*पृथ्वी के प्राणियों की संरचना, एक सच !

Prithvi ke praniyon ka sach !



पृथ्वी के प्राणियों की संरचना, एक सच?    

पृथ्वी के प्राणियों के संदर्भ में विज्ञान की अपनी ही एक खोज है। यह खोज प्राणियों के जैविक तथा रसायनिक जीवन मात्र से है। इससे अधिक विज्ञान प्राणियों के जीवन की कल्पना तक नहीं करता। जहां और जिस बिन्दु में विज्ञान अपनी कल्पना को छोड देता है वहीं धर्म अपनी बात कहना शुरु कर देते हैं। तो क्या धर्मों की तात्विक बातें यूं ही हवा में एक काल्पनिक ख्यालें हैं या फिर बिना प्रमाण दिये गईं सत्य बातें ? परन्तु इन अनेकों धर्मों में भी इस संदर्भ में बहुत सी बातें खुल कर नहीं बताई गईं हैं। इसीलिये इस विषय पर अनेकों मतभेद दिखाई पडते हैं।


 प्राणी संरचना

  लगभग प्रत्येक धर्म के अनुसार पृथ्वी के प्रत्येक प्राणी की संरचना पांच-तत्वों से मिलकर हुई है। इनमें भी यह माना जाता है कि भिन्न-भिन्न प्राणियों की संरचना में भिन्न-भिन्न अनुपात में तत्वों का योग है। परन्तु मनुष्य में ये पांचों तत्व पूर्णता सम्मिलित हैं। यह तो हुई प्राणियों के भौतिक शरीर की बात। चलिये अब करते हैं प्राणियों के सूक्ष्म शरीर की बात।

  वैसे तो विज्ञान भी अब प्राणियों के सूक्ष्म शरीर के अस्तित्व को काफी हद तक मानने लगा है। परन्तु प्रयोगशाला में सिद्ध न हो पाने के कारण उसकी सच्चाई पर मोहर नहीं लगा पा रहा है।
 अब सवाल यह है कि क्या पहले सूक्ष्म शरीर बना या फिर भौतिक शरीर ?

  धर्म ग्रंथ क्या कहते हैं ?
  तो चलिये संसार के प्रमुख धर्म की बात इस संदर्भ में कहते हैं।

  पवित्र धर्म ग्रंथ बाईबल के पुराने अहद्नामे के अनुसार, 'परमेश्वर ने नाना प्रकार के प्राणियों की रचना की उसने अपने शब्द से ही उनकी रचना की। अर्थात उसने कहा और वे सब पृथ्वी से उत्त्पन्न हुये- *उत्त्पति-1:11-25.
 अब इसे दृष्टांत में समझिये। जैसे, मान लिजिये परमेश्वर के शब्द बीज हैं और वे बीज पृथ्वी (भूमि) पर से फूट कर बाहर निकले। ठीक उसी तरह जिस तरह कोई पौधा भूमि से फूट कर बाहर निकलता है।

  अब अहद्नामे के ये वाक्य पढ़ते हुये तो यही लगता है कि परमेश्वर ने पहले भौतिक शरीरों की रचनाएं कीं। किन्तु यदि ध्यान से समझा जाये तो पता चलता है की उसने पहले भौतिक शरीरों की नहीं बल्कि सूक्ष्म शरीरों की रचना की थी। उदहारण, क्योंकि किसी भी वस्तु या चीज को बनाने से पहले उसकी कल्पना की जाती है। वही कल्पना अदृश्य में एक आकार ले लेती है और यही आकार उस वस्तु या चीज का *सूक्ष्म-शरीर होता है। इसलिये प्राणियों के संदर्भ में ईश्वर की रचना में ऐसा ही हुआ है। परमेश्वर की कल्पना में वे बीज उसके हृदय में पहले ही आकार में थे। किन्तु जब वे शब्द से बाहर निकले तो वे भौतिक शरीर में ढल कर निकले। वास्तव में भौतिक शरीर परमेश्वर की कल्पना का प्रकट रूप हैं। 

  विज्ञान भी किसी भौतिक शरीर की रचना कर सकता है। परन्तु उसके पास कोई सूक्ष्म कल्पना नहीं है। एक मनुष्य या फिर विज्ञान केवल वही कल्पना कर सकता है जो वे जानता है अथवा जो उसके अनुभव में है। इसलिये वे अपने अनुभव में आने वाले भौतिक शरीरों को तो बना सकता है लेकिन उनके भीतर के व्यक्तित्व को अर्थात व्यक्ति को वह नहीं बना सकता। परन्तु परमेश्वर की बुद्धि असीम है। उसमें पहले व्यक्तियों की रचना करने का सामर्थ्य है फिर शरीरों की।



 मनुष्य संरचना

   मनुष्य भी एक प्राणी ही है। परन्तु जब परमेश्वर ने मनुष्य के शरीर की रचना की तो उसके संदर्भ में उसने उसे शब्द से नहीं वरन अपने हाथों से उसकी रचना की- *उत्त्पति- 2:4-7.
 हाथों से रचना करने का क्या अर्थ हुआ ?
  इस संदर्भ में हम यही सोच सकते हैं कि उसने मनुष्य को *बड़े प्यार और सम्मान से* से बनाया। और फिर जब उसने उसके उसके भौतिक शरीर के नथनों में "जीवन का श्वास" फून्का तो वह मनुष्य जीवित प्राणी बना।
 तो यह "जीवन का श्वास" क्या है ? 

  जिस कल्पना में परमेश्वर ने मनुष्य को बनाया वह कल्पना तो मनुष्य का सूक्ष्म शरीर है। किन्तु जब उस कल्पना की मूर्त में (भौतिक शरीर में) उसने अपनी सांसों को भरा, तो वह सांस ही उसका *आध्यात्मिक शरीर है अथवा रूप है।
  कहते हैं कि परमेश्वर *आत्मा है। उसने मनुष्य को अपने स्वरूप में बनाया।
  अब परमेश्वर का *स्वरूप कैसा है ? हमारे पास परमेश्वर के बारे में पूरी जानकारी नहीं है। परन्तु हम मनुष्य के बारे में अच्छे से जान सकते हैं जिसे परमेश्वर ने अपने स्वरूप में बनाया है।

 जैसे, एक मनुष्य के पास :-
  1. भौतिक शरीर भी है।
  2. सूक्ष्म शरीर भी है (जो पहले बना, जिसे जीव कहते है- *Soul).
 3. आत्मिक शरीर अथवा आत्मिक जीवन (God's Spirit), जो एक सम्भावना की तरह मनुष्य की अपनी आत्मा (Soul) में विराजमान है उसे ऐसे व्यक्तित्व में ढालने के लिये जो उसे (जीव- Soul) सुखद व असीम जीवन में ले जाने में सहायक है।
Prithvi ke praniyon ka sach !



  प्रत्येक प्राणियों का सूक्ष्म शरीर अथवा जीव (Souls) ही उनकी पहचान है कि वे कौन हैं। इसी तरह मनुष्य की पहचान भी उसका सूक्ष्म शरीर अथवा रूप (Soul) ही है।
  प्राणियों के ये पहचान वास्तव में अमर हैं। परन्तु मनुष्य में उस परमेश्वर की सांस (God's Spirit) का होना ही उसे अन्य प्राणियों से भिन्न बनाता है।

  क्रिश्चियनस और मुस्लिमस पुनर्जन्म को नहीं मानते। न ही वे अलग-अलग योनियों में आत्मा (Souls) के भ्रमण को ही मानते हैं। क्योंकि उनके धर्म-ग्रंथों में ऐसा कुछ भी जिक्र नहीं किया गया है।

  परन्तु *हिन्दु धर्म के नजरिये में "आत्मा (Souls n fleshes) और योनियों का क्या अर्थ है ?
 आइये समझते हैं :- योनियां अर्थात भौतिक शरीरें।
                           आत्मा अर्थात योनियों में प्रवेश करने वाले व्यक्ति (पहचान)।

  हिन्दु धर्म में समस्त भौतिक शरीरों की परिभाषा अच्छे से परिभाषित है। परन्तु आत्मा (Souls) की परिभाषा सबके लिये एक समान है। जैसे, कुत्ते, बिल्ली, गधे, सांप, बिच्छु, कीट-पतंगों और मनुष्यों की आत्मा (Souls) एक ही है। उनमें कोई अन्तर नहीं। वो तो मात्र द्रष्टा है।

  तो इस सिद्धांत के अनुसार सभी योनियों की एक ही पहचान है। उनकी कोई अलग-अलग पहचान नहीं। मात्र शरीर से (योनि) उनकी पहचान अलग बनती है। अर्थात सबकी पहचान एक ही है कोई अलग-अलग पहचान (souls or individuals) नहीं हैं। तो क्या यह सम्भव है ? इसका अर्थ तो यही हुआ कि सभी प्राणियों की आत्माएं एक ही है और वे कोई व्यक्ति (soul or individual) न होकर मात्र कोई शक्ती ही है। सिर्फ शक्ती। जैसे किसी खिलौने की बेटरी।

  पर यथार्थ में वास्तविकता यह है कि जो जैसा है वैसा ही वे प्रकट में अभिव्यक्त है। अर्थात आम का पेड़ आम इसीलिए है क्योंकि उसका बीज आम का ही है। ठीक इसी तरह बबूल का पेड़ बबूल इसीलिए है क्योंकि उसका बीज बबूल का ही है। नाना प्रकार के प्राणियों और मनुष्यों के सन्दर्भ में भी ऐसा ही है।

  किसी भी प्राणी की आत्मा (soul or जीव) किसी दूसरे प्राणी (जीव or soul) के शरीर (योनि) में प्रवेश नहीं कर सकती। यदि ऐसा होगा तो वह प्राणी (जीव) अपनी पहचान ही खो देगा।

  इसलिये मनुष्य को छोड़ किसी भी अन्य प्राणीयों का पुनर्जन्म नहीं होता।  मनुष्य के सन्दर्भ में भी यह केवल सम्भावना हो सकती है की उसका पुनर्जन्म होता हो। परन्तु ठोस रूप में यही सत्य है यह कह सकना जरा संदेहास्पद है।



 त्रियेकत्व

   परमेश्वर की रचना में उसने मनुष्य को ठीक अपने समान (स्वरूप) बनाया। आइये इस उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं जिसे में *त्रियेकत्व का सिद्धांत* कहता हूँ :-
 मान लिजिये हमारे सामने मोबाइल हेंडसेट पड़ा हुआ है।जिसमें मोबाइल का ढांचा तो उसकी बॉडी है (शरीर)।
 उसकी बेटरी उसका प्राण (जीव अथवा जीवन) है।

  और तीसरा उसका सिमकार्ड ही *परमेश्वर का आत्मा (God's spirit) है।
  कोई भी मोबाइल बिना सिमकार्ड के  functionally चलता है। उसे जिस तरह feed किया गया है ठीक उसी प्रकार वो कार्य करता है।

  मनुष्य को छोड़ समस्त अन्य प्राणी बिना सिमकार्ड के  Functional mobile handset  की तरह ही हैं।
  परन्तु मनुष्यों के सन्दर्भ में ऐसा नहीं है। परमेश्वर ने उसे अपनी आत्मा  (Spirit) से इस तरह जोड़ के रखा है की वो कभी भी मात्र *Functional* नहीं हो सकता है अन्य प्राणियों की तरह।

  अत: जिस तरह मनुष्य का सम्पूर्ण व्यक्तित्व हमने *त्रियेक्त्व* के रूप में देखा। तो समझ लिजिये की परमेश्वर का व्यक्तित्व भी *त्रियेकत्व* में ही है।
  मनुष्य एक होकर भी भीतर से तीन व्यक्तित्व में सृजित है। ठीक इसी तरह परमेश्वर भी एक होकर भी भीतर से तीन व्यक्तित्व में स्वतः है। जिसे वैदिक ज्ञान में - *ब्रह्म-परमेश्वर+*परब्रह्म-परमेश्वर+*परमब्रह्म-परमेश्वर कहते हैं।

  *ब्रह्म-परमेश्वर तो भौतिक जगत और शरीरों की रचना करते हैं।
  *परब्रह्म-परमेश्वर उन भूतों (पदार्थों) अथवा शरीरों के बीजों की (जीवों-souls) रचना (कल्पना) करते हैं।
  *परमब्रह्म-परमेश्वर तो मनुष्य के सन्दर्भ में उनकी आत्मा (soul or जीव) में विराजमान होकर उन्हें असीम जीवन देने, सुख, शान्ति और स्थाई आनन्द देने की कृपा करते हैं।
 सम्भवत: धर्मशास्त्र बाईबल में *पिता+पुत्र+पवित्रआत्मा* इन्हीं त्रियेक्त्व की पहचान हैं !

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