*क्या सनातनधर्म ही मानवधर्म है !*


    क्या सनातनधर्म ही मानवधर्म है ?

   भारतीय आस्था की जड़ें तत्व ज्ञान की गहराइयों में छिपी हुई हैं, और जो मनुष्य इस ज्ञान को पा लेता है, वह सत्य को पा लेता है। अपने जीवन के एक चरण में मैने सोचा कि 'यदि तत्व ज्ञान को पाना ही सत्य को पाना है तो सम्पूर्ण भारतीय जनमानस में से केवल कुछ लोग ही इसकी लालसा रखते हैं। बाकि के करोड़ों लोग केवल प्रतीक पूजा करते हैं। अब क्या वे भी इश्वेर के प्रिय लोग नहीं हैं !'  
 अज्ञानता में रहना ही जीवन का दुख है और अज्ञानता में रहकर मरना ही नरक है। इस तर्क के अनुसार तो भारतीय जनमानस नित्य-प्रतिदिन अज्ञानता में जीते हैं और अज्ञानता में ही मरते हैं। पुनर्जन्म के क्रम के अनुसार हरेक मनुष्य को ज्ञान प्राप्ति का अवसर मिलता है या यूं कहें उनका ज्ञान प्राप्ति के चरण में सतत् विकास होता है। परंतु विश्व-युध्द या फिर किसी और कारण से पृथ्वी यदि नष्ट हो जाये तो ऐसी स्थिति में सामान्य जनमानस की आत्माओं का क्या होगा। क्योंकि वे सभी तो अज्ञान अर्थात अन्धकार की अवस्था में मरे होंगे।

   अत: सामान्य जनमानस का उद्धार कैसे सम्भव है?  तो क्या फिर तत्व ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया जाना उचित नहीं? न केवल भारत में बल्कि सम्पूर्ण विश्व में भी। जहां तक मैं समझता हूं कि भारत के बनिस्बत विदेशों में इस ज्ञान का प्रचार-प्रसार हो रहा है। लेकिन भारत में इस ज्ञान का प्रचार-प्रसार एक मिशन के रूप में नहीं हो रहा है। प्रतीक पूजा, कर्म-काण्ड व झूठी परम्पराओं से दुखी होकर भारत के निम्न वर्ण के लोग अत्यधिक संख्या में अपना धर्म-परिवर्तन कर रहे हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि ये सब असत्य है जो उन्हें न तो एक सम्माननीय जीवन ही दे सकते हैं और न ही मुक्ति अर्थात मोक्ष। उच्चवर्ण के लोगों को न तो मुक्ति की ही लालसा होती है और न ही इन झूठी परम्पराओं व कर्मकाण्डों से ऐतराज ही। क्योंकि वे एक सम्माननीय जीवन जी रहे हैं और अधिकांशतः भौतिक रूप से सुखी भी होते हैं। 

  सनातन धर्म और हिंदु धर्म दोनों अलग-अलग हैं

   इसीलिए सम्पूर्ण भारतीयों को यह बताना परमावश्यक है कि भारतीय आस्था  दो हिस्सों (गुटों) में बन्टी हुई है- *वेद व *वेदान्त। वेदों में सम्पूर्ण कर्मकाण्ड निहित है जबकि वेदान्त में केवल आत्मज्ञान। वेदों को आधार मानकर इतिहास में कुछ ऋषियों (ब्राह्मणों) ने या राजाओं (विशेष कर- राजा मनु) ने सम्पूर्ण भारतीयों के लिये एक व्यवस्था दी। अर्थात एक धर्म दिया जिसे- हिन्दु धर्म कहते हैं, जिसमें जाति-पाति की व्यवस्था निहित है।

  जबकि वेदान्त एक खुले विचारों का समुंद्र है जो सनातन आस्था के विकास में विश्वास रखता है। वेदान्त भी वेदों का ही सार है। इतिहास में दो तरह के समूह ने वेदों को अपने-अपने नजरिये से देखा और फिर उसका निचौड़ भारतीय जनमानस को दिया। एक समूह ने उसे परंपरावादी धर्म (मनु का धर्म) के रूप मे प्रस्तुत किया और दूसरे समूह ने उसे मात्र एक सत्य-ज्ञान के रूप में देखा। एक ने नकारात्मक भाव से सोचा और दूसरे ने मनुष्य के आत्म-विकास के भाव से सकारात्मक सोचा। मैं भी वेदों के सत्य-दार्शन के सकारात्मक भाव का पक्षधर हूं। मेरी इसमें अटूट श्रद्धा है। मैं महात्मा बुद्ध ही की तरह सनातन के परंपरावादी धर्म (हिन्दू धर्म) का खण्डन करता हूं और इसके वास्तविक धर्म का अर्थात अध्यात्मिक ज्ञान का समर्थन करता हूं।

  बड़े ही अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि हजारों वर्षों से अभी तक केवल सनातन के परंपरावादी धर्म (मनुवादी - हिन्दूधर्म) का ही प्रचार-प्रसार हुआ है। वास्तव में बहुत कम लोग ही इसके सौम्य पहलू को जानते हैं और जो जानते हैं वे इसके बारे दूसरों को समझा नहीं पा रहे हैं। वे लोगों को समझा नहीं पा रहे हैं कि वास्तव में सनातन धर्म
 यह है वह नहीं जिसने तुम्हें सदियों से पीड़ाएं हीं दीं या फिर अज्ञानता व अन्धकार में रखा है।

  यदि सनातनधर्म को जो कि वास्तव में सम्पूर्ण मनुष्यजाति का अर्थात मानवधर्म है उसे बचाना है तो इसके लिये यह परमावश्यक है कि इसका व्यापक स्तर पर प्रचार-प्रसार एक मिशनरी स्तर पर होना चाहिये। इसके प्रचार-प्रसार की आवश्कता इसलिए भी है क्योंकि हजारों वर्षों से ब्राह्मणों के द्वारा सत्य को जनसामान्य से छुपा कर रखा गया। सनातन आस्था को बचाने के सन्दर्भ में हमें भी कृश्च्नों की भान्ति रणनीति चलनी चाहिये।  

     रणनीति बनायें

  क्रिश्चयन्स के अलग-अलग मिनिस्ट्रिज हैं जो अलग-अलग केन्द्रों में रह कर फील्ड-वर्करों (धर्म-प्रचारकों) की नियुक्ति कर प्रचार-प्रसार करते हैं। हालांकि इन फील्ड-वर्करों को आस्था के नाम पर गुमराह करके उनकी भावनाओं के साथ खेल कर उन्हें बहुत कम मान्देय दिया जाता है, जिसे गिफ्ट कहा जाता हैं न की सेलरी। फिर भी ये धर्म-प्रचारक बड़े ही श्रद्धा के साथ अपना कार्य करते हैं। क्योंकि इनके जीवन की सभी जरूरतों को धीरे-धीरे अलग-अलग भेंट के तरीकों से पूरा किया जाता है। उच्च-स्तर पर बैठे (मिनिस्ट्रीयल सेन्टर में) इनके प्रमुख लोग भी श्रद्धा से काम करते हैं और श्रद्धा से ही बखूब बटोरते रहते हैं। तो क्यों न सनातन आस्था रखने वाले भी इसी प्रकार केवल सनातन दार्शन का प्रचार-प्रसार करें। जो कि वेदों का सार हैं जैसे, उपनिषद व गीता आदि।

  यह काम अखाड़ों में बैठकर या फिर कहीं पंडाल लगाकर प्रवचन देने
 मात्र से नहीं हो सकता है बल्कि ग्राउन्ड-स्तर पर फील्ड-वर्करों (प्रचारकों) की नियुक्ति करके ही सम्भव हो सकता है। जिसके लिये शक्तिशाली मिनिस्ट्रिज (संस्थाओं व संगठनों की) की स्थाप्नायें करना आवश्यक है। इन मिनिस्ट्रिज के लिये सनातन आस्था रखने वाले हरेक धनवान भारतीयों से लेकर निर्धन भारतीयों तक से यह निवेदन रहेगा कि इनके संचालन के लिये अपनी कमाई का (मंदिरों में दान देने की बजाये) दशमांश और भेंट के रूप में दान दें। इस सन्दर्भ में सविस्तार से एक खाका बनाने की जरुरत है।
 

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