*इच्छायें पाप नहीं होतीं, ये धर्म गलत कहते हैं !*

क्या इच्छा पाप है ?


  इच्छायें पाप नहीं होतीं, ये धर्म गलत कहते हैं !

  इच्छायें अथवा कामनायें, हाँ यही जीवन है ! *इच्छायें पाप नहीं हैं,पाप है उनकी निकृष्टता।  बिना इच्छा और कामनाओं के कोई जीवन नहीं होता, यही जीवन की सच्चाई है और सार भी। जिसकी हम कल्पना कर सकते हैं और जिसकी हम कामना कर सकते हैं - सेक्स भी इसमें शामिल है, धन भी इसमें शामिल है। लेकिन हम इन सब चीजों की निंदा करने के मामले में एक दम साफ हैं। सेक्स को ठुकराओ, प्रेम को ठुकराओ, धन को ठुकराओ, लोगों को ठुकराओ। फिर किस किस्म का जीवन बाकी बचेगा ?

 इच्छायें और कामनायें हमने नहीं बनाईं !

  जीवन की इस यात्रा में और थका देने वाली इस व्यस्त जिंदगी में कुछ पल रुक कर जरा गहराई से यह सोचिये कि क्या इच्छायें, कामनायें और अभिलाषाएं हम इंसानों ने बनाईं हैं या यह अपने-आप इस प्रकृति के द्वारा हम में फ़ीड की गई हैं ! 

 हाँ, ये मौलिक गुण हम इन्सानो में ही नहीं बल्कि इस सृष्टि के प्रत्येक जीवों का स्वाभाविक गुण है।

  लेकिन हमारे धर्मों के तथाकथित धर्मगुरुओं ने अपनी धर्मपुस्तकों में ऐसे-ऐसे सिद्धांत लिख डाले हैं जिससे लगभग हम सभी इन्सानों में इच्छाओं के और जीवन के प्रति एक नकार की भावनायें उमड़ आईं हैं, और ऐसा हजारों वर्षों से होता आ रहा है। हमने वर्तमान-जीवन का नकार किया है लेकिन हमने मृत्यु के बाद के जीवन को ही स्वीकारा है, जिसके बारे में वास्तव में किसी को नहीं पता।

  इच्छाओं के प्रति धार्मिक लोगों का नजरिया !

  धार्मिक लोग युगों से जीवन की निंदा करते रहे हैं। जीवन का कोई भी पहलु उन्हें दीजिये, वे उसकी निंदा करने से नहीं चूकेंगे। देह के बारे में वे कहेंगे कि देह है ही क्या? चमड़ी का एक थैला जिसमें लाखों-लाख गंदी चीजें भरी हैं? जरा इस थैले को खोल कर तो देखो। और उनकी बातों से यह भी लगेगा कि उनकी बात सही है। 

 ऐसे लोगों की कमी नहीं है जिन्हें कोई न कोई गलत बात दिख ही जाती है। उन्हें गुलाब दिखाओ तो वे कहेंगे कि कुछ ही घंटो में यह मुरझा जायेगा। इसकी सारी सुन्दरता समाप्त हो जायेगी। उन्हें एक खूबसूरत इंद्रधनुष दिखाओ, तो वे कहेंगे कि यह तो निगाह का फेर है। अगर वहां जायेंगे तो इंद्रधनुष के नाम पर तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा। यह तो महज एक प्रतीति है। 

 हमारे लिये जीवन का आनन्द उठाना लगभग असंभव हो गया है। लेकिन हमें यह कभी नहीं लगता कि जीवन का आनंद न उठा पाने की यह समस्या हमारे तथाकथित धर्मगुरुओं ने पैदा की है। उन्होंने हमारे अस्तित्व को विषाक्त कर दिया है। यहां तक कि जब हम किसी स्त्री का चुंबन ले रहे होते हैं तो ये धर्म गुरु भीतर से बोलते हैं कि ये क्या कर रहे हो, ये तो गलत है। जब हम भोजन कर रहे होते हैं, तो वे कहते हैं कि ये क्या कर रहे हो, इस तरह के भोजन में कुछ नहीं रखा है। जीवन की निंदा करने वाले इन धर्मगुरुओं की कोई सीमा नहीं है।

 जीवन की निंदा करने वाले बड़े अभिव्यक्त कुशल होते हैं। लगातार निंदा और नकार के द्वारा उन्होने एक ऐसी मानसिक्ता बना दी है जिससे हमारा जीवन विषाक्त होता रहता है।

 ऐसे लोग पूछते हैं कि जीवन है ही क्या ? सेक्स करना, धन कमाना सांसारिक कामनायें पूरी करना, आदि ?

 अब सवाल यह है कि इन सांसारिक इच्छाओं और कामनाओं में बुरा क्या है ? हकिकत तो यह है कि सभी तरह की कामनायें सांसारिक ही होती हैं। क्या हमें कोई ऐसी इच्छा या कामना पता है जो सांसारिक न हो ?

 पर ज्ञानी तो कहते हैं कि इच्छा या कामना ही संसार है। इच्छा या कामना करना संसार में रहना है, कामना न करना संसार से बाहर रहना है। इसलिये हमें सांसारिक इच्छाओं और कामनाओं की निंदा नहीं करनी चाहिये, हमें उन्हें समझने की कोशिश करनी चाहिये। आखिरकर सभी कामनायें सांसारिक ही तो होती हैं।

क्या इच्छा पाप है ?


   लोग जब साधारण इंसानों के साथ संभोग करते हैं तो वे सांसारिक होते हैं। लेकिन हमारी कामना क्या है ? कुरान के पन्नों में देखो, हिन्दु धर्मशास्त्रों के पन्नों में देखो, बाईबल में देखो। हम क्या चाहते हैं कि स्वर्ग में हमें क्या मिलना चाहिये। सोने की बनी अप्सरायें जो कभी बूढ़ी नहीं होतींं, जो हमेशा जवान बनी रहती हैं।

  मुसलमानों के स्वर्ग में हमें खूबसूरत परियां ही नहीं, बल्कि खूबसूरत लौंडे भी मिलें। इस दुनियां में भले ही शराब की निंदा की जाये, पर मुसलमानों के स्वर्ग में तो शराब के झरने फूट रहे हैं। वहाँ हमें पब जाने की जरुरत नहीं है। हम उनमें तैर सकते हैं, डूबकी लगा सकते हैं। इसके बावजूद हम इन्हें असांसारिक-लोग कहते हैं। पर हकिकत तो यह है कि ये लोग बेहद सांसारिक किस्म के लोग ही हैं जो इस दुनियाँ से इतने हताश हो चुके हैं कि स्वर्ग या जन्नत नाम की किसी फेंटसी रचित संसार में रहते हैं।

  सारी इच्छायें या कामनाएं सांसारिक ही होती हैं !

 *असल में सारी कामनायें सांसारिक ही होती हैं। कामनायें करना ही सांसारिक है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। प्रकृति ने हमें इच्छाओं और कामनाओं को समझने का मौका दिया है। कामनाओं को समझने की प्रक्रिया में ही इच्छायें और कामनायें लुप्त हो जाती हैं !*

 हमें इच्छाओं और कामनाओं को समझना चाहिये। क्या यह सच नहीं कि हम यहाँ जिस-जिस इच्छा या कामना का नकार करते हैं हम मरने के बाद किसी दूसरी दुनियाँ में जिसे हम स्वर्ग या जन्नत कहते हैं उनसे बढ़ कर पाने की चाहत रखते हैं और वो भी हमेशा के लिये, परमानेंट ? क्योंकि यहां की वस्तुएं परमानेंट नहीं हैं ! हमें तो परमानेंट इच्छा और कामना वाला सुख चाहिये, जो टिकाऊ हो और शेष में दुख भी नहीं चाहिये।

  अब बताइये धार्मिक इंसान बन कर हमारी इच्छायें और कामनायें कौन-सी पवित्र हैं और कौन-सी असांसारिक (गैरसांसारिक) हैं जो हम इस जीवन की इच्छाओं और कामनाओं का नकार करते हैं ? धार्मिक व्यक्ति बनकर हम वर्तमान में नहीं जी कर भविष्य की अज्ञात आशा में जीते हैं, और बदले में जीवन की, प्रकृति की अवहेलना करते हैं।

हम प्रकृति और उसके दिये स्वभाव को न समझ कर उसका तिरिस्कार करते हैं तथा अपने ही जीवन की अवहेलना करते हैं और निंदा भी। इसलिए इच्छाएं पाप नहीं हैं, पाप है उनकी निकृष्टता !

 आजतक की हमारी सारी शिक्षा तथाकथित धर्मगुरुओं द्वारा रचित धर्मपुस्तकों के आधार पर हुई है, न कि उन बुद्धिमान श्रेष्ठ मनुष्यों के द्वारा जो वास्तव में प्रकृति और जीवन की सही व्याख्या करने की काबिलियत रखते हैं, और जो मनुष्य को उनके अंतस से जोड़ सकते हैं, जो जीवन को एक फूल की तरह खिला सकते हैं, जो स्वर्ग को इसी पृथ्वी पर, इसी धरती पर होने का विजन दे सकते हैं। जो यह व्याख्या करते हों कि इच्छाओं और कामनाओं को न समझ पाना ही वास्तव में नरक है, इसी से किसी मनुष्य की गति बिगड़ती है; पर ऐसी बिगड़ने वाली स्थिति तो हम लगभग सभी धर्मों के लोगों में पाते हैं ! 

 *इच्छाओं, कामनाओं और अभिलाषाओं का आना गलत नहीं; पर कितनी मात्रा में, कैसी परिस्थिति में और उस इच्छा को पाने के प्रकृति के क्या नियम हैं उसी के तहत ही हमें इच्छाओं को पूरा करना चाहिए !*

 इसलिये आकाश की संतान बनने से पहले हमें धरती की संतान बनना चाहिये, और यह सच भी है कि हम धरती की संतान पहले हैं फिर आकाश की !

1 टिप्पणियाँ

और नया पुराने