और न्याय तत्काल प्राप्त हो जाता है। इसके साथ साथ न्याय में अत्यधिक न्याय-दार्शन भी ना हो। अर्थात गुनाह, गुनेहगार और पीड़ित इनको एक समान मानवता के न्याय-दार्शन में ना तौला जाये। क्योंकि गुनाह उक्त समाज की पारम्परिक व सांस्कृतिक धारणाओं, मान्यताओं, आस्थाओं एवं मानव-मूल्यों का विरोध है तथा अतिक्रमण है, और अगर कोई यह करता है तो प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर ऐसा व्यक्ति उक्त समाज अथवा देश का भी विरोधी माना जाना चाहिये। जो की उक्त समाज की सामान्य आचार-व्यवहार संहिता का अथवा नियमों का जो की कानून हैं उनका विरोध करता है। जितना अस्वीकारिये गुनाह है उतना ही अस्वीकारिये गुनेहगार भी होना चाहिये।
  किसी पीड़ित को न्याय दिलवाने में यह परमआवश्यक है कि गुनेहगार को पीड़ित के समरूप ना ठहराया जाये। अर्थात न्याय की आवश्यकता पीड़ित को है और उसके साथ-साथ उस देश अथवा समाज की परम्पराओं, मान्यताओं, संस्कृति एवं मानव-मूल्यों को भी है। निसन्देह, न्याय पूर्ण सूक्ष्म जांच-पड़ताल व साक्ष्यों पर आधारित हो परंतु गुनेहगार के बारे में अत्यधिक मानवता के वशीभूत होकर सोचना और उसे स्वयं की रक्षा करने हेतू अवसर पर अवसर प्रदान करना पीड़ित के प्रति अन्याय ही माना जाना चाहिये। ना केवल पीड़ित के प्रति वरन उक्त देश अथवा समाज के सांस्कृतिक व मानव-मूल्यों के प्रति भी।

2. सुगम्य न्याय 

  न्यायिक सुधार में  सुगम्य न्याय से यह आशय है कि जहां न्याय सुव्यवस्थित हो वहीं न्याय-प्रणाली के तथागत ढाँचे के भीतर न्याय पाना महंगा न हो।

 प्रत्येक देश की सरकारें सेवा के अपने हर क्षेत्र में जनता से बदले में फीस, कर व अन्य ढंगो से एक निर्धारित भुगतान लेती है। तो क्योंकर ये सरकारें जनता से कोर्ट-कचहरीयों में एक निर्धारित फीस वसूल नहीं करती?
 यदि सूक्ष्मता से देखा जाये तो न्याय मिलना जितना कठिन नहीं है उतना कठिन न्याय को पाने में है। लोग न्याय को पाने के लिये न्यायालय की शरण में जाते हैं। जहां वकील से लेकर नोटरी राईटर तक जनसाधारण को खूब लूटते हैं। क्योंकि उनकी कोई निर्धारित फीस नहीं होती है।

  लोग न्याय को पाने के लिये अपना सब कुछ बेच देते हैं परंतु फिर भी उन्हें न्याय नहीं मिलता है। खास करके हमारे देश में एक सुव्यवस्थित तथा सुगम्य न्याय व्यवस्था नहीं है। और सब कुछ बेचने की नौबत इसीलिये आती है क्योंकि न्याय के लिये न्यायालय में एक सामान्य फीस निर्धारित नहीं होती। एक धनवान के लिये न्याय पाना और न्याय को घुमाना बड़ा ही सहज हो जाता है क्योंकि वह धनवान है, परंतु एक साधारण व्यक्ति के लिये न्याय पाना एक बोझ के समान हो जाता है। यही कारण है कि किसी भी देश की न्याय-प्रणाली अनिर्धारित न्यायिक फीस के कारण करप्ट हो जाती है। यह स्थिति खासकरके हमारे देश में सिरमौर पर है। भले ही यहां अत्यधिक निर्धन के लिये फ़्री में न्याय प्रदान करने की सुविधा हो परन्तु उसका कोई अर्थ नहीं, क्योंकि कोई भी सरकारी वकील उसके केस में इंट्रेस्ट के साथ काम नहीं करता।
न्यायालयों में सुधार की जरुरत !


 न्याय के क्षेत्र में वकीलों की जो जमात न्याय दिलवाने के लिये कोर्ट में बैठती है सरकार को चाहिये कि न्याय के विभिन्न सम्भागों की फीस निर्धारित की जाये जो कि वकीलों के द्वारा मौखिक ना होकर लिखित फीस हो और वो भी रसीद के साथ।  न्याय के विभिन्न सम्भागों से आशय यह है कि अपराधिक न्याय की फीस जनसामान्य के लिये एक समान निर्धारित हो और ठीक इसी तरह राजस्व न्याय की फीस भी जनसाधारण के लिये एक समान निर्धारित हो। क्योंकि यहां तो न्याय के क्षेत्र में एडवोकेटस जनसाधारण से हर न्यायिक सम्भाग के हर पहलू के लिये अपने-अपने ढंग से मनमाना फीस बसूला करते हैं।

  तो अब हम स्वयं सोचें कि क्या यह न्याय है या फिर अन्याय ! न्याय के ही मन्दिर में जहां जनसामान्य को अन्यायिक ढंग से न्याय प्रदान करने वाले बैठे हों वहां भला उत्तम-न्याय किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है। जितनी पीड़ा कोई गुनेहगार किसी पीड़ित को देता है और उस समाज को देता है उससे अधिक पीड़ा न्यायालय में बैठे ये वकिल, नोटरी व राईटर वर्ग आदि देते हैं।

 अत: यहां बात किसी वर्ग विशेष पर आक्षेप करने की नहीं हो रही बल्कि यहां बात हो रही है न्यायालयों में सुधार की आवश्यकता पर और उस प्रणाली पर आक्षेप करने की हो रही है जिसे देश की सरकारें जानबूझ कर सुधार कर स्वस्थ नहीं करतीं। उन्होने एक ऐसे वर्ग को परम्परा से कायम रखा है जिसका ध्येय न्याय दिलवाने से अधिक अपने व्यवसाय से अधिकाधिक धनार्जन करना होता है। जबकि हम सभी जानते हैं कि न्याय और चिकित्सा का क्षेत्र लाभ प्राप्ति का साधन नहीं होता। यह क्षेत्र तो मानवता की भलाई का क्षेत्र होता है।

 अत: न्याय  और चिकित्सा के क्षेत्र में प्रत्येक देश की सरकारों को उस क्षेत्र में काम कर रहे वकीलों  व चिकित्सकों के लिये उनके जीविकोपार्जन हेतू एक निर्धारित फीस निर्धारित करनी चाहिये ताकि समाज को स्वस्थ न्याय तथा एक अच्छा स्वास्थ्य प्राप्त हो सके ।

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