*भगवान् और परमात्मा में अंतर !*

 

भगवान् और परमात्मा में अंतर !

 आज के इस लेख में हम God and gods in hindi के बारे में सविस्तार से जानेंगे। इस संसार में 97% लोग भगवान के अस्तित्व को मानते हैं। हर कोई भगवान को किसी न किसी रूप में देखता है। कोई क्या कहता है तो कोई क्या कहता है। पर वास्तव में भगवान हैं कौन ?, और ईश्वर, भगवान्, परमात्मा और परमेश्वर में क्या अंतर है ?

 परंतु फिर भी भगवान की परिभाषा सभी ने अपने-अपने ढ़ंग से की है।

  भगवान का शाब्दिक अर्थ

 भगवान शब्द पाँच अक्षरों से मिलकर बना है, जो निम्न है :- भ - भूमी, ग - गगन, व - वायु, अ - अग्नि, न - नीर (पानी)। अर्थात पाँच महाभूत ही भगवान है। 

  भगवान का गुणवाचक अर्थ

 भगवान शब्द भग+वान शब्द से मिलकर बना है। भग धातु का 6 अर्थ है :- 1. पूर्ण ज्ञान, 2. पूर्ण बल (शक्ति), 3. पूर्ण धन, 4. पूर्ण यश, 5. पूर्ण सौंदर्य, 6. पूर्ण त्याग।

 इस प्रकार जिसमें यह 6 गुण एक साथ हैं वह भगवान है अथवा जिसमें यह गुण स्थाई रूप से विद्यमान रहते हैं वह भगवान है।

 भगवान शब्द का विशेषणिक अर्थ

 विष्णु पुराण : 6.5.74 में लिखा है, " संपूर्ण ऐश्वर्य को भगवान कहते हैं।" अर्थात यह संपूर्ण संसार, जिसे हम संसार कहते हैं उसे वास्तव में ऐश्वर्य कहते हैं। परंतु जब यह संपूर्ण ऐश्वर्य समष्टि से व्यष्टि रूप में प्रकट होता है तो उसे ईश्वर कहते हैं।

 तो इस प्रकार उपरोक्त समस्त अर्थों के आधार पर भगवान की परिभाषा यह है :- 'भागवत 1 .1.1 के अनुसार, " जिससे संसार उत्पन्न हो, जिससे संसार का पालन हो, जिससे संसार का लय हो, उसका नाम है भगवान्।"

 भगवान् शब्द की वैज्ञानिक परिभाषा

 जिस प्रकार हर पदार्थ की प्राथमिक अवस्था होती है ठीक उसी प्रकार भगवान की भी प्राथमिक अवस्था होती है और उस अवस्था को परमेश्वरीय अवस्था कहते हैं। भगवान की यह अवस्था सगुण रूप में परम-ऐश्वरीयमय है। इस अवस्था को भगवान की शैशव (शिशु) अवस्था कहते हैं।


 भगवान की दूसरी अवस्था को व्यस्क अवस्था कहते हैं। भगवान की यह अवस्था त्रिगुणमय है अर्थात मन-बुद्धि और अहंकार सहित वह सक्रिय रहते हैं। अपने जीवन की इस अवस्था में भगवान भान्ति-भान्ति के आकारमय सृष्टि की रचना करते हैं और उनका संचालन (पालन) और समापन (अंत) करते हैं।

 भगवान् की तीसरी अवस्था है अपनी बनाई हुई आकारमय सृष्टि में मानव रूप में प्रकट होना।

 भगवान का मानव रूप में ही प्रकट होने का कारण

 भगवान् केवल मानव रूप में ही इसीलिये प्रकट होते हैं क्योंकि देवी-देवता केवल सतोगुण (मन) से निर्मित हैं जबकि असुर, दानव ओर राक्षस इत्यादि तमोगुण (अहंकार) से निर्मित हैं। किन्तु एक मनुष्य ही है जो सतोगुण (मन) और तमोगुण (अहंकार) के साथ-साथ रजोगुण (बुद्धि) से भी निर्मित प्राणी है। अर्थात उसमें कुछ भी सृजन करने की शक्ति निहित है। मनुष्य में कल्पना शक्ति होती है। उसमें सृजन करने के गुण होते हैं। इस लिहाज से मनुष्य देवी-देवताओं और दानवों से अधिक शक्तिशाली होता है। इसीलिये कहते हैं कि मनुष्य को भगवान ने अपने स्वरूप में बनाया है, अर्थात जैसा भगवान का त्रिएक रूप है, ठीक वैसा ही।

 भगवान और परमात्मा में अन्तर

 परमात्मा भगवान् की मूल अवस्था (निर्गुण) है तथा यह अवस्था *परमअक्षर-ब्रह्म की अवस्था है, और परमेश्वर भगवान की प्राथमिक अवस्था (सगुण+सम्यक्) है, और त्रिएक परमेश्वर भगवान् की दूसरी अवस्था है। वास्तव में परमेश्वर और भगवान दोनों ही पुरुष (परमात्मा) और स्त्री (प्रकृति) के संयोग से बने हैं। परमेश्वर की बनावट के भीतर में पुरुष (परमात्मा) और स्त्री (प्रकृति) दोनों ही साम्य और सौम्य अवस्था में रहते हैं और परमेश्वर की यह अवस्था *अक्षर-ब्रह्म की अवस्था है, जबकि भगवान (त्रिएकेश्वर में) की बनावट के भीतर में ये दोनों ही आदि और अंत की गतिशील क्रिया में रहते हैं, अर्थात प्रकृति और पुरुष के परस्पर संसर्ग से अंडज से पिण्डज और पिण्डज से अण्डज की स्थिति बनती ही रहती है। भगवान की यह अवस्था *क्षरब्रह्म अवस्था है।

 संपूर्ण जगत में भगवान् 

 इस संपूर्ण जगत में, ये समस्त ब्रह्माण्ड, अलग-अलग लोक और Multi-dimensional universes  जो हैं ये सभी भगवान् के मूल रूप से त्रिएकत्व रूप तक निर्मित हैं। 

 सरल शब्दों में कहें तो मूल रूप सहित पाँचमहाभूतों और त्रिगुणों की अलग-अलग मात्राओं से निर्मित हैं।

 और हर Universe में मानव होते हैं जिनमें भगवान की तीसरी अवस्था होती है।

 हमारी Universe (ब्रह्माण्ड) में हम मनुष्य भगवान् की तीसरी अवस्था में निर्मित तो हैं  परंतु अपनी मूल अवस्था (आत्म अवस्था) को भूलने के कारण हम अपनी कल्पना और कार्यों में उबाल (द्वंद) लाते हैं, अर्थात हमारा चित शान्ति और आनंद के बिना सृजन करता है जिससे ब्रह्माण्ड में अशांति फैलती है।

परंतु जो मनुष्य ब्रह्माण्ड अथवा जगत की मूल चेतना (परमात्मन) को मानव रूप में प्रकट करता है केवल वही भगवान् कहलाया जाता है।

 भगवान् और आत्मा में क्या अंतर है ?

  इस जगत में हर पदार्थ और जीव के 6 रूप होते हैं। इस विशाल व अनंत दिखने वाले अंतरिक्ष से जो सूक्ष्म है वही पदार्थ और जीव का मूल रूप है, जिसे आत्मा कहते हैं। हाँ, पदार्थ और जीव का मूल रूप अदृश्य है।

 पदार्थ और जीव का पहला रूप है - आकाश (अन्तरिक्ष)।

 पदार्थ और जीव का दूसरा रूप है - निहारिकायें। यह पदार्थ अथवा जीव का भाष्पित (वायु) रूप है।

 पदार्थ और जीव का तीसरा रूप है - आकाशगंगायें। आकाशगंगायें पदार्थ और जीव का अग्निमय रूप है। 

 पदार्थ और जीव का चौथा रूप है - क्षीरसागर। क्षीरसागर पदार्थ और जीव का तरल रूप है।

 ठीक इसी प्रकार पदार्थ और जीव का ठोस रूप है - ग्रह अथवा जीव पिण्ड (शरीर) या फिर कहें मानव पिण्ड।

 ब्रह्माण्ड में मनुष्य के संदर्भ में भी ऐसा ही है। भले ही अन्य जीव-जन्तु पाँच महाभूतों और त्रिगुणों की अलग-अलग मात्राओं में से होकर बनते हों, तो भी मनुष्य सहित सभी प्राणियों की मूल अवस्था आत्म अवस्था है जो कि अदृश्य रूप में है और इसी अवस्था को आत्मा कहते हैं। सभी प्राणियों की मूल अवस्था आत्म अवस्था ही है, और सभी की आत्मा की प्रकृति एक ही है और यह प्रकृति निर्गुण है।

  पदार्थ या प्राणी की मूल प्रकृति (रूप) से आगे की समस्त प्रकृति अपरा-प्रकृति है जबकि पदार्थ या प्राणी की मूल प्रकृति परा-प्रकृति है।

  जन्म, जीवन और मरण यह तीनों पदार्थ या प्राणी की अपरा-प्रकृति (पाँच तत्वों और त्रिगुणों - सत, रज, तम अथवा मन, बुद्धि, अहंकार) के द्वारा घटित होते हैं।

 जबकि पदार्थ अथवा जीव (प्राणी) की मूल प्रकृति (परा-प्रकृति) जन्म-जीवन और मरण से भिन्न है, और यह भगवान और परमेश्वर से सर्वथा भिन्न है।

 भगवान् और परमेश्वर का महत्व 

 जब तक मनुष्य या कोई अन्य जीव शरीर या शरीर के भाव में है तब तक उनके लिये भगवान् और परमेश्वर महत्व रखते हैं, क्योंकि जीव का कारण शरीर व स्थूल शरीर केवल इन्हीं के द्वारा निर्मित है।

 *भगवान् और परमेश्वर से मोक्ष नहीं मिलता !

 एक मनुष्य होने के नाते हममें बुद्धि (रजोगुण) है, और इस बुद्धि के द्वारा हम भगवानों की पूजा और परमेश्वर की आराधना (भक्ति) और उनसे प्रार्थना कर सकते हैं, परंतु उनसे मोक्ष कभी नहीं प्राप्त कर सकते हैं।

 परमेश्वर अच्छे या बुरे कर्मों के हिसाब से जीवन में फल देते हैं और उसी के हिसाब से पुनर्जन्म भी देते हैं, और पापों से क्षमा भी देते हैं !

लेकिन परमात्मा तो केवल न्यायपूर्ण प्रकृति की व्यवस्था ही करते हैं, जो अत्यंत कठोर भी होते हैं।

 लेकिन भगवान परमेश्वर की न्यायपूर्ण व्यवस्था को चलाने और कल्याणमय कार्यों में ही व्यस्त रहते हैं।

 परमेश्वर केवल उन्हीं की आराधना और प्रार्थना से मनुष्य को अनन्तजीवन देते हैं।


मोक्ष केवल आध्यात्मिक ज्ञान एवं परमात्म ध्यान से ही मिलता है !

 जबकि आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त होने से जीवन और उससे संबंधित हर पहलु से मोह टूट जाता है, और जब इस संसार से (अपरा-प्रकृति से) मोह नहीं रहता तो मनुष्य मोक्ष को प्राप्त करता है। इसी अवस्था को किसी जीव या मनुष्य की मूल अवस्था अर्थात परमात्मन अवस्था कहते हैं।

 *भगवान् की पूजा की जाती है।

 *परमेश्वर की आराधना (भक्ति) की जाती है।

 *जबकि परमात्मा को केवल जाना जा सकता है।

 *भगवान् और परमेश्वर से माँगा जाता है और वे देते हैं।

 *जबकि परमात्मा से न तो कुछ माँगा जा सकता है और न ही कुछ प्राप्त किया जा सकता है। परमात्मा तो पदार्थ या जीव में घटित होते हैं जिसे मनुष्य को स्वयं वेदांत में उल्लिखित आध्यात्मिक ज्ञान से पाना होता है।

 

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